व्रत उपवास धार्मिक और वैज्ञानिक आधार

व्रत उपवास धार्मिक और वैज्ञानिक आधार – भारत के अलावा शायद ही विश्व में कोई ऐसा देश हो, जिसमें पूजा- पाठ, जप, तप और व्रत में इतनी आस्था हो। देवी-देवताओं की नगरी, त्योहारों का देश, आस्था पर मर मिटनेवाले लोग-यही पहचान है भारत की। इतना ही नहीं, यहाँ हर धर्म में जिस प्रकार पूजा-पाठ का अपना स्थान है, उसी प्रकार व्रत भी हर धर्म का अनूठा अंग है।

जिस प्रकार सर्व मनोकामनाओं की पूर्ति के लिए मंत्र, जप, पाठ-पूजा का विधान है, उसी प्रकार व्रतों का मनुष्य की आस्था से गहरा तालमेल है। यों तो सभी धर्मों में व्रत की विशेष महत्ता है, परंतु हिंदू धर्म के तो व्रत मानो प्राण हैं। किसी भी इच्छित वस्तु को प्राप्त करने का साधन ही व्रत है। जब भी ‘व्रत’ शब्द का जिक्र होता है तो मन स्वतः ही किसी देवी-देवता के नाम से या किसी धार्मिक कृत्य से जुड़ जाता है और भोजन के त्याग का चित्र उभर आता है, शायद यही कारण है कि जब भी हम कोई व्रत रखते हैं तो साथ में ‘उपवास’ शब्द भी जोड़ देते हैं।

अधिकतर लोगों का मानना है कि व्रत यानी भोजन का त्याग करना। संबंधित देवी-देवता की पूजा-अर्चना करना, धार्मिक अनुष्ठान या कर्मकांड करना आदि। इसलिए उपवास शब्द व्रत के साथ इस कदर जुड़ गया है कि दोनों एक ही हो गए हैं। एक आम आदमी की नजर में दोनों का एक ही अर्थ है या फिर दोनों एक-दूसरे के पर्याय हैं। जबकि दोनों एक-दूसरे से बिल्कुल भिन्न हैं।

भले ही व्रत-उपवास का वास्तविक अर्थ कुछ भी हो, लेकिन जनमानस में यह धर्म, आस्था एवं श्रद्धा का प्रतीक है। कुछ लोग इसे धर्म के साथ जोड़कर देखते हैं तो कुछ ज्योतिषीय उपायों की तरह लेते हैं। स्वास्थ्य की दृष्टि से इसके अलग लाभ हैं तो मनोविज्ञान की दृष्टि से इनका अपना महत्त्व है। शायद यही कारण है कि व्रत-उपवास का चलन सदियों नहीं, युगों पुराना है। एक तरफ हिंदू शास्त्र व्रत-उपवास जैसे धार्मिक कर्मकांडों की पैरवी करते नजर आते हैं तो दूसरी ओर खुद ही इसी बात पर जोर देते हैं कि ‘भूखे भजन न होय गोपाला‘, अर्थात् भूखे पेट तो भगवान् का भजन भी नहीं हो पाता।

हमारे शास्त्रों में, धर्मों में दोनों ही बातें मिल जाती हैं। व्रतों के पक्ष में भी और व्रतों के विपक्ष में भी, लेकिन पलड़ा फिर भी व्रतों को रखने की ओर ही झुकता मालूम पड़ता है। सच तो यह है लोग व्रत चाहे विश्वास में रखें या अंधविश्वास में, लेकिन अधिकतर लोग व्रत के प्रति अपनी सहमति जताते हैं और यह पुस्तक व्रत के सही अर्थ और पक्ष को रेखांकित करती है।

वैदिक काल में व्रत आत्मिक उन्नति के साधन थे। उपनिषद् काल में यही स्थिति रही, किंतु पौराणिक युग में व्रत मनोकामना या मनोवांछित फल पाने का माध्यम बन गए और साथ-साथ कई कथाएँ भी इनमें जुड़ती गईं, जो पाप से विमुक्त कर पुण्य-प्राप्ति का मार्ग दिखाती थीं। कालांतर में ये कथाएँ व्रत में अभिन्न रूप से पढ़ी जाने लगीं।

स्वास्थ्य और धर्म दोनों ही दृष्टि से उपवास का एक खास महत्त्व है। व्रत करने से सांसारिक और पारलौकिक अर्थात् दोनों लोकों का फल प्राप्त होता है। शरीर विज्ञान से जुड़े विशेषज्ञों की नजर में उपवास शरीर शुद्धि का एकमात्र उपाय है। सात दिनों में से केवल एक दिन भोजन न करें तो हमारा शरीर स्वस्थ रहता है, चंचल मन की गति पर अंकुश लगता है। पारमार्थिक दृष्टि से आत्मकल्याण की प्राप्ति होती है। अगर हम सांसारिक दृष्टि से विचार करें तो शरीर को स्वस्थ रखना भी एक बड़ा धर्म है। उपवास विषय-वासना से निवृत्ति का अचूक हथियार है। आयुर्वेद के प्रसिद्ध ग्रंथ ‘चरक संहिता’ से लेकर आज के विभिन्न चिकित्सकीय शोधों ने भी उपवास के अनेक लाभ बताए हैं।

अधिकतर लोगों को शिकायत रहती है कि उनके द्वारा किए गए व्रत उपवास का कोई लाभ नहीं हो रहा, क्योंकि वह जानते ही नहीं कि व्रत न केवल कई बार निष्फल हो जाते हैं, बल्कि जीवन में कष्टों को और भी बढ़ा देते हैं। इतना ही नहीं, हर वार व संबंधित देवता का अपना व्रत- विधान है। उसकी अपनी उद्यापन विधि है तथा हर व्रत के अपने नियम हैं, पर वह बिना जाने व्रत-उपवास को अपने लाभ व मनोकामनाओं की पूर्ति के लिए उन्हें रखने में जुट जाता है।

व्रत रखना गलत नहीं है, लेकिन जरा सोचो तो हम क्या कर रहे हैं? क्यों कर रहे हैं? क्या व्रतों का संबंध देवी-देवताओं से है? या हमारी मनोकामनाओं की पूर्ति से? या फिर इस आशा से कि आज नहीं तो कल, वैसे नहीं तो ऐसे, हमें सुख मिल ही जाएगा। इतना कुछ तो करके देखा है, चलो व्रत भी रख के देख लें। हम सबकुछ करके देख लेना चाहते हैं, सिवाय इसके कि हम कुछ सोचना नहीं चाहते। चिंतन-मनन नहीं करना चाहते। इस बात पर गौर ही नहीं करना चाहते कि हम क्या और क्यों कर रहे हैं, बस किए जा रहे हैं।

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