सामाजिक परिवर्तन के प्राकृतिक कारक – परिवर्तन प्रकृति का नियम है प्रकृति आवश्यकतानुसार स्वयं परिवर्तन करती रहती है। प्राचीन ग्रीक दार्शनिक हेराक्लीट्स के अनुसार, एक व्यक्ति के लिए एक ही नदी में दो बार पैर रखना असम्भव है इसके दो कारण है। पहला दूसरी बार में नदी पहले जैसे नहीं रहेगी नदी के साथ-साथ वह व्यक्ति भी पहले जैसा नहीं रहेगा अर्थात् पहली अवस्था तथा दूसरी अवस्था में कुछ न कुछ परिवर्तन अवश्य होता है। इसी प्रकार समाज भी परिवर्तनशील है तथा इसमें कई कारक अपनी भूमिका अदा करते हैं।
सामाजिक परिवर्तन के प्राकृतिक कारक
सामाजिक परिवर्तन के प्राकृतिक कारक का बकल तथा हटिंग्टन आदि विद्वानों ने वर्णन किया है ये निम्न हैं-
- प्राकृतिक कारकों का आर्थिक व संस्थाओं पर प्रभाव
- प्राकृतिक कारकों का राजनीतिक जीवन व संस्थाओं पर प्रभाव
- धर्म, कला, साहित्य पर प्राकृतिक कारकों का प्रभाव
- सामाजिक संगठन और जीवन पर प्राकृतिक कारकों का प्रभाव
प्राकृतिक कारकों का आर्थिक व संस्थाओं पर प्रभाव
आर्थिक जीवन पर भौगोलिक कारकों का महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। उदाहरण के लिए कोई उद्योग-धन्धा वही पनप सकता है जहाँ उसके लिए कच्चे माल तथा अनुकूल पर्यावरण उपलब्ध हो। बिहार में लोहे तथा कोयले के कारखाने इसी कारण पाये जाते हैं क्योंकि वहाँ लोहे तथा कोयले की खानें हैं। अतः कहा जा सकता है आर्थिक कारकों पर प्राकृतिक परिस्थितियों का प्रभाव पड़ता है। आप सामाजिक परिवर्तन के प्राकृतिक कारक Hindibag पर पढ़ रहे हैं।
जिस देश की जलवायु मिट्टी जिस कृषि के लिए आवश्यक होती है वहाँ पर वही खाद्य सामग्री उत्पन्न की जाती है और उसी के अनुसार, व्यक्ति अपना जीवन-यापन करता है। उदाहरण के लिए नदी किनारे या समुद्र तट पर रहने वाले व्यक्ति मत्स्य व्यवसाय करते है, मैदानी क्षेत्रों में रहने वाले व्यक्ति कृषि पर निर्भर होते हैं व जंगल में रहने वाले शिकार पर निर्भर होते हैं। इस प्रकार कहा जा सकता है कि मनुष्य अपने प्राकृतिक पर्यावरण के अनुसार अपना जीवन निर्वाह करता है।


प्राकृतिक कारकों का राजनीतिक जीवन व संस्थाओं पर प्रभाव
जिस समाज में प्राकृतिक तथा भौगोलिक परिस्थितियाँ अनुकूलन होती है वहाँ पर राजनीतिक जीवन और संस्थायें संगठित रूप में पाई जाती थी। उदाहरण के लिए जहाँ पर जीवन का स्वरूप निश्चित होता है वहाँ पर राज्यों की स्थापना होती है। उदाहरण के लिए गंगा, यमुना आदि नदियों के मैदान में सर्वप्रथम राज्यों की स्थापना हुई। आप सामाजिक परिवर्तन के प्राकृतिक कारक Hindibag पर पढ़ रहे हैं।
इसके विपरीत अफगानिस्तान काकेशस आदि राज्य की स्थापना बहुत बाद में हुई क्योंकि यहाँ की प्राकृतिक परिस्थितियाँ राज्य के विकास के लिए विरोधी थी या प्रतिकूल थी। अतः कहा जा सकता है कि प्रजातन्त्र का विकास वहीं होता है जहाँ प्राकृतिक परिस्थितियाँ उद्योग धन्धों के लिए अनुकूल होती है तथा जहाँ व्यक्तियों को विकास के पूर्ण अवसर मिल सकते हैं जहाँ रहकर व्यक्ति अपनी क्षमताओं का पूर्ण उपयोग कर सकता हो ।
धर्म, कला, साहित्य पर प्राकृतिक कारकों का प्रभाव
बकल तथा हटिंग्टन के अनुसार, जलवायु सम्पूर्ण सभ्यता के विकास तथा विनाश का कारण हो सकती है। बकल के अनुसार प्राकृतिक अवस्था के अनुसार ही मनुष्य की कल्पना, भौतिक विकास आदि सम्भव होता है। जहाँ प्रकृति का भयंकर रूप जैसे अकाल, बाढ, भूकम्प आदि देखने को मिलता है तथा मनुष्य इसकी शक्ति के समक्ष सिर झुका देता है तथा उसकी वन्दना में लग जाता है।
इसलिए उस देश में विज्ञान की अपेक्षा कविता और धर्म की प्रधानता होती है। सामान्य शब्दों में कहा जा सकता है कि व्यक्ति जिस परिवेश में रहता है उसी के अनुसार, उसके विचार, धर्म आदि विकसित होते है यही नहीं व्यक्ति प्रकृति के अनुसार ही शरीर को ढाल देता है। उष्ण कटिबन्ध ध्रुवीय क्षेत्रों में अधिक विकास नहीं हो सकता क्योंकि वहाँ या तो अत्यधिक सर्दी पड़ती है या गर्मी। अतः कहा जा सकता है कि व्यक्ति के व्यवहार पर उसके प्राकृतिक पर्यावरण का प्रभाव पड़ता है।
सामाजिक संगठन और जीवन पर प्राकृतिक कारकों का प्रभाव
सामाजिक संगठन व प्राकृतिक पर्यावरण में भी घनिष्ठ सम्बन्ध होता है। उदाहरण के लिए जहाँ पर पुरुष अधिक स्त्रियों का भरण-पोषण नहीं कर पाते वहाँ पर कई पुरुष मिलकर एक स्त्री से विवाह कर लेते हैं। अतः वहाँ पर बहुपति विवाह पाया जाता है तथा जहाँ पर एक पुरुष कई स्त्रियों का भरण- घोषण कर लेते हैं वहाँ पर बहुपत्नी विवाह का प्रचलन है। हमारे वस्त्र भी प्राकृतिक पर्यावरण से प्रभावित होते है।
ठण्डे मौसम में गर्म वस्र व गर्मी में ठण्डे वस्त्र धारण किये जाते हैं। टुण्ड्रा प्रदेश में सदैव ठण्ड रहती है। अतः वहाँ व्यक्ति पशुओं की खाल के बने वस्त्र पहनते है। प्राकृतिक पर्यावरण का हमारे खान-पान पर भी प्रभाव पड़ता है। उदाहरण के लिए ठण्ड में चाय, काफी, बादाम, शराब, या गर्म पेय पदार्थों का प्रयोग करते हैं जबकि गर्मी में ठण्डे पेय पदार्थों का प्रयोग किया जाता है।


प्राकृतिक कारकों के कारण कभी-कभी राजधानियाँ भी बदल जाती है अर्थात् बाढ़, भूकम्प आदि के कारण कभी-कभी राज्य का स्थान भी बदलना पड़ता है।
अतः कहा जा सकता है कि सामाजिक कारकों में प्राकृतिक कारकों का महत्वपूर्ण स्थान है परन्तु सामाजिक परिवर्तनों को निर्धारित करने में केवल प्राकृतिक कारकों को ही महत्वपूर्ण नहीं माना जा सकता अर्थात् सामाजिक परिवर्तन में जनसंख्यात्मक कारक, प्राणिशास्त्रीय कारक आदि का भी प्रभाव पड़ता है।
मनुष्य अपने समाज, संस्कृति और सभ्यता का निर्माता है और प्राकृतिक व भौगोलिक परिस्थितियाँ उस निर्माण कार्य में आवश्यक कच्चा माल प्रदान करती है। कच्चा माल प्राकृतिक परिस्थितियों से मिलता है परन्तु उस कच्चे माल से सभ्यता और संस्कृति की झोपड़ी बनेगी या महल इसे तो स्वयं मनुष्य ही अन्य बातों की साध्यता से निश्चित करता है। परन्तु यहाँ पर यह बात भी कही जा सकती है कि मानव केवल प्रकृति के हाथ की कठपुतली नहीं है अपितु वह प्रकृति पर नियंत्रण भी कर लेता है।

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