व्रत उपवास में अंतर बहुत बड़ा है। जब भी ‘व्रत’ शब्द का जिक्र होता है तो मन स्वतः ही किसी देवी-देवता के नाम से या किसी धार्मिक कृत्य से जुड़ जाता है और भोजन के त्याग का चित्र उभर आता है। शायद यही कारण है कि जब भी हम कोई व्रत रखते हैं तो साथ में उपवास शब्द भी जोड़ देते हैं।
अधिकतर लोगों का मानना है कि व्रत यानी भोजन का त्याग करना, संबंधित देवी-देवता की पूजा-अर्चना करना, धार्मिक अनुष्ठान या कर्मकांड करना आदि। इसलिए उपवास शब्द व्रत के साथ इस कदर जुड़ गया है कि दोनों एक ही हो गए हैं। एक आम आदमी की नजर में दोनों का एक ही अर्थ है या फिर दोनों एक-दूसरे के पर्याय हैं, जबकि दोनों एक-दूसरे से बिल्कुल भिन्न हैं। व्रत उपवास में अंतर
व्रत अर्थ
व्रत अर्थात् दृढ़ता, निश्चय, संकल्प। किसी बात के लिए दृढ़निश्चयी होना, संकल्प लेना, ठान लेना, मजबूती से बीड़ा उठाना कि यह तो मैं हर कीमत पर करके ही रहूँगा, चाहे कितनी भी मुसीबतें आएँ, उद्देश्य से नहीं डगमगाऊँगा, चुनौतियों का सामना करूँगा, परीक्षाओं से नहीं घबराऊँगा, कार्य को बीच में नहीं छोडूंगा, पूरा करके ही दम लूँगा आदि। इस तरह का किया गया प्रण, इस तरह का किया गया स्वयं से वादा, इस तरह का अटूट निश्चय ही ‘व्रत’ कहलाता है और व्रत का उपवास या धर्म से कोई संबंध नहीं।


व्रत तो दूर की बात है, लोगों को उपवास तक का सही-सही अर्थ नहीं पता। अधिकतर लोगों का मानना है कि उपवास अर्थात् भोजन न करना, अन्न को त्यागना, भूखे पेट रहना या किसी सात्त्विक निर्देशित आहार का सेवन करना ही उपवास है। यहाँ पर प्रश्न उठना लाजिमी है। यदि यह उपवास नहीं है तो फिर वास्तव में ‘उपवास’ क्या है? कैसे यह व्रत शब्द के साथ जुड़ गया? क्यों लोग व्रत और उपवास को एक ही समझते हैं तथा व्रत के नाम पर भोजन को त्याग देते हैं, कैसे? यह सबकुछ जरा सोचने जैसा है। व्रत उपवास में अंतर
उपवास अर्थ
‘उपवास’ शब्द बना है ‘उप’ और ‘वास’ के योग से। ‘उप’ यानी ऊपर, ऊँचा। ‘वास’ यानी टिकना, रहना। ‘उपवास’ का अर्थ हुआ-अपने से ऊपर उठकर, जो हमसे ऊँचा है, श्रेष्ठ है, शक्तिशाली है, उसके पास टिकना, रुकना, रहना। ऐसे के पास वास करना, जो हम सबसे ऊपर है, ऊँचा है। वह है सर्वशक्तिशाली, परब्रह्म परमात्मा। स्वयं को संसार के तमाम तरह के आकर्षणों एवं वासनाओं से बचाकर, उस परमसत्ता के लोक में पहुँचाने का, ऊपर उठाने का नाम है ‘उपवास’।


भोजन और उपवास
लेकिन यहाँ अब यह प्रश्न उठता है कि यदि यह उपवास है तो इसमें भोजन का त्याग क्यों? सच तो यह है उपवास में भोजन छोड़ना नहीं पड़ता, छूट जाता है। उपवास एक ऐसी अवस्था का नाम है, जब भक्त भगवान् में इतना लीन हो जाता है कि उसे खाने-पीने की सुध नहीं रहती। उसे इस बात का भी होश नहीं रहता कि वह शरीर है, उसके शरीर की, पेट की कोई जरूरतें भी हैं। वह स्वयं से इतना ऊपर उठ चुका होता है कि स्वयं की भूख-प्यास का सवाल पीछे छूट जाता है।
प्रभु का दर्शन, प्रभु का मिलन, प्रभु का साथ ही उसका स्वाद बन जाता है। वही उसकी खुराक हो जाती है। भजन ही भोजन हो जाता है। वह भक्ति एवं ध्यान के रस में इतना डूब जाता है कि उसे संसार एवं संसार की चीजें छोड़नी नहीं पड़तीं, उससे छूटने लगती हैं। भोजन की भूख भक्ति की भूख में बदलने लगती है। प्राणों की बस एक ही प्यास बचती है और वह है परमात्मा की अमृत वर्षा! ऐसी अवस्था में पहुँचे हुए इनसान की स्थिति को कहते हैं ‘उपवास’; जब भजन ही भोजन बन जाता है, न कि दिन भर के भूखे पेट रहनेवालों के प्रयास को।


व्रत और उपवास
अब प्रश्न उठता है- ‘व्रत’ और ‘उपवास’ भिन्न-भिन्न अर्थ रखनेवाले शब्द जुड़ कैसे गए? अर्थात् व्रत-उपवास एक-दूसरे के पर्याय कैसे हो गए? क्यों इन्हें एक ही अर्थ में प्रयोग किया जाता है? व्रत उपवास में अंतर
जब हम किसी शक्ति या ध्येय में समाते हैं तो एक संकल्प लेते हैं, स्वयं से एक वादा करते हैं। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए हम जी-जान लगा देते हैं, तब हमारी भूख-प्यास गौण हो जाती है, हमारा जुनून, हमारी प्रतिज्ञा प्रमुख हो जाती है। इसलिए जब हम किसी चीज का व्रत करते हैं।


सच तो यह है, जितने भी व्रत हैं, उन सबके पीछे यही कहानी है। भगवान् बुद्ध ने जब संसार में दुःख देखा तो उन्होंने स्वयं से एक वादा किया कि वह जानकर रहेंगे कि इनसान के जीवन में इतना दुःख क्यों है? इस प्रश्न के उत्तर को पाने में वह इतने लीन हो गए कि बुद्धत्व को प्राप्त हो गए। उनकी अवस्था ऐसी थी कि भोजन का खयाल ही नहीं रहा। लेकिन लोग हैं कि सोचते हैं कि भोजन के त्यागने से ही परमात्मा की प्राप्ति या मोक्ष आदि संभव है।