प्राथमिक समूह अर्थ परिभाषा विशेषताएँ व 8 महत्व

चार्ल्स कूले ने प्राथमिक समूह को ‘मानव स्वभाव की पोषिका’ कहा है। कूले ने कुछ समूहों को ‘प्राथमिक’ इसलिए कहा है, क्योंकि महत्व के दृष्टिकोण से इनका स्थान प्रथम और प्रभाव प्राथमिक है। परिवार ही समाजीकरण का केन्द्र है, जहां बच्चा प्राथमिक शिक्षा प्राप्त करता है। परिवार के पश्चात् दूसरा स्थान क्रीड़ा-समूह (play-group) का है। यह समूह सर्वव्यापी है और व्यक्तित्व के निर्माण में आधारभूत है।

बच्चे के ऊपर अपने खेल के साथियों और विभिन्न प्रकार के खेलों का गहरा प्रभाव पड़ता है। उसकी भावनाएं, मनोवृत्तियां और विचार बहुत कुछ इन्हीं साथियों के समान ढल जाते हैं। इसके अतिरिक्त पड़ोस भी कूले के अनुसार एक प्राथमिक समूह है, क्योंकि व्यक्तियों के व्यवहारों को नियन्त्रित करने और उनको सामूहिक जीवन से बंधने में पड़ोस का महत्व प्राथमिक है।

प्राथमिक समूह

कूले के शब्दों में ही प्राथमिक समूह के अर्थ और प्रकृति को निम्नांकित रूप से समझा जा सकता है- प्राथमिक समूहों से मेरा अभिप्राय उन समूहों से है, जिनकी प्रमुख विशेषता आमने-सामने के घनिष्ठ सम्बन्ध और सहयोग की भावना है। ये समूह अनेक प्रकार से प्राथमिक हैं, लेकिन प्रमुख रूप से इस अर्थ में कि ये व्यक्ति की सामाजिक प्रकृति और आदर्शों का निर्माण करने में मौलिक हैं। मनोवैज्ञानिक रूप से इन घनिष्ठ सम्बन्धों के फलस्वरूप सभी व्यक्तियों का एक सामान्य सम्पूर्णता में इस प्रकार मिल जाना है कि अनेक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए एक व्यक्ति के विचार और उद्देश्य सम्पूर्ण समूह का सामान्य जीवन और उद्देश्य बन जाते हैं।

इस सम्पूर्णता की अभिव्यक्ति करने के लिए सम्भवतः सबसे सरल ढंग यह है कि इसे ‘हम’ शब्द द्वारा सम्बोधित किया जाए। इस सम्पूर्णता में इस प्रकार की सहानुभूति और पारस्परिक एकरूपता की भावना पाई जाती है, जिसके लिए ‘हम’ एक स्वाभाविक अभिव्यक्ति है।

प्राथमिक समूह के उपर्युक्त विवेचन के आधार पर कुछ विद्वानों ने इन्हें ‘आमने-सामने के सम्बन्धों पर आधारित समूह’ तक कह दिया है, लेकिन फैरिस (Ellsworth Faris) का कथन है कि “केवल आमने-सामने के सम्बन्ध होना ही प्राथमिक समूहों की एकमात्र कसौटी नहीं है।” उदाहरण के लिए, न्यायालय में न्यायाधीश, जूरी, वकील, अपराधी, गवाह आदि सभी व्यक्ति आमने-सामने के सम्बन्धों द्वारा अन्तर्क्रिया करते हैं, लेकिन एक न्यायालय को अथवा ऐसे व्यक्तियों के समूह को हम प्राथमिक समूह नहीं कह सकते।

दूसरी ओर, रक्त अथवा नातेदारी (kinship) से सम्बन्धित व्यक्ति एक-दूसरे से चाहे कितनी भी दूर क्यों न हों, लेकिन उनके बीच पारस्परिक एकता (mutual identification) की स्थिति बनी रहती है और ‘हम’ की अभिव्यक्ति का इनके जीवन में सबसे अधिक महत्व होता है। इस दृष्टिकोण से यह कहा जा सकता है कि जब कभी भी कुछ व्यक्ति घनिष्ठता अथवा ‘हम की भावना’ से बंधकर अन्तर्क्रिया करते हैं तथा समूह के हित के सामने निजी स्वार्थों का बलिदान करने के लिए तैयार रहते हैं, तब ऐसे समूह को हम एक प्राथमिक समूह कहते हैं।

प्राथमिक समूह का तात्पर्य दो या दो से अधिक ऐसे व्यक्तियों से है, जो घनिष्ठ, सहभागी और वैयक्तिक ढंग से एक-दूसरे से व्यवहार करते हैं।

लुण्डबर्ग

कूले ने आरम्भ में परिवार, क्रीड़ा-समूह और पड़ोस के लिए ‘प्राथमिक समूह’ का प्रयोग किया था। जीवन के आरम्भिक काल में परिवार व्यक्ति के लिए सबसे महत्वपूर्ण इकाई होती है, जिसे फूले के प्राथमिक समूह का सबसे अच्छा उदाहरण माना है। परिवार में माता का स्नेह और अन्य सदस्यों का पारस्परिक सहयोग बच्चे में अनेक ऐसी विशेषताएं उत्पन्न करता है, जो जीवन भर उसके व्यक्तित्व को प्रभावित करती हैं।

यह इसलिए भी प्राथमिक है, क्योंकि इसका प्रभाव अनौपचारिक होता है। जहां तक इसके सदस्यों की संख्या व आकार का सम्बन्ध है, उपर्युक्त विशेषता के कारण ये बहुत छोटे होते हैं। जैसा कि फेयरचाइल्ड का विचार है, सामान्यतः 3-4 व्यक्तियों से लेकर 50-60 व्यक्ति तक पाए जाते हैं। ऐसे समूहों में विचार-विनिमय प्रत्यक्ष रूप से होता है। किसी माध्यम के द्वारा नहीं होता इसका अर्थ यह नहीं है कि इसमें कभी संघर्ष अथवा मतभेद की स्थिति उत्पन्न ही नहीं होती, बल्कि वास्तविकता यह है कि प्राथमिक समूह में कोई मतभेद स्थायी नहीं होते। व्यक्तिगत या सामूहिक रूप से इसका कोई हल शीघ्र ही ढूंढ निकाला जाता है।

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प्राथमिक समूह की विशेषताएं

कुछ विद्वानों ने इन विशेषताओं को क्रमशः संरचनात्मक और मानसिक विशेषताएं भी कहा है। प्राथमिक समूह की विशेषताएं के प्रस्तुत विवेचन में हम इन्हीं विशेषताओं के आधार पर प्राथमिक समूहों की प्रकृति को स्पष्ट करेंगे। प्राथमिक समूहों की भौतिक अथवा संरचनात्मक विशेषताओं से हमारा तात्पर्य उन विशेषताओं से है, जो इन समूहों के ढांचे से सम्बन्धित हैं।

यद्यपि इनके अन्तर्गत कूले ने आमने-सामने के प्रत्यक्ष सम्बन्धों को सबसे अधिक महत्व दिया है, लेकिन जैसा कि हम पहले स्पष्ट कर चुके हैं, आमने-सामने के सम्बन्धों को ही प्राथमिक समूह का एकमात्र आधार मान लेना ठीक नहीं है। यही कारण है कि कुछ विद्वानों ने इन भौतिक विशेषताओं में प्राथमिक समूहों के ‘सामान्यीकृत चरित्र पर सबसे अधिक बल दिया है। इन सभी विशेषताओं को संक्षेप में इस प्रकार समझा जा सकता है-

  1. शारीरिक समीपता – शारीरिक समीपता सदैव ही घनिष्ठ सम्बन्धों को विकसित करती है। एक साथ रहने, खान-पान रखने, व्यवहार करने, कार्य करने और यहां तक कि एक साथ रहकर वाद-विवाद करने से भी एक विशेष प्रकार की अपनेपन की भावना का विकास होता है। प्राथमिक समूह की यह महत्वपूर्ण विशेषता है कि इनके सदस्य सभी अच्छे और बुरे अवसरों पर एक-दूसरे के निकट रहते हैं और इस निकटता के कारण उनमें सदैव घनिष्ठता बनी रहती है। यही विशेषता उनके सम्बन्धों को स्थायी बनाती है।
  2. समूह का छोटा आकार—प्राथमिक समूह आकार में अपेक्षाकृत बहुत छोटे होते हैं। ऐसा होना इसलिए आवश्यक है कि समूह में सदस्यों की संख्या जितनी कम होगी, सम्बन्धों में घनिष्ठता बने रहने की सम्भावना भी उतनी ही अधिक हो जाएगी। प्राथमिक समूह के लिए एक आवश्यक स्थिति है कि सभी सदस्य व्यक्तिगत रूप से एक-दूसरे को जानें और अन्य व्यक्तियों द्वारा लिए गए निर्णयों में स्वयं भी प्रत्यक्ष रूप से भाग लें। इस आधार पर डेविस (Kingsley Davis) का कथन है “प्राथमिक समूह को आकार में छोटा ही होना चाहिए, क्योंकि यह असम्भव है कि एक ही समय में बहुत-से बुद्धिमत्तापूर्ण सम्बन्ध स्थापित किए जा सकें।”
  3. तुलनात्मक स्थिरता — स्थिरता के अभाव में घनिष्ठता की सम्भावना नहीं की जा सकती। डेविड का विचार है, “समूह में जितनी अधिक स्थिरता होती है, अन्य बातें समान होने पर सदस्यों के सम्बन्धों में भी उतनी ही अधिक घनिष्ठता उत्पन्न हो जाती है। वास्तव में, प्राथमिक समूहों का निर्माण जान-बूझकर न 2 होने के कारण ये कहीं अधिक स्थायी प्रकृति के होते हैं और इनकी सदस्यता से अलग होना भी सरल नहीं होता। ऐसे समूहों के सदस्य एक-दूसरे से बार-बार मिलने और बातचीत करने के कारण निरन्तर घनिष्ठता का अनुभव करते रहते हैं और कुछ समय बाद ये सम्बन्ध इतने गहरे और विश्वसनीय हो जाते हैं कि व्यक्ति और समूह का अस्तित्व एक-दूसरे से मिल जाता है।
  4. सामान्य चरित्र – प्राथमिक समूहों के कभी भी कोई निश्चित और योजनाबद्ध उद्देश्य नहीं होते इसके अन्दर सभी सदस्यों के दायित्व और कर्तव्य असीमित होते हैं। इन समूहों में व्यक्ति की आरम्भिक आवश्यकताओं की पूर्ति होती है और इसलिए ऐसे समूहों में प्रत्येक व्यक्ति प्रत्येक कार्य को करना अपना नैतिक दायित्व मानता है। ऐसा केवल इसलिए है कि प्राथमिक समूहों का जन्म स्वतः होता है, वे विकास की एक लम्बी प्रक्रिया के द्वारा परिपक्वता प्राप्त करते हैं और सामूहिक कल्याण को अपना अन्तिम लक्ष्य मानते हैं। प्राथमिक समूह प्रत्येक अर्थ में सामान्य चरित्र के हैं, चाहे उनके कार्य को दृष्टि में रखा जाए अथवा उनके इतिहास को

प्राथमिक समूहों की मानसिक विशेषताएं

यह सदैव ध्यान रखना चाहिए कि प्राथमिक समूहों की भौतिक विशेषताएं केवल इनकी संरचना और बाह्य गुणों को ही स्पष्ट करती हैं। इनके फलस्वरूप ऐसे समूहों में विशेष प्रकार के सम्बन्धों और मनोवृत्तियों का विकास हो जाता है। इन्हीं गुणों को हम प्राथमिक समूह की मानसिक अथवा चरित्रगत विशेषताएं कहते हैं। इन विशेषताओं को संक्षेप में इस प्रकार समझा जा सकता है-

  1. लक्ष्यों की समानता – प्राथमिक समूहों में विचारों का स्वतन्त्रता से आदान-प्रदान होने के कारण सदस्यों में समान उद्देश्यों और समान हितों का विकास होता है। इसका तात्पर्य यह है कि प्राथमिक समूह में प्रत्येक सदस्य दूसरे के कल्याण को ध्यान में रखते हुए अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने का प्रयत्न करता है। उदाहरण के लिए, परिवार एक प्राथमिक समूह है, जिनमें एक मां अपने बच्चे की करने में अपने स्वास्थ्य की भी चिन्ता नहीं करती। इसका कारण यह नहीं है कि बच्चे की देख-रेख करना ही उसका अन्तिम उद्देश्य है, बल्कि वास्तविकता यह है कि बच्चे का सुख-दुःख ही मां का भी सुख-दुःख बन जाता है। खेल के साथी भी व्यक्तिवादिता का सहारा न लेकर सामान्य उद्देश्य को ही प्राथमिकता देते हैं। इस प्रकार, प्राथमिक समूह में ‘मैं’ की भावना (‘T’ feeling) का स्थान ‘हम’ की भावना (‘we’ feeling) ले लेती है।
  2. सम्बन्ध स्वयं साध्य होता है- प्राथमिक समूहों में किसी सम्बन्ध को स्थापित करने का कारण किसी स्वार्थ को पूरा करना नहीं होता, बल्कि सम्बन्ध स्थापित कर लेना ही सदस्यों का अन्तिम उद्देश्य होता है। डेविस का कथन है, “यह सम्बन्ध समझीते, आर्थिक लाभ अथवा राजनीतिक उद्देश्यों से प्रभावित नहीं होते, बल्कि व्यक्तिगत, आत्मिक, भावनात्मक तथा अपने आप में पूर्ण होते हैं। इन सम्बन्धों की स्थापना जान-बूझकर योजनावद्ध रूप से नहीं की जाती, लेकिन फिर भी कभी-कभी आकस्मिक रूप से ये हमारे उद्देश्यों की पूर्ति भी कर सकते हैं। उदाहरण के लिए, एक क्लब में किसी व्यक्ति से होने वाली मित्रता अपने आप ही विकसित हो जाती है। उस समय इस मित्रता का कोई उद्देश्य नहीं होता, यद्यपि कुछ समय पश्चात् इस मित्रता के परिणामस्वरूप हमारे कुछ उद्देश्य भी पूरे हो सकते हैं। इस प्रकार, प्राथमिक सम्बन्ध उद्देश्य पूर्ति के साधन न होकर स्वयं में ही साध्य (ends) होते हैं।
  3. सम्बन्ध वैयक्तिक होते हैं— वैयक्तिक सम्बन्धों का तात्पर्य है कि सदस्य एक-दूसरे से किसी आर्थिक अथवा सामाजिक प्रलोभन के आधार पर सम्बन्धों की स्थापना नहीं करते, बल्कि केवल एक व्यक्ति के रूप में ही एक-दूसरे से सम्बन्धों की स्थापना की जाती है। ऐसे सम्बन्ध इस अर्थ में भी वैयक्तिक हैं कि इनमें कोई दिखावा अथवा चातुर्य-प्रदर्शन नहीं होता। यही कारण है कि प्राथमिक समूह के सदस्य व्यक्तित्व, गुणों और आर्थिक साधनों के दृष्टिकोण से एक-दूसरे से बहुत भिन्न होने के बाद भी एक-दूसरे से घनिष्ठता का अनुभव करते हैं। ये सम्बन्ध वे हैं, जिनका हस्तान्तरण नहीं हो सकता। उदाहरण के लिए, एक मित्र, प्रेमिका अथवा पड़ोसी से स्थापित किए गए सम्बन्ध वैयक्तिक होते हैं, क्योंकि उनको किसी अन्य व्यक्ति के लिए हस्तान्तरित नहीं किया जा सकता।
  4. सम्बन्धों में पूर्णता – प्राथमिक सम्बन्ध संकीर्णता से दूर, औपचारिकता से ऊपर और स्वयं पूर्ण होते हैं। व्यक्ति किसी विशेष उद्देश्य की पूर्ति के लिए एक प्राथमिक समूह का सदस्य नहीं बनता, बल्कि इसके अन्तर्गत जीवन की सभी आवश्यकताएं पूरी की जा सकती हैं। प्राथमिक समूहों के किसी भी क्षेत्र में विशेषीकरण नहीं पाया जाता। प्राथमिक समूह में सदस्य एक-दूसरे के प्रति व्यक्तिगत रूप से जागरूक रहते हैं और साथ-साथ रहकर सभी उद्देश्य को पूरा करते हैं। यह स्थिति सभी सदस्यों के सम्पूर्ण जीवन को प्रभावित करती है, उनके जीवन के किसी विशेष पक्ष को नहीं। डेविस का कथन है कि “प्राथमिक समूह एक संयुक्तता की स्थिति है, जिसमें वैधानिक, प्रथागत, आर्थिक, तकनीकी और मनोरंजनात्मक आदि सभी प्रकार के सम्बन्धों का समावेश होता है।”
  5. प्राथमिक समूह में सम्बन्ध स्वाभाविक होते हैं——प्राथमिक समूहों में सम्बन्धों की स्थापना किसी बाहरी प्रलोभन अथवा बाहरी दबाव से नहीं होती, बल्कि इनका विकास अपने आप स्वाभाविक रूप से होता है। उदाहरण के लिए, एक परिवार में माता, पिता, भाई, बहिन और इसी प्रकार पड़ोस के विभिन्न व्यक्तियों के पारस्परिक सम्बन्ध किसी बाहरी प्रभाव के फलस्वरूप विकसित नहीं होते, बल्कि कुछ ऐसी प्रेरणाओं से प्रभावित होते हैं, जिनकी प्रकृति आत्मिक होती है।
  6. प्राथमिक नियन्त्रण – प्राथमिक समूहों की आन्तरिक विशेषताओं में इनकी नियन्त्रण शक्ति को भी प्रमुख स्थान दिया जाता है। एक साधारण से अवलोकन से यह स्पष्ट हो जाता है कि राज्य के शक्तिशाली कानून व्यक्ति के जिन व्यवहारों का नियन्त्रण करने में असफल रह जाते हैं, उन्हें परिवार के सदस्य सरलता से नियन्त्रित कर लेते हैं। ऐसा इसलिए है कि प्राथमिक सम्बन्ध नियन्त्रण के क्षेत्र में भी प्राथमिक होते हैं। सहानुभूति और पारस्परिक त्याग की धारणा इस नियन्त्रण-शक्ति को इतना प्रभावपूर्ण बना देती है कि इसे तोड़ना सामान्य व्यक्ति की शक्ति के बाहर हो जाता है। व्यक्ति अचेतन रूप से प्राथमिक सम्बन्धों से नियन्त्रित होता है और यह भावना उसे सदैव नियन्त्रित किए रहती है कि उसके कार्य उसी को नहीं, बल्कि उसके सम्पूर्ण समूह के जीवन को प्रभावित कर रहे हैं।

प्राथमिक समूहों की भौतिक तथा मानसिक विशेषताओं से स्पष्ट होता है कि भौतिक विशेषताएं ही ऐसे अवसर प्रदान करती हैं, जिनकी सहायता से समूह के सदस्यों के बीच प्राथमिक सम्बन्ध विकसित हो जाते हैं। दूसरे शब्दों में, यह कहा जा सकता है कि प्राथमिक समूहों में लक्ष्यों की समानता, पूर्णतः वैयक्तिक सम्बन्ध, स्वतः विकास और प्राथमिक नियन्त्रण आदि विशेषताएं केवल इसलिए सम्भव हो पाती हैं कि इन समूहों में लघुता, स्थिरता, शारीरिक समीपता और सामान्यता के गुण पाए जाते हैं।

प्राथमिक समूहों का महत्व

किम्बाल यंग (Kimball Young) का कथन है कि “प्राथमिक समूह मानव संघों के सबसे मौलिक प्रतिनिधि हैं। सम्भवतः ये उतने ही अधिक प्राचीन हैं, जितना कि स्वयं मनुष्य का जीवन प्राथमिक समूह सबसे सरल रूप में ऐसे समुदायों का निर्माण करते हैं, जो सदैव से व्यक्ति की सभी आवश्यकताओं को पूरा करने में सबसे अधिक महत्वपूर्ण सिद्ध हुए हैं।” इसी आधार पर कूले ने प्राथमिक समूहों को ‘मानव स्वभाव की परिचारिका’ (nursery of human nature ) कहा है। इस दृष्टिकोण से व्यक्ति और समूह के लिए प्राथमिक समूहों के सामाजिक महत्व को निम्नांकित रूप से स्पष्ट किया जा सकता है-

  1. व्यक्ति का समाजीकरण प्रत्येक मनुष्य में घृणा, खालय, भय, क्रूरता और अनुशासनहीनता की प्रवृत्तियां जन्मजात रूप से पाई जाती है। प्राथमिक समूह व्यक्ति की इन समाज-विरोधी मनोवृत्तियों पर नियन्त्रण लगाए रखते हैं और व्यक्ति को सामाजिक नियमों का पालन करने की प्रेरणा देते हैं। इसके फलस्वरूप व्यक्ति सरलतापूर्वक अपनी सामाजिक दशाओं से अनुकूलन कर देता है।”
  2. संस्कृति की शिक्षा – प्राथमिक समूहों का एक प्रमुख कार्य व्यक्ति को अपनी संस्कृति और आदर्श नियमों से परिचित कराना है। उदाहरण के लिए, प्राथमिक समूह ही व्यक्ति को बनाते हैं कि उसका धर्म, नैतिकता, लोकाचार, जनरीतियां तथा रीति-रिवाज क्या हैं तथा ये व्यक्ति से किस प्रकार व्यवहारों की मांग करते हैं। इन सांस्कृतिक नियमों से परिचित होने से ही व्यक्ति एक सामाजिक प्राणी बन पाता है। प्राथमिक समूहों का यही कार्य संस्कृति को भी स्थायी बनाता है, क्योंकि यही सांस्कृतिक विशेषताएं प्राथमिक समूह के माध्यम से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को प्राप्त होती रहती हैं।
  3. क्षमता और रुचि का विकास – प्राथमिक समूहों के अतिरिक्त दूसरे सभी समूह अपने अपने स्वार्थों से बंधे रहते हैं, जिसके कारण इनके सदस्यों में कुण्ठा, निराशा और कभी-कभी हीनता की भावना पैदा हो जाती है। इसके विपरीत, प्राथमिक समूह अपने सदस्यों से उनकी क्षमता और रुचि के अनुसार ही कार्य लेते हैं। इसके फलस्वरूप प्राथमिक समूह के सदस्यों को अपनी कुशलता और रुचि में वृद्धि करने का ही अवसर नहीं मिलता, बल्कि उनमें आत्मविश्वास की भावना का भी विकास होता है।
  4. भावनात्मक सुरक्षा – केवल प्राथमिक समूह ही एक ऐसा वातावरण बनाते हैं, जिसमें व्यक्ति अपने आपको मानसिक रूप से सुरक्षित महसूस करता है। व्यक्ति चाहे बच्चा हो या वृद्ध, शक्तिशाली हो या रोगी, सम्पन्न हो या निर्धन, प्राथमिक समूह उसे उसी तरह की सुविधाएं प्रदान करके मानसिक रूप से सुरक्षित बनाते हैं।
  5. मनोरंजन की सुविधाएं व्यक्ति के लिए स्वस्थ मनोरंजन देने में भी प्राथमिक समूहों ने महत्वपूर्ण कार्य किया है। प्राथमिक समूहों के कार्य अपने आप में ही सुखद होते हैं। इन कार्यों में सभी सदस्य हिस्सा वंटाना चाहते हैं तथा साथ ही ये कार्य शिक्षाप्रद भी होते हैं। प्राथमिक समूह द्वारा दिया जाने वाला यह मनोरंजन अक्सर प्रेरणा, उत्साह, हास्य, व्यंग्य, लोकगाथाओं और परिहास के रूप में देखने को मिलता है।
  6. मानवीय गुणों का विकास — मैरिल (Merrill) का कथन है कि प्राथमिक समूहों का सबसे महत्वपूर्ण कार्य व्यक्तित्व का विकास करना है। प्राथमिक समूह व्यक्ति में सहानुभूति, दया, त्याग, प्रेम, सहनशीलता और सहयोग के गुण उत्पन्न करते हैं। इन्हीं गुणों की सहायता से व्यक्ति समाज से अपना अनुकूलन कर पाता है।
  7. विचारों को स्पष्ट करने की क्षमता का विकास – व्यक्ति अपने जीवन में तभी सफल हो सकता है, जब आरम्भ से ही उसमें अपने विचारों को अभिव्यक्त करने की क्षमता और कुशलता पैदा हो जाए। यह कार्य सबसे सुन्दर ढंग से प्राथमिक समूहों के द्वारा ही होता है। उदाहरण के लिए, परिवार ही बच्चे को भाषा का ज्ञान कराता है। भाषा के माध्यम से ही व्यक्ति के विचार बनते हैं और यही विचार उसके व्यक्तित्व का निर्माण करते हैं।
  8. प्राथमिक समूहों के उपर्युक्त कार्यों को देखते हुए कुछे (Cooley) ने कहा है कि “पाशविक प्रेरणाओं का मानवीकरण करना प्राथमिक समूहों द्वारा की जाने वाली सम्भवतः सबसे बड़ी सेवा है।”
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