समावेशी शिक्षा का इतिहास – हमारे देश में लगभग 20% बच्चे ऐसे हैं, जो किसी-न-किसी रूप में मानसिक रूप से कमजोर हैं तथा लगभग इतने ही बच्चे ऐसे हैं, जो कि प्रतिभावान बालकों की श्रेणी में आते हैं। प्राचीन काल में इन बच्चों की शिक्षा पर अधिक ध्यान नहीं दिया जाता था। जैसे-जैसे शिक्षा के अन्य क्षेत्रों में प्रगति हुई, वैसे-वैसे ही समावेशी शिक्षा को भी शिक्षा में महत्त्वपूर्ण स्थान की प्राप्ति हुई। इस अध्याय में हम समावेशी शिक्षा के भारत तथा अन्य देशों में हुए विकास के विषय में, करेंगे-
समावेशी शिक्षा का इतिहास
विशिष्ट बालक तो सदैव से विश्व के प्रत्येक देशों में पाये जाते हैं परन्तु उनकी आवश्यकता को पूर्ति हेतु उन्हें उपयुक्त शिक्षा प्रदान नहीं की जाती थी। 19वीं शताब्दी से अमेरिका व यूरोप में समावेश शिक्षा के विषय में विचार किया गया। 19वीं शताब्दी से पूर्व का इतिहास यदि हम देखते हैं, तो यह पाया गया कि जो बालक शारीरिक विकलांग आदि होते थे उन्हें शैशवावस्था में ही मार दिया जाता था। क्योंकि समाज इन बच्चों का स्वीकार नहीं करता था तथा बालकों की यही दयामय स्थिति एवं अस्वीकारात्मक प्रवृत्ति ही इनके पृथक्कीकरण का कारण बनी।
हमने यहाँ पर पृथक्कीकरण शब्द का प्रयोग किया परन्तु यह पृथक्कीकरण क्या है? पहल हमें इस पर विचार करना चाहिए। पृथक्कीकरण – पृथक्कीकरण से तात्पर्य यह है कि जब बालकों में कोई विशिष्टता पाई जाती है, तो वह अपने को दूसरे से अलग मानते हैं। इसी प्रवृत्ति के कारण वह अकेलापन महसूस करते हैं। यही अकेलापन पृथक्कीकरण की भावना का विकास करता है।
19वीं शताब्दी में अमेरिका तथा यूरोप में अपंग बालकों की समावेशी शिक्षा हेतु क्रमबद्ध प्रयास प्रारम्भ हुए। विशिष्ट शिक्षा के जन्मदाता यूरोप के चिकित्सक ही थे परन्तु अमेरिकावासी समय-समय पर यूरोप में शारीरिक रूप से बाधित बालकों के लिए समावेशी शिक्षा के विकास से सम्बन्धित ज्ञान ग्रहण करते रहे। यहाँ तक कि अमेरिका के विशेषज्ञ अपंग बालकों के शिक्षण के बारे में ज्ञान प्राप्त करने यूरोप जाया करते थे।
यहाँ वास्तविकता यह है कि यूरोप के विशेषज्ञ मानसिक मन्दित बालकों के बारे में अधिक विचारशील थे। इसी प्रकार अधिकांश प्रारम्भिक कार्य बधिर तथा अन्धे बालकों की समावेशी शिक्षा के लिए अमेरिका ने भी अनेक क्षेत्र स्थापित किये। समावेशी शिक्षा में यूरोप तथा अमेरिका के काफी अच्छे प्रयास किये। इस दिशा में अधिकतर प्रयास यूरोप व अमेरिका के डॉक्टरों ने किये डॉक्टरों के अतिरिक्त कुछ विद्वानों तथा शिक्षाविदों ने भी इस दिशा में महत्त्वपूर्ण कदम उठाये, इन विद्वानों के नाम निम्नलिखित हैं-
- ई. सेंग्विन
- सिगमण्ड फ्रॉयड
- जे. एम. जी. इटार्ड
- सेम्यूल ग्रिडले होव
- एन सुलिवन
- टी. एच. गेलोइट
- फिलिप पाइने
यूरोप में समावेशी शिक्षा का इतिहास
यूरोप में समावेशी शिक्षा की शुरुआत सर्वप्रथम एस. एम. जी. इटार्ड ने की थी। यह फ्रांस के प्रसिद्ध चिकित्सक थे। इटार्ड वह प्रथम व्यक्ति थे, जिन्होंने अपंग बालकों हेतु शिक्षा प्रारम्भ की। इटार्ड ने सर्वप्रथम 19वीं शताब्दी में विक्टर नाम के एक 12 साल के जंगली बालक को अपनी शिक्षा प्रणाली में सम्मिलित किया। विक्टर को 3 या 4 वर्ष की उम्र में जंगल में छोड़ा गया था।
इटार्ड ने जब अपनी शिक्षा पद्धति की शुरुआत की, तब विक्टर जंगली जानवरों की भाँति व्यवहार करता था। वह नंगा रहता था तथा पशुओं के समान व्यवहार करता था। वह खाने की गन्ध को नाक से सूँघकर पहचानता था। इटार्ड ने बालक को सामान्य बनाने हेतु अनेक प्रयत्न किये। परन्तु यह सफल नहीं हो पाये, किन्तु इन्होंने विक्टर के व्यवहार में अत्यन्त सुधार ला दिये।



इटार्ड को अनुदेशनात्मक पद्धतियों का जन्मदाता कहा जाता है। इन्होंने ही प्रथम वाणी अर्थात् बधिरों के चेहरे के भाव से शिक्षा को देने वाली तथा मानसिक मन्दित व शारीरिक रूप से बाधितों की शिक्षा को जन्म दिया। इनके प्रयोग से यह तो निश्चित हो गया कि मानसिक मन्दित बालक भी सीख सकते हैं। मानसिक रूप से मन्दित बालकों की शिक्षा के क्षेत्र में सेंग्विन ने भी महत्त्वपूर्ण योगदान दिये हैं। यह एक महान् शिक्षक थे। इन्होंने इटार्ड के कार्यों से प्रेरित होकर 1837 में पेरिस में मानसिक मन्दित बालकों हेतु एक शिक्षण संस्थान की स्थापना की।
इन्होंने 1846 में ‘मूर्खता’ नामक एक पुस्तक लिखी। इस पुस्तक को मुख्यतः ‘शारीरिक विज्ञान की विधियों द्वारा उपचार’ के लिए प्रयोग किया जाता था । इसका मुख्य था कि बालकों को शारीरिक तथा नैतिक रूप से विकसित किया जाये। सेंग्विन द्वारा विकसित विधियाँ व संसाधन मॉण्टेसरी विधि पर आधारित थे। सेंग्विन ने मानसिक रूप से मन्दित बालकों हेतु कार्य सेम्यूल होवे के साथ मिलकर किया। तत्पश्चात् इटार्ड, सेंग्विन तथा अन्य विद्वानों ने मिलकर शिक्षा के क्षेत्र में निम्नलिखित कार्य किये-
- मानसिक मन्दित बालकों हेतु वैयक्तिक अनुदेशन तैयार करना।
- विशिष्ट कार्यों की रूपरेखा तैयार करना
- प्रोत्साहन पर बल देना ।
- बालकों को पुनर्बलन देना ।
- विभिन्न कार्यक्षेत्र की प्रतिभाओं का विकास करना
- बालकों में विश्वास की भावना भरना
- बालकों में सुधार की सम्भावना का प्रत्येक प्रयास करना ।
अमेरिका में समावेशी शिक्षा का इतिहास
समावेशी शिक्षा का विकास सर्वप्रथम यूरोप में हुआ। धीरे-धीरे अमेरिका के कई विद्वानों ने भी इस दिशा में अपने कदम उठाये। अमेरिका में मुख्यतः लुइस ब्रेल, होवे, गैलोडेर तथा एन. सुलिवन ने अपना-अपना योगदान दिया। अब हम इन चिकित्सकों के योगदान को देखेंगे-
- थोमस हापकिन गैलोडेर – गैलोडेर ने मुख्यतः बधिर बालकों की शिक्षा में रुचि दिखाई थी। इन्होंने एक ऐसी संस्था की स्थापना की, जो कि प्रथम आवासीय संस्था थी। इसकी स्थापना सन् 1817 में हार्ट फोर्ड (अमेरिका का एक शहर) में की गयी थी। तत्पश्चात् बधिरों की शिक्षा हेतु गैलोडेर कॉलेज वाशिंगटन में स्थापित किया गया। इस कॉलेज का नाम गैलोडेर के सम्मान में रखा गया।
- होवे का योगदान – सम्यूल ग्रिडले होवे अमेरिका के प्रथम चिकित्सक थे। इन्होंने बधिरों तथा अन्धे बालकों की शिक्षा में विशेष योगदान दिया। इनके शिष्यों में एक शिष्य ऐसे थे, जो कि स्वयं मूक बधिर तथा अन्धे थे। इनका नाम लोरा क्रिडेग मैन था। लोरा को होवे ने ही शिक्षित किया था। इस प्रकार होवे की चर्चा देश-विदेश में हो गयी।
- ऐनी सुलिवन का योगदान – ऐनी सुलिवन होवे की एक होनहार छात्रा थी। ऐनी को होवे ने शिक्षा प्रदान की थी। यह दृष्टि बाधित थी फिर भी इन्होंने हेलन, कैलर की शिक्षिका के रूप में कार्य किया। हेलन कैलर मूक बधिर तथा दृष्टिविहीन थी। सुलिवन के द्वारा दी गयी शिक्षा के फलस्वरूप आश्चर्यजनक परिणाम हुए। हेलन ने शीघ्र ही वस्तुओं के नाम आदि सीख लिए तथा दस वर्ष की आयु तक तो हेलन यह भी कहना सीख गयी कि, “मैं अब मूक बधिर नहीं हूँ।” इसके बाद हेलन ने स्नातक की उपाधि भी प्राप्त की तथा बहुत-सी पुस्तकें भी लिखीं।
- लुइस ब्रेल – लुइस ब्रेल का नाम विशिष्ट बालकों की शिक्षा के रूप में जाना पहचाना है। इन्होंने अन्धे बालकों की शिक्षा में बहुत योगदान प्रदान किया है। बाल्यावस्था में दुर्घटना के फलस्वरूप ब्रेल दृष्टिविहीन हो गये थे। इन्होंने दृष्टि बाधित बालकों हेतु ब्रेल लिपि बनाई। यह दृष्टि बाधितों हेतु वरदान सिद्ध हुई है। शिक्षण के क्षेत्र में आज भी यह अत्यन्त प्रभावशाली विधि है। अतः यह कहना ठीक रहेगा कि यूरोप व अमेरिका दोनों देशों में समावेशी शिक्षा के क्षेत्र में बहुत एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कदम उठाये हैं।
भारत में समावेशी शिक्षा का इतिहास
भारत में समावेशी शिक्षा के क्षेत्र में सबसे महत्त्वपूर्ण भूमिका कोठारी कमीशन ने निभाई है। कोठारी कमीशन (1964-66) में कहा गया है कि जब तक बालकों के विशिष्ट समूह के लिए उपयुक्त शिक्षा सेवायें उपलब्ध नहीं कराई जाती, बाधित बालकों का शिक्षा संस्थाओं में प्रवेश प्रारम्भिक अवस्था में कम होगा। इन्होंने बाधित बालकों का प्रतिशत 0.07 माना। यह ऐसे बालक थे, जो कि प्रारम्भिक शिक्षा ग्रहण करते थे।
परन्तु जब राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NPE 1992) ने आँकड़ों की गणना की तो यह एक प्रतिशत (1%) निकला। इस प्रतिशत से यह बात स्पष्ट हुई कि देशभर में लाखों ऐसे बालक हैं, जो कि प्रारम्भिक शिक्षा से वंचित हैं अर्थात् यह बालक अस्वीकारात्मक होते हैं। चूँकि भारतीय संविधान एक ऐसा संविधान है, जिसमें प्रत्येक के लिए शिक्षा को अनिवार्य माना गया है। लेकिन यह विशिष्ट समूह के बालक अस्वीकारात्मक प्रवृत्ति के बजह से या तो विद्यालय नहीं जाते, यदि जाते भी तो अन्य बालकों के नकारात्मक व्यवहार के कारण विद्यालय से पलायन कर जाते थे।
शिक्षण क्षेत्र में बाधितों की संख्या में उन्नति विशिष्ट शिक्षा संस्थाओं में रेखीय प्रावधान के कारण नहीं हो पाई जबकि 80 प्रतिशत बालक सामान्य कक्षाओं में शिक्षा ग्रहण कर सकते हैं। कोठारी कमीशन ने बाधित बालकों की शिक्षा में निम्नलिखित तथ्यों को और शामिल किया। कोठारी कमीशन के अनुसार-
- बाधित व सामान्य बालकों में ऐसी प्रवृत्ति का विकास किया जाये जिससे वह एक-दूसरे को समझ सकें।
- शिक्षा व्ययों में कमी की जाये।
प्रथम- कोठारी कमीशन के इन दोनों उपायों से एक लाभ यह होगा कि शिक्षा में कम व्यय होने से अधिक से अधिक छात्र शिक्षा हेतु प्रेरित होंगे।
द्वितीय- यह है कि समन्वित कार्यक्रमों के फलस्वरूप बाधित व सामान्य छात्र एक साथ कार्य करेंगे तो उनके मध्य द्वेष उत्पन्न नहीं होंगे।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति (1986) में भी यह कहा गया कि जहाँ तक हो सामान्य व विशिष्ट बालकों को एक साथ शिक्षा दें। केवल जिला मुख्यालयों में ही बाधितोंकी शिक्षा हेतु गम्भीर रूप से विशिष्ट शिक्षा संस्थाओं को प्रावधान रखा जाये। बाधित बालकों की शिक्षा के समान अवसरों हेतु कुछ विशेष कार्यों का समावेश 1986 से 1992 तक की शिक्षा प्रणाली में किया गया। यह निम्नलिखित हैं-
- उन बालकों हेतु प्रावधान जो सामान्य प्राथमिक विद्यालयों में ही शिक्षित किये जा सकते हैं-
- बालकों का 9वीं पंचवर्षीय योजना के अन्त तक प्रवेश कराना।
- विशिष्ट आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर शिक्षा और पाठ्यक्रम के समायोजन के मध्यमान से अधिगम का न्यूनतम स्तर सुनिश्चित कर लेना
- सामान्य कक्षाओं में विशिष्ट कक्षा या विशिष्ट शिक्षा संस्थाओं में शिक्षण कराने हेतु-
- बालकों के मानसिक स्तर व सामर्थ्य के अनुसार अधिगम स्तर की उपलब्धियाँ निश्चित करना।।
- 9वीं पंचवर्षीय योजना के अन्त तक बालकों का व्यापक प्रवेश।
- बाधित बालकों हेतु माध्यमिक व उच्चतर माध्यमिक शिक्षा संस्थाओं में विशिष्ट संसाधनों को करना।
- बाधित बालकों के पलायन को रोकना। सामान्य बालकों की भाँति ही इनकी आवश्यकता पूर्ति उपलब्ध कराना।
- बाधित बालकों को भी व्यवसायिक प्रशिक्षण उपलब्ध कराना।
- सेवायुक्त शिक्षकों को सेवा के दौरान व उसमें पूर्व प्रशिक्षण देना। शिक्षा के ऐसे कार्यक्रमों को बार-बार दोहराना, जो कक्षा में विशिष्ट आवश्यकता प्राप्ति में सहायक हों; ऐसे छात्रों को अधिक प्रोत्साहन देना।
- विशिष्ट बालकों (अपंग) की शिक्षण व व्यावसायिक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु सामान्य नियमों से हटकर शिक्षा का कार्य प्रारूप बनाना तथा उनका पुर्नअभिविन्यास करना ।
इस प्रकार हम यह देखते हैं कि पहले जहाँ सिर्फ सामान्य बालकों की शिक्षा पर बल दिया जाता था। आज वहीं प्रत्येक बालक चाहें वह सामान्य हो अथवा विशिष्ट उनकी शिक्षा पर बल दिया जाता है। यह प्रावधान इतिहास के पन्नों पर भी मिलता है। सिर्फ जरूरत पड़ी तो इसे विश्व के स्तर तक बढ़ाने की। जिसमें भारत, यूरोप व अमेरिका ने अपना पूरा-पूरा योगदान प्रदान किया है।
हालांकि हमारे संविधान में प्रत्येक बालक की प्रारम्भिक स्तर की शिक्षा का प्रावधान है जो सभी के लिए आवश्यक है। अधिकांश ऐसे समूह के बालक या तो शिक्षण संस्थाओं में प्रवेश ही नहीं लेते अथवा किसी ना किसी कारणवश शिक्षा आधी-अधूरी छोड़ देते हैं। शिक्षण क्षेत्र में बाधितों की संख्या में उन्नति विशिष्ट शिक्षा संस्थाओं में रेखीय प्रावधान के कारण नहीं हो पाई जबकि 90% बालक सामान्य कक्षाओं में शिक्षा ग्रहण करते हैं।
सामान्य स्कूल कार्यक्रमों में बाधित बालकों की समन्वित शिक्षा कोठारी कमीशन की घोषणा के अनुसार, शिक्षा हेतु व्यय में कमी, बाधित तथा सामान्य बालकों में एक दूसरे को आपस में समझने की भावना में वृद्धि करती है। कुछ बाधित बालक कठिनाई का सामना करते हैं क्योंकि सामान्य बालक उनकी अपेक्षा अच्छा कार्य करते हैं। जहाँ तक संभव हो अधिक से अधिक बालकों को समन्वित शिक्षा के लिए कार्यक्रम लाने का प्रयास करने की अति आवश्यकता है इस पर गम्भीरता से विचार करना चाहिए।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 में यह दृढ़ता पूर्वक कहा गया है कि जहाँ तक सम्भव हो शारीरिक रूप से बाधित तथा अन्य सामान्य बाधित बालकों की शिक्षा एक साथ तथा सामान्य बाधित बालकों की शिक्षा एक साथ तथा सामान्य बालकों के समान होनी चाहिए। केवल जिला मुख्यालयों में गम्भीर रूप से बाधितों की शिक्षा के लिए विशेष शिक्षा संस्थाओं में प्रवेश होगा। इसके परिप्रेक्ष्य में आदर्श समरूप 1995 तक देखा जा सकता है जब शारीरिक रूप से बाधित बालकों की प्रारम्भिक शिक्षा की व्यापकता का स्वरूप होगा।
सन 1986 तथा 1992 का क्रियान्वयन का प्रारूप प्राचीन स्थापना के सिद्धान्तों को अपनाने की सलाह देता है। इसका ऐसा मानना है कि ऐसे बाधिक बालक जिनकी शिक्षा सामान्य स्कूल में सम्भव है उनकी शिक्षा केवल सामान्य स्कूलों में ही होनी चाहिए विशिष्ट स्कूलों में नहीं। यहाँ तक कि ऐसे बालक जो विशिष्ट शिक्षा संस्थाओं में पहले से सही शिक्षा या प्रशिक्षण के विशेष पाठ्यक्रम प्राप्त कर रहे हैं अथवा किसी कार्य क्षेत्र में निपुणता प्राप्त कर रहे हैं जो उन्हें सामान्य स्कूल के पाठ्यक्रम के अतिरिक्त चाहिए।
जैसे ही वह प्रारम्भिक शैक्षणिक सम्प्रेषण कौशल तथा दैनिक जीवन के लिए आवश्यक निपुणताओं को प्राप्त कर लेगा तब उनकी शिक्षा सामान्य स्कूल में होनी चाहिए। शिक्षा के समान अवसरों को प्राप्त करने के लिए क्रियान्वयन का प्रारूप ने यह भी आशा दिखाई की शारीरिक रूप से बाधित बालक अन्य सामान्य बालकों की अपेक्षा अधिक गुणवान तथा भावशाली शिक्षा में प्रवेश करें।
- ऐसे बालकों के लिए जो सामान्य प्राथमिक स्कूलों में शिक्षित किए जा सकते हैं।
- पंचवर्षीय योजनाओं के अंत तक बालकों का व्यापक प्रवेश।
- विशिष्ट आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए शिक्षा और पाठ्यक्रम के समायोजन के मध्यमान से अधिगम का न्यूनतम स्तर सुनिश्चित करना।
- सामान्य शिक्षा संस्था में विशिष्ट कक्षा या विशिष्ट शिक्षा संस्थाओं से शिक्षण हेतु बालकों के लिए।
- नवमी पंचवर्षीय योजना के अंत तक बालकों का व्यापक प्रवेश
- बालकों के अनुरूप अधिगम स्तर की उपलब्धियों को सुनिश्चित करना।
- बाधित बालकों को माध्यमिक एवं उच्चतर माध्यमिक शिक्षा संस्थाओं में विशिष्ट संसाधन उपलब्ध कराना तथा इन बालकों के लिए व्यवसायिक प्रशिक्षण उपलब्ध कराना।
- सेवाओं से पहले या सेवा युक्त शिक्षकों के लिए शिक्षा के कार्यक्रमों को बार-बार दोहराना जो कक्षा में विशिष्ट आवश्यकताओं के प्राप्त करने में सहायक हो। ऐसे छात्रों को अधिक प्रोत्साहन देना।
- शारीरिक रूप से बाधित व्यक्तियों की शिक्षा एवं व्यवसायिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए सामान्य नियमों से हटकर शिक्षा के कार्य प्रारूप बनाना तथा उनका पुनर्विन्यास करना।
प्राचीन काल में समावेशी शिक्षा का उद्भव एवं विकास प्राचीन सभ्यता पर यदि हम दृष्टि डालते हैं, तो पाते हैं कि या तो शारीरिक रूप से बाधित बालकों की हत्या कर दी जाती थी या समाज उन्हें कलंक की दृष्टि से देखता था या उन्हें नगण्य समझा जाता था। 19वीं शताब्दी में पहले अपंग बालकों को स्वीकार न करने, दयालुता से देखभाल करने तथा शिक्षा के प्रति पृथक्कीकरण के संकेत मिलते हैं।



भारतीय शिक्षा प्रणाली में समावेशी शिक्षा का इतिहास
बालकों को सुयोग्य नागरिक बनाने के सम्बन्ध में शिक्षकों के सम्बन्ध में उनकी प्रवृत्ति रुचि और इच्छाओं का ज्ञान प्राप्त हुआ। इसी ज्ञान ने वस्तुतः मनोवैज्ञानिक तथ्यों की खोज की प्रेरणा दी। फलतः पूर्व प्रचलित शिक्षा प्रणाली पूर्णतया परिवर्तित हो गई। पहले पूर्व निश्चित शिक्षा के स्तर के अनुसार बालकों को शिक्षित किया जाता था और अब बालकों के विकास स्तर के अनुकूल उनकी शिक्षा व्यवस्था की जाती है। शिक्षा के मनोविज्ञान का आविर्भाव प्रायः 17वीं शताब्दी से हुआ है। अतएव 17वीं शताब्दी से वर्तमान 20वीं शताब्दी का विवरण अलग-अलग प्रस्तुत करना ठीक होगा।
सत्रहवीं शताब्दी में समावेशी शिक्षा का इतिहास
सर्वप्रथम शिक्षा सुधारक जोहन अमोस कमेनियस के परिश्रम से उनकी पुस्तक स्कूल ऑफ इन्फैन्सी के प्रकाशन के साथ सन् 1628 ई. में शिक्षा प्रणाली में वैज्ञानिक पद्धति का उद्भव हुआ। परन्तु इस पुस्तक से प्रायः धनाढ्य वर्ग ही, जो अपने बालकों को समुचित विकास हेतु सचेष्ट थी, लाभान्वित हो सका। कोमल तथा चपलमति बालकों की ग्राह्य शक्ति को दृष्टिगत करते हुए कमेनियस ने 1657 ई. में ‘आरबिस विक्ट्स नामक दूसरी पुस्तक का सृजन किया।
इस पुस्तक की पठन सामग्री चित्रों में अंकित थी। जिसका मूल उद्देश्य बच्चों को सर्वप्रथम स्थूल तथ्यों से परिचित कराने के पश्चात् उनके सूक्ष्म नामों का ज्ञान प्रदान करना था। इस प्रकार कमेनियस ने शिक्षा प्रणाली का एक नया पथ प्रशस्त किया। बच्चों की व्यक्तिगत क्षमता और प्रवृत्ति पर उनके स्वच्छन्द विकास की प्रणाली निर्धारित की गई।
अठारहवीं शताब्दी में समावेशी शिक्षा का इतिहास
18वीं शताब्दी में बालकों के अध्ययन की प्रायः दो प्रणालियाँ थीं। प्रथम, बाल-शिक्षा के अध्ययन की दार्शनिक शाखा और दूसरी धारा के अन्तर्गत बालकों का अध्ययन नित्य प्रति के अवलोकन द्वारा किया जाता था। इन प्रणालियों को क्रमशः बाल अध्ययन की परोक्ष एवं प्रत्यक्ष विधि की संज्ञा दी जा सकती है। जॉन लॉक, रूसो तथा हर्बर्ट आदि शिक्षाविदों के विचारों ने बालकों के अध्ययन की प्राकृतिक विधि का प्रणयन किया और बालकों के सहज विकास को पर्याप्त स्वतन्त्रता प्रदान की। फ्रोबेल को जिन्हें किंडरगार्टन शिक्षा का जन्मदाता कहा जाता है, इस सम्बन्ध में विशेष ख्याति प्राप्त है।
अब तक बालकों का अध्ययन व्यक्तिगत अथवा समूह के रूप में होता था, परन्तु 18र्थी शताब्दी के उत्तरार्द्ध में जीवनी की इति से बालकों का अध्ययन प्रारम्भ हुआ। 1774 ई. में पेस्तालॉजी ने अपने साढ़े तीन वर्षीय पुत्र के अवलोकन पद्धति द्वारा किए गए अध्ययन द्वारा बाल अध्ययन की वैज्ञानिक पद्धति का श्रीगणेश किया। इस प्रकार 18वीं शताब्दी में बाल अध्ययन की वैज्ञानिक पद्धति का प्रारम्भ हुआ। 19वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में बालकों के अध्ययन में उनकी गति में उतनी तीव्रता नहीं रही जितनी इसके उत्तरार्द्ध में।
उन्नीसवीं शताब्दी में समावेशी शिक्षा का इतिहास
19वीं शताब्दी में बाल विकास के अध्ययन में आशातीत प्रगति हुई। शिशुओं का व्यक्तिगत रूप में प्राणिशास्त्रीय अध्ययन किया गया। विभिन्न विचारकों द्वारा डारविन के विचारों के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला गया कि प्राणिशास्त्रीय रचना के दृष्टिकोण से शिशु विकास श्रृंखला का वह स्तर है, जिसे जानवर और मानव के बीच की खोई हुई कड़ी कहा जा सकता है। इस शताब्दी में बाल विकास का अध्ययन विभिन्न प्रकार से भिन्न-भिन्न रूपों में किया गया।
बाल विकास सम्बन्धी तथ्यों एवं आँकड़ों के संकलन हेतु विभिन्न पत्रों एवं पत्रिकाओं का सम्पादन भी इस शताब्दी से प्रारम्भ हुआ। अमेरिका, जर्मनी, इंग्लैण्ड, फ्रांस तथा पश्चिमी देशों में 19वीं शताब्दी में बाल विकास के अध्ययन को अधिक महत्त्व किया गया और पर्याप्त सफलता भी प्राप्त हुई।
बाल विकास के इस वैज्ञानिक अध्ययन को विश्वव्यापी बनाने के ध्येय में अमेरिका, जर्मनी, फ्रांस, इंग्लैण्ड तथा पोलैण्ड आदि प्रायः सभी पश्चिमी देशों में अन्तर्राष्ट्रीय शैक्षिक समितियों की स्थापना हुई। बाल विकास के अध्ययन समिति के श्रीगणेश का श्रेय स्टैनली हॉल को है। 1894 ई. में शिकागो में होने वाली ‘अन्तर्राष्ट्रीय शिक्षा समिति’ के अवसर पर स्टैनली हॉल ने इस प्रकार के प्रथम अमेरिकी संगठन की व्यवस्था की। फिर उनके चरण चिन्हों पर चलकर विभिन्न देशों ने भिन्न-भिन्न समितियों की स्थापना की। 1906 ई. में बर्लिन में सर्वप्रथम अन्तर्राष्ट्रीय कांग्रेस का आयोजन हुआ।
बीसवीं शताब्दी में समावेशी शिक्षा का इतिहास
बाल विकास अध्ययन के फलस्वरूप उन शिशुओं का भी पता चला जो मानसिक दुर्बलता अथवा अक्षमता के कारण विद्यालय, परिवार और समाज की एक समस्या का रूप धारण कर चुके थे। सर्वप्रथम 1891 ई. में ऐसे बच्चों के उपचार हेतु मनोवैज्ञानिक केन्द्र की स्थापना हुई। दूसरा मनोवैज्ञानिक उपचार गृह 1896 ई. में पेन्सिलवेनिया नामक विश्वविद्यालय में स्थापित किया गया। 20वीं शताब्दी में इस दिशा में विशेष प्रगति हुई।
शिशु – अध्ययन के विकास के फलस्वरूप जाने अथवा अनजाने रूप में उन पर होने वाले अत्याचारों की खोज की गई। इसके निवारणार्थ 1868 ई. में ठोस कदम उठाए गए। 1857 ई. में ‘शिशु निर्दयता अवरोध समिति’ की स्थापना हुई। 1857 ई. में न्यूयार्क में शिशु सेटिलमेंट हाउस की नींव पड़ी। 1899 ई. में इस विषय से सम्बन्धित अभिभावकों के लिए फ्लोरेंस एच. विण्टरबर्न द्वारा ‘फाम दि चाइल्ड्स स्टैण्ड प्वाइंट’ नामक पुस्तक प्रकाशित कराई गई। इसके अतिरिक्त 1898 एवं 1900 ई. के अन्तर्गत डेनवर, बोटन, शिकागो तथा न्यूयार्क नामक शहरों में किशोर अपराध न्यायालयों की स्थापना हुई।
शिशु अध्ययन के विकास को देखते हुए वर्तमान शताब्दी को ‘शिशु शताब्दी’ कहना अत्युक्ति न होगी। पूर्व प्रचलित जीवनी प्रणाली के स्थान पर शिशुओं के व्यवहारों को अधिक महत्त्व प्रदान किया गया। अध्ययन की गति को नूतन आयाम प्रदान करने वाले तथ्य इस प्रकार हैं- बालकों की विभिन्न क्षमताओं का विशेष अध्ययन-20वीं शताब्दी के पूर्व शिशु-अध्ययन
उनकी जीवनी पर आधारित था। अब बच्चों के ज्ञानार्जन, उनके शारीरिक एवं भावात्मक विकास, भाषा, धार्मिक प्रवृत्ति, चारित्रिक बल, नैतिकता, खेल-कूद, भाव-प्रदर्शन की जिज्ञासा और विधि तथा उनकी सामाजिकता को अध्ययन का विषय बनाया गया। इस प्रकार उपर्युक्त तथ्यों को लेकर विशेष प्रकार से की जाने वाली अध्ययन की रीति अत्यधिक उपयोगी सिद्ध हुई ।
अपसमायोजित बच्चों का अध्ययन- अपसमायोजित बालकों पर 19वीं शताब्दी में ही ध्यान दिया गया था। इस शताब्दी में इन्हें तीन श्रेणियों में विभाजित करके इनके विशेष अध्ययन की व्यवस्था की गई। बुद्धि परीक्षा के आधार पर मानसिक दुर्बलता वाले बच्चों के निर्वाचन से उनका एक अलग समूह बनाकर अनुकूल स्तर की शिक्षा प्रदान करने की योजना कार्यान्वित की गई।
दूसरी श्रेणी में उन अपसमायोजित बालकों को रखा गया जिनके अपसमायोजन का कारण घर, स्कूल अथवा समाज का प्रतिकूल वातावरण था। ऐसे बच्चों के मनोवैज्ञानिक रीति से उपचार की व्यवस्था की गई। तीसरी श्रेणी में वे बच्चे थे जो अपनी तीव्र बुद्धि के कारण सामान्य बच्चों से भिन्न हो गए थे। उनके समुचित विकास हेतु बौद्धिक स्तर के अनुकूल आवश्यक पाठ्यक्रम और शिक्षा की व्यवस्था की गई।
व्यवहारों के आधार पर शिशु अध्ययन – 19वीं शबाब्दी में प्रचलित बाल विकास के अध्ययन की जीवनी पद्धति द्वारा प्रत्येक बालक का अध्ययन व्यक्तिगत रूप में हो पाता था। उसी आधार पर बाल समूह की गतिविधियों का अनुमान कर लिया जाता था। अतएव यह पद्धति पूर्णतया दोषमुक्त नहीं कही जा सकती। वर्तमान शताब्दी में अध्ययन का आधार बालक का व्यक्तिगत और सामूहिक व्यवहार मानकर पद्धति को अत्यधिक उपयुक्तता और वैज्ञानिकता प्रदान की गई। अनुमान का स्थान प्रत्यक्ष अवलोकन और अनुभव ने ले लिया।
बुद्धि परीक्षण द्वारा अध्ययन – 20वीं शताब्दी की प्रथम शताब्दी तक बुद्धि-परीक्षण में पर्याप्त प्रगति हो चुकी थी। इस प्रणाली में प्रवृत्ति अथवा रुझान परीक्षण को भी समुचित स्थान प्राप्त था । परीक्षण में प्रत्येक बालक के जीवन स्तर, लिंग, जाति और सामाजिक मूल्यों को यथेष्ट महत्त्व प्रदान होने के कारण विभिन्न बालकों के विकास के अन्तर और उसके कारणों का पता सुगमता से चल जाता है। अतएव विकास स्तर के अनुसार उन्हें विभिन्न श्रेणियों में विभक्त करके तद्नुरूप उनके पाठ्यक्रमों का चयन किया गया।
पूर्व विद्यालय बालक का अध्ययन- जन्मजात शिशु के अध्ययन की प्रणाली 20वीं शताब्दी की नवीनतम देन है। प्रथम विश्व महायुद्ध की विभीषिका ने समाज के ढाँचे को चकनाचूर कर दिया था। शिशुओं के पालन-पोषण की असुविधाओं ने इस वर्ग की स्थिति बड़ी ही घृणास्पद और दयनीय कर दी थी। फलतः मनोवैज्ञानिकों का ध्यान इस ओर आकृष्ट हुआ। जन्मजात शिशु को प्राणिशास्त्रीय मानव मानकर अध्ययन प्रारम्भ किया गया। शिशु को औसत मानकर उसके शारीरिक और मानसिक विकास की गतिविधि का उस पर पड़ने वाले प्राकृतिक, सामाजिक तथा नैतिक आदि प्रभावों को दृष्टिगत करते. हुए अध्ययन किया गया। इस प्रकार व्यक्तिगत अन्तर का भी पता चला ।
यद्यपि 20वीं शताब्दी में शिशु विकास के अध्ययन में अभूतपूर्व प्रगति हुई ओर बाधित सफलता भी मिली, फिर भी सुयोग्य मनोवैज्ञानिकों का अभाव सदैव खटकता रहा। सबसे बड़ी दुर्बलता यह है कि प्रारम्भिक विद्यालयों के अध्यापकों और अभिभावकों में यह क्षमता समुचित मात्रा में नहीं है। फलतः मनोवैज्ञानिक पुट के साथ वैज्ञानिक आधार पर शिशुओं का समुचित विकास नहीं हो पाता। अपने भारत में इसका दायित्व किसी सीमा तक आर्थिक दुबर्लता पर भी है।
मनोविज्ञान के उदय की समय की काल अध्ययन प्रणालियाँ पूर्णतया वैज्ञानिक न होने के कारण उपयुक्त नहीं सिद्ध हो सकीं। फलतः उनसे आशातीत लाभ नहीं उठाया जा सका। इनमें धीरे-धीरे आवश्यकतानुसार संशोधन होता जा रहा है।
बाल विकास अध्ययन की सबसे बड़ी कठिनाई बालकों की अलभ्यता थी। नवजात शिशु पर बाहर के सदस्य की दृष्टि पड़ना भी असम्भव था। भारत में आज भी शिशुओं को घर की देहरी से बाहर ले जाने के पूर्व डिठौना लगा दिया जाता है। सौभाग्यवश सामाजिक कुरीतियों के दमन के फलस्वरूप अस्पतालों और जच्चा-बच्चागृहों की सहायता से मनोवैज्ञानिकों को शिशुओं के अध्ययन का अवसर अब प्राप्त होने लगा है।
किशोर बालकों के अध्ययन में आज भी यह समस्या ज्यों की त्यों बनी हुई है। कारण यह है कि इस आयु के बालकों से वास्तविक तथ्य नहीं प्राप्त हो पाते। वे बहुत सी बातें जो मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण के अध्ययन में अत्यधिक सहायक और महत्त्वपूर्ण हैं, सामाजिक एवं नैतिक संकीर्णतावश प्रकट नहीं करते। कभी-कभी मनोवैज्ञानिक तथ्यों की जटिलता में फँसकर अपना ही मानसिक सन्तुलन खो बैठता है। अतएव परीक्षण का फल वास्तविकता के परे निकलता है। किशोर बालक भी अध्ययन की ऊहापोह से खीझ जाते हैं।