गेस्टाल्ट मनोविज्ञान की स्थापना जर्मनी में मैक्स वरदाईमर द्वारा 1912 ई० में की गयी। इस स्कूल के विकास में दो अन्य मनोवैज्ञानिकों, कर्ट कौफ्का (1887-1941) तथा ओल्फगैंग कोहलर (1887-1967) ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। इस स्कूल की स्थापना वुण्ट व टिचनर की आणुविक विचारधारा के विरोध में हुआ था। इस स्कूल का मुख्य बल व्यवहार में सम्पूर्णता के अध्ययन पर है। इस स्कूल में अंश की अपेक्षा सम्पूर्ण पर बल देते हुये बताया कि यद्यपि सभी अंश मिलकर सम्पूर्णता का निर्माण करते है। परन्तु सम्पूर्णता की विशेषताएँ अंश की विशेषताओं से भिन्न होती है।
गेस्टाल्ट मनोविज्ञान
गेस्टाल्ट मनोवैज्ञानिकों ने इसे गेस्टाल्ट की संज्ञा दी। जिसका अर्थ प्रारूप आकार या आकृति बताया। इस स्कूल द्वारा प्रत्यक्षण के क्षेत्र में प्रयोगात्मक शोध किए गए है। जिससे प्रयोगात्मक मनोविज्ञान का नक्शा ही बदल गया। प्रत्यक्षण के अतिरिक्त इन मनोवैज्ञानिकों ने सीखना, चिंतन तथा स्मृति के क्षेत्र में काफी योगदान दिया। जिसने शिक्षा मनोविज्ञान को अत्यधिक प्रभावित किया।

गेस्टाल्ट मनोविज्ञान – सीखना
गेस्टाल्ट मनोवैज्ञानिकों ने सीखने के क्षेत्र में अनेक महत्वपूर्ण प्रयोगात्मक अध्ययन करके सीखने की एक नयी अंतर्दृष्टि विधि प्रदान की । इन लोगों ने यह स्पष्ट किया कि सीखना एक तरह का क्षेत्र का प्रत्यक्षणात्मक संगठन होता है। जिसमें व्यक्ति परिस्थिति को नये ढंग से देखता है। इन लोगों ने भी यह स्पष्ट किया कि प्राणी प्रयत्न एवं भूल से नहीं बल्कि सूझ से सीखता है। सूझ व्यक्ति में किसी समस्या का समाधान करते समय या किसी पाठ को सीखते समय प्रायः अचानक विकसित होती है और व्यक्ति उद्धीपनों के बीच के संबन्धों के अर्थपूर्ण संबंध को समझ जाता है। इससे सीखने की प्रक्रिया में तेजी आ जाती है। इसलिये गेस्टाल्टवादियों का मत था कि सीखना भी अचानक होता है न कि अभ्यास के साथ क्रमिक ढंग से धीरे-धीरे होता है। गेस्टाल्टवादियों ने सूझपूर्ण सीखना के चार व्यवहारात्मक सूचकांक बताये – किंकर्त्तव्य विमूढ़ता से अचानक पूर्णता की ओर, अन्तरण नियम को समझने के बाद निष्पादन में तेजी व सहजता, उत्तम धारण तथा समान समस्यात्मक परिस्थिति में तत्परता के साथ समाधान का अन्तरण। इस अंतिम प्रकार के अन्तरण को गेस्टाल्टवादियों ने पक्षान्तर कहा है।
गेस्टाल्ट मनोविज्ञान – चिन्तन


गेस्टाल्ट मनोवैज्ञानिकों ने चिन्तन के क्षेत्र में अध्ययन कर शिक्षा मनोवज्ञान के लिये बहुत ही उपयोगी तथ्य प्रदान किया है। वरदाइमर ने चिन्तन प्रक्रिया का वैज्ञानिक अध्ययन किया। अपनी एक पुस्तक प्रोडक्टीव थिंकिंग में इन प्रयोगों को प्रकाशित किया। इनके अनुसार चिन्तन का अध्ययन समग्रता के रूप में किया जाना चाहिये। किसी समस्या के समाधान पर चिन्तन करते समय व्यक्ति को परिस्थिति के बारे में समग्रस्वरूप से ध्यान में रखना चाहिये। समस्या का समाधान समग्रता से अंश की ओर बढ़ना चाहिये।
वरदाइमर ने चिन्तन के तीन प्रकार बताये ए, बी तथा वाई। ए प्रकार का चिंतन एक तरह का उत्पादी चिन्तन है। जिसमें बालक लक्ष्य तथा उस पर पहुंचने के साधनों के बीच सीधा संबंध स्थापित कर पाता है। इस तरह के चिन्तन में बालक समस्या के विभिन्न पहलुओं का पुनर्संगठन करने में समर्थ हो पाते है। वाई प्रकार का चिन्तन ऐसा चिंतन है जिसमें प्रयत्न एवं भूल की प्रधानता होती है तथा समस्या के विभिन्न पहलुओं का आपसी संबंध बिना समझे बूझे ही बालक उसका समाधान करना प्रारम्भ कर देता है। वाई प्रकार का चिंतन अधिक होने से ए प्रकार का चिन्तन स्वभावतः कम हो जाता है। बी प्रकार का चिन्तन ऐसा चिंतन है जो अंशतः उत्पादी तथा अंशतः अनुत्पादी व यांत्रिक होता है।
गेस्टाल्ट मनोविज्ञान – स्मृति
गेस्टाल्ट मनोवैज्ञानिकों ने स्मृति के क्षेत्र में प्रत्यक्षण के नियमों का उपयोग किया है। इन्होंने स्मृति को एक गत्यात्मक प्रक्रिया माना है। जिसमें समय बीतने के साथ-साथ कई तरह के क्रमिक परिवर्तन होते है। ऐसे क्रमिक परिवर्तन प्रत्यक्षणात्मक संगठन के नियम के अनुरूप होते है।

विभिन्न प्रयोगात्मक अध्ययनों से इस बात की पुष्टि मनोवैज्ञानिकों ने की है। गिब्सन (1929), बार्टलैट (1932) एवं आलपोर्ट एवं पोस्टमैन (1947) ने अपने प्रयोगों से यह स्पष्ट किया कि मूल सामग्रियों की धारणा में समय बीतने के साथ विकृति होती है, परन्तु इस विकृति का स्वरूप ऐसा होता है जिससे मूल सामग्रियों का स्वरूप पहले से कुछ उन्नत हो जाता है। शिक्षा मनोवैज्ञानिकों को गेस्टाल्टवादियों के इस योगदान से स्मृति के स्वरूप को समझने में काफी मदद मिली। इसी कारण इन लोगों ने स्मरण के स्वरूप को पुनरुत्पादक न कहकर रचनात्मक कहा है।
गेस्टाल्टवाद का शिक्षा में योगदान
- गेस्टाल्टवादियों ने प्रत्यक्षण के नियमों का प्रयोग सीखने के क्षेत्र में भी किया। अतः अध्यापक को चाहिये कि वह शिक्षार्थी के सामने विषय सामग्री को पूर्ण रूप में प्रस्तुत करे।
- गेस्टाल्टवादी मनोवैज्ञानिकों ने सर्वांगिक व्यवहार की महत्ता पर बल दिया। प्राणी द्वारा जो भी अनुभव प्राप्त किये जाते है वह उन्हें समग्र रूप में बताता है नाकि उद्वीपन- अनुक्रिया (S-R) संबन्धों के रूप में तोड़कर।
- व्यक्तित्व विकास में वातावरण की अग्रणी भूमिका पर बल दिया। अतः स्कूल का वातावरण ऐसा होना चाहिये जोकि बच्चे के व्यक्तित्व विकास में सहायक हों।
- शिक्षार्थियों में सूझ उत्पन्न करने पर बल दिया गया। ताकि विद्यार्थी समस्यात्मक परिस्थिति का समाधान सूझ विधि से करके सीख सके।
- सीखने के लिये यह आवश्यक है कि अधिगमार्थी को उद्देश्यों और लक्ष्यों को जानकारी हो। अतः अध्यापक का प्रयास होना चाहिये कि विद्यार्थी स्वयं के लिये एक वैयक्तिक लक्ष्य निर्धारित करें। यह वैयक्तिक लक्ष्य शिक्षार्थी के समक्ष एक तनाव की स्थिति उत्पन्न कर देगा, जिससे विद्यार्थी उस तनाव को दूर करने के लिये सीखने के लिये सक्रिय हो जायेगा। इस प्रकार लक्ष्यों का निर्धारण व्यक्ति को सक्रिय बनाता है।
- स्कूल में शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया को उन्नत बनाने के लिये अध्यापक, प्रधानाचार्य और विद्यार्थियों को संगठित होकर कार्य करना चाहिये।
- अध्यापकों को विद्यार्थियों के विचारों को जानने व समझने का प्रयास करना चाहिये। अपने विचारों को उन पर लादकर विद्यार्थियों के प्रत्यक्षण को प्रभावित नहीं करना चाहिये।
- अध्यापक को पाठ्न सामग्री रूचिपूर्ण तथा समझ आने योग्य रूप में शिक्षार्थी के समक्ष प्रस्तुत करना चाहिये। जो भी निर्देश दिये जाये अर्थपूर्ण होने चाहिये।
- अध्यापकों को विद्यार्थी के सोचने की क्षमता या कार्यशैली की जानकारी होनी चाहिये। यदि कोई बच्चा अमूर्त चिंतन करने योग्य नहीं है तो सांकेतिक रूप में प्रस्तुत की गयी सूचनायें उसके लिये लाभदायक नहीं होगी।
- अध्यापक को विद्यार्थियों के समक्ष सूचनायें इस तरह संगठित करके प्रस्तुत करनी चाहिये कि विद्यार्थी नये व पुराने अनुभवों की विवेचना करके उन्हें समझने योग्य हो जाये।