साकेत अष्टम सर्ग सारांश

साकेत महाकाव्य मैथिलीशरण गुप्त की रचना है। भारतीय एवं पाश्चात्य दोनों ही दृष्टि से साकेत की कथावस्तु गरिमा संपन्न है। साकेत अष्टम सर्ग की कथावस्तु का निर्माण मानवता की श्रेष्ठता का प्रतिस्थापन करने के लिए किया गया है। गुप्तजी ने इसमें संपूर्ण कथा को ना पकड़कर कुछ मार्मिक एवं हृदय स्पर्शी प्रसंगों को ही पकड़ा है।

 
मैथिलीशरण गुप्त
कवि, राजनेता, नाटककार, अनुवादक

हिन्दी साहित्य के इतिहास में वे खड़ी बोली के प्रथम महत्त्वपूर्ण कवि हैं। उन्हें साहित्य जगत में ‘दद्दा’ नाम से सम्बोधित किया जाता था। उनकी कृति भारत-भारती (1912) भारत के स्वतन्त्रता संग्राम के समय में काफी प्रभावशाली सिद्ध हुई थी और और इसी कारण महात्मा गांधी ने उन्हें ‘राष्ट्रकवि’ की पदवी भी दी थी। उनकी जयन्ती 3 अगस्त को हर वर्ष ‘कवि दिवस‘ के रूप में मनाया जाता है।

जन्म

3 अगस्त 1886

जन्म स्थान

चिरगाँव, झाँसी, उत्तर प्रदेश

मृत्यू

दिसम्बर 12, 1964

पिता

सेठ रामचरण

माता

श्रीमती काशीबाई

सम्मान

भारत सरकार द्वारा पद्मभूषण सम्मान

साकेत अष्टम सर्ग

साकेत महाकाव्य में कुल 12 सर्ग हैं। जिनमे अष्टम एवं नवम सर्ग का विशेष महत्व है।

अष्टम सर्ग में चित्रकूट में घटी घटनाओं का वर्णन किया है। अष्टम सर्ग में वर्णित घटना केवल इतिवृत्त नहीं है, अपितु घटनाओं का संयोजन युग की आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति करने के उद्देश्य से इस प्रकार किया है कि वह अपनी आधुनिक चेतना के कारण प्रासंगिक हो उठा है। कवि अष्टम सर्ग का आरंभ बड़े ही आकर्षक ढंग से करता है।

सीता जी चित्रकूट में अपनी पर्णकुटी के आसपास के पेड़ पौधों का सिंचन कर रही है साथ ही एक गीत गुनगुना रही है। पति के सानिध्य में रहकर जंगल में भी उन्हें राज भवन का सुख प्राप्त हो रहा है। श्री रामचंद्र सीता का विनोद, दांपत्य जीवन की मधुरता, स्नेह, त्याग की प्रेरणा देते हैं। कवि ने साकेत अष्टम सर्ग में श्री राम और सीता के संवाद में अपने युग चेतना को वर्णित किया है।

श्री राम अपने वनागमन का उद्देश्य वन में द्वित वानर के सद्रश्य वन में रह रहे लोगों को आर्य तत्व प्रदान करना बताते हैं। धरती को स्वर्ग बनाने मानवीय मूल्यों की प्रतिष्ठा करने के लिए प्रभु श्री राम का अवतार हुआ है। इस प्रकार श्री राम सीता संवाद महत्वपूर्ण है। इसके अतिरिक्त साकेत अष्टम सर्ग में,

  • वन में जोर का कोलाहल सुन सीता का घबराना
  • लक्ष्मण का आक्रोश
  • भरत के प्रति श्री राम का विश्वास
  • महाराज दशरथ का तर्पण पुणे सभा का बैठना
  • कैकई का अनुताप
  • श्री राम भरत संवाद
  • जाबलि मुनि द्वारा श्री राम की परीक्षा लेना
  • भरत द्वारा श्री राम से उनकी चरण पादुका मांगना
  • लक्ष्मण और उर्मिला का संवाद जैसी

सच्ची घटनाओं का बड़ा ही मर्मस्पर्शी वर्णन अष्टम सर्ग में हुआ है। साकेत के संपूर्ण प्रसंग स्वतंत्र होते हुए भी कवि की कल्पना पटुता के कारण परस्पर एवं एक अंवित दूसरे से रखते दिखाई पड़ते हैं। कथा की प्रवाह मानता में व्यवधान पड़ता नहीं दिखाई पड़ता महाकाव्य में घटनाओं का प्रवाह अविकल एवं अवनी होना चाहिए जो साकेत कृति में दिखायी देता है।

साकेत अष्टम सर्ग की सारी घटनाएं संवाद द्वारा आयोजित होती है। स्वागत कथन तथा संवाद के द्वारा कथा आगे बढ़ती है। राम सीता के प्रणय परिहास में संवाद चुटीले हो गए हैं। चित्रकूट में भरत को सेना सहित आते देखकर लक्ष्मण क्रोध से भर उठते हैं। मरने मारने पर आ जाते हैं सीता भी भावी ग्रह कला की आशंका से घबरा उठती है।

जय श्री राम

मैथिलीशरण गुप्त की रचनाएँ

शिक्षा – दीक्षा

विद्यालय में खेलकूद में अधिक ध्यान देने के कारण पढ़ाई अधूरी ही रह गयी। रामस्वरूप शास्त्री, दुर्गादत्त पंत, आदि ने उन्हें विद्यालय में पढ़ाया। घर में ही हिन्दी, बंगला, संस्कृत साहित्य का अध्ययन किया। मुंशी अजमेरी जी ने उनका मार्गदर्शन किया। 12 वर्ष की अवस्था में ब्रजभाषा में कनकलता नाम से कविता रचना आरम्भ किया। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के सम्पर्क में भी आये। उनकी कवितायें खड़ी बोली में मासिक “सरस्वती” में प्रकाशित होना प्रारम्भ हो गई।

रचनाए
महाकाव्य
  1. साकेत
  2. यशोधरा
खण्डकाव्य
  1. जयद्रथ वध,
  2. भारत-भारती,
  3. पंचवटी, द्वापर,
  4. सिद्धराज, नहुष,
  5. अंजलि और अर्घ्य,
  6. अजित,
  7. अर्जन और विसर्जन,
  8. काबा और कर्बला,
  9. किसान,
  10. कुणाल गीत,
  11. गुरु तेग बहादुर,
  12. गुरुकुल ,
  13. जय भारत,
  14. युद्ध, झंकार,
  15. पृथ्वीपुत्र,
  16. वक संहार,
  17. शकुंतला,
  18. विश्व वेदना,
  19. राजा प्रजा,
  20. विष्णुप्रिया,
  21. उर्मिला,
  22. लीला,
  23. प्रदक्षिणा,
  24. दिवोदास,
  25. भूमि-भाग


नाटक
  1. रंग में भंग
  2. राजा-प्रजा
  3. वन वैभव,
  4. विकट भट,
  5. विरहिणी,
  6. वैतालिक,
  7. शक्ति,
  8. सैरन्ध्री,
  9. स्वदेश संगीत,
  10. हिड़िम्बा,
  11. हिन्दू,
  12. चंद्रहास


काविताओं का संग्रह

उच्छवास

भाषा शैली

मैथिलीशरण गुप्त की काव्य भाषा खड़ी बोली है। 

शैलियों के निर्वाचन में मैथिलीशरण गुप्त ने विविधता दिखाई, किन्तु प्रधानता प्रबन्धात्मक इतिवृत्तमय शैली की है। उनके अधिकांश काव्य इसी शैली में हैं- ‘रंग में भंग’, ‘जयद्रथ वध’, ‘नहुष’, ‘सिद्धराज’, ‘त्रिपथक’, ‘साकेत’ आदि प्रबंध शैली में हैं। यह शैली दो प्रकार की है- ‘खंड काव्यात्मक’ तथा ‘महाकाव्यात्मक’। साकेत महाकाव्य है तथा शेष सभी काव्य खंड काव्य के अंतर्गत आते हैं।

गुप्त जी की एक शैली विवरण शैली भी है। ‘भारत-भारती’ और ‘हिन्दू’ इस शैली में आते हैं। तीसरी शैली ‘गीत शैली’ है। इसमें गुप्त जी ने नाटकीय प्रणाली का अनुगमन किया है। ‘अनघ’ इसका उदाहरण है। आत्मोद्गार प्रणाली गुप्त जी की एक और शैली है, जिसमें ‘द्वापर’ की रचना हुई है। नाटक, गीत, प्रबन्ध, पद्य और गद्य सभी के मिश्रण एक ‘मिश्रित शैली’ है, जिसमें ‘यशोधरा’ की रचना हुई है।

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