व्रत उपवास का बिगड़ता स्वरूप

जब भी व्रत-उपवास का जिक्र उठता है तो मन में सबसे पहले खयाल आता है कि हमें खाना नहीं खाना है, फिर मंदिर जाना है, पूजा-अर्चना करनी है, दान-पुण्य आदि करना है और शाम को भगवान् को पकवानों का भोग लगाना है और फिर स्वयं का पेट भरना है। यों तो व्रत-उपवास का सीधा संबंध धर्म से व उससे जुड़ी श्रद्धा-आस्था से है।

कुछ लोग अपने इष्ट को मनाने, प्रसन्न करने व मनोकामनाओं को पूर्ण करने के लिए व्रत रखते हैं तो कुछ लोग संबंधित धार्मिक परंपराओं के चलते चले आ रहे व्रतों को इसलिए रखते हैं कि यदि वह व्रत नहीं रखेंगे तो उनका भगवान् उनसे नाराज हो जाएगा। कुछ ऐसे भी हैं, जो स्वास्थ्य की दृष्टि से भी व्रत रखते हैं, यानी एक दिन का अन्न त्याग कर देते हैं, ताकि पेट की पाचन क्रिया को सही किया जा सके।

व्रत उपवास का वास्तविक अर्थ

बहरहाल, यदि हम शब्दों की गहराई की बात करें तो ‘व्रत’ शब्द का अर्थ होता है- दृढ़ता या किसी अच्छी चीज पर अडिगता, किसी अच्छे कार्य का प्रण करना तथा ‘उपवास’ का अर्थ होता है, हमसे जो ऊपर है, यानी परमात्मा उसके पास वास करना। उसकी याद में, ध्यान में इतना रम जाना, खो जाना कि खाने-पीने का भी होश न रहे।

हम अपने तल से ऊपर उठकर उस परम के इतने निकट हो जाएँ कि अपनी कोई माँग या इच्छा ही न बचे। ऐसी अवस्था को कहते हैं-उपवास। परंतु हम खाना तो छोड़ देते हैं, पर मन, वचन और विचारों के व्रत पर कोई ध्यान नहीं देते। हमारा व्रत मात्र एक धार्मिक क्रिया या कर्मकांड बनकर रह जाता है। व्रत के एक दिन पहले ही हम तय करना शुरू कर देते हैं कि आजरात डटकर खा लो, कल दिन भर तो हमें कुछ नहीं खाना है।

व्रत उपवास का बदलता स्वरूप

कल मंदिर जाना है, पूजा करनी है, दान देना है, पर एक बार भी यह नहीं सोचते या इस बात का प्रण करने की कोशिश नहीं करते कि कल हम कम- से-कम बोलेंगे, मौन रहेंगे, गुस्सा नहीं करेंगे, किसी की बुराई या चुगली इत्यादि नहीं करेंगे, झूठ नहीं बोलेंगे आदि। क्या इस तरह का व्रत हम कभी हफ्ते में तो क्या साल में एक बार भी कभी लेते हैं? शायद नहीं! जबकि हमारे यहाँ सप्ताह के सातों दिन किसी-न-किसी देवी-देवता के व्रत रखने का चलन है।

खाना छोड़ सकते हैं, मोबाइल नहीं

हैरानी की बात तो यह है हम जिस देवी-देवता के लिए व्रत रखते हैं, उस दिन अपना काम, दुकान, टी.वी., मोबाइल, सोशल नेटवर्किंग साइट्स आदि किसी का त्याग नहीं करते। बस सुबह-शाम की पूजा करके मान बैठते हैं कि हो गया सब ! मन पूरे दिन संसार में, संसार की रोजमर्रा की गतिविधियों में ज्यों-का-त्यों ही उलझा रहता है। सच तो यह है कि आज एक दिन का खाना छोड़ना आसान है, पर बिना मोबाइल के रहना असंभव है।

क्या व्रत के दिनों में हम कभी मूल्यांकन करते हैं कि जिस-जिस चीज के हम गुलाम हैं, आदी हैं, उनसे मुक्त होने का प्रण करेंगे? शायद नहीं। हम खाना का त्याग करके, मंदिर में माथा टेककर ही खुश हो जाते हैं और सोच बैठते हैं कि भगवान् खुश हो जाएगा और हमारा भाग्य बदल जाएगा। सच तो यह है, आदमी ने छोड़ना कभी कुछ सीखा ही नहीं।

उसका दिमाग छोड़ने की नहीं और पाने की होड़ से भरा है। वह सदा पाना ही चाहता है। यह व्रत-उपवास, कर्मकांड आदि भी उसके पाने की लालसाओं को ही दरशाते हैं। यह प्रतीक है कि आदमी त्याग की भाषा जानता ही नहीं है। इसलिए व्रतों में भी अपने चढ़ाए गए प्रसाद या चढ़ावे को याद रखता है तथा उनका हवाला देकर अपनी मनोकामनाओं को आगे करता है।

कहने को व्रत पर पकवानों का सेवन

यह जो हम बार-बार कहते हैं कि व्रत में हम खाना छोड़ते हैं, भोजन का त्याग करते क्या हम सच में खाना छोड़ते हैं? शायद नहीं। सच तो यह है व्रत के दिनों में हम और दिनों से अधिक पौष्टिक और स्वादिष्ट भोजनकरते हैं। आम दिन भले ही हम फल-सलाद खाएँ न खाएँ, बादाम- काजू खाएँ न खाएँ, जूस-नारियल पानी आदि न पिए, परंतु व्रत में जरूर खाते-पीते हैं-सच तो यह है, वैसे हम दिन में तीन बार भोजन करते हैं, पर व्रत में दिन भर खाते हैं।

व्रत की नमकीन, व्रत के लड्डू, व्रत के चिप्स, व्रत की मिठाई, व्रत के चावल, व्रत का आटा, व्रत का नमक, व्रत के आलू व्रत के नाम पर सबकुछ मिलता है। बाकायदा दुकानें सजती हैं। सच तो यह है, न केवल दुकानें सजती हैं, घर में भोग एवं प्रसाद के नाम पर विशेष व्यंजन बनते हैं, जो कहने को भले ही सादा, बिना लहसुन-प्याज का खाना होता है, परंतु पूरी तरह घी-तेल में डूबा होता है। चाशनी में डूबे, मेवों से लैस पकवान, मिठाई व खीर-हलवे से व्रत खोला जाता है। और फिर हम कहते हैं कि हम व्रत में खाना नहीं खाते !

नवरात्रों में तो लोग नौ-नौ दिनों के व्रत रखते हैं, यानी कहने को वह नौ दिन खाना नहीं खाते, परंतु नौ दिनों तक वह विशिष्ट भोजन खाते हैं। हाँ, इनमें कुछ ऐसे लोग भी होते हैं, जो प्रतिदिन मात्र लौंग के दो जोड़ों पर रहकर नौ दिनों तक व्रत रखते हैं। व्रत एक दिन का हो या नौ दिन का या फिर रोजों के रूप में महीने भर का, यदि हम दिन भर भोजन का त्याग करते हैं तो उस त्यागे हुए भोजन का क्या करते हैं? यानी जितनी बार, जितने दिन हम खाना नहीं खाते हैं, क्या उतने वक्त का खाना हम किसी जरूरतमंद को देते हैं? नहीं।

खाना त्यागने से कौन सा भगवान्, कैसे, कितना और कब खुश होगा तथा इससे हमको कब और कितनी दुआएँ मिलेंगी, मुझे नहीं पता, न ही यह पता है कि मंदिरों में चढ़ाए गए फल-फूल, घी-दूध, तेल-शहद व भोजन आदि भगवान् कितना खाते होंगे, पर एक बात मैं दावे से कहता हूँ कि यही भोजन किसी जरूरतमंद को खिलाएँ तो न केवल उसका पेट भरेगा, बल्कि वह दुआएँ भी देगा। इसलिए हमें चाहिए कि जब भी हम व्रत के जरिए अपने अन्न का त्याग करें तो उतने दिनों का त्यागा हुआ अन्न, किसी जरूरतमंद को अवश्य दें, जो कि हम नहीं करते हैं।

व्रत के नाम पर अन्न का तिरस्कार

यों तो हिंदू धर्म में व्रतोपवास बारह महीने चलते हैं, परंतु नौ दिनों तक चलनेवाले नवरात्रों के व्रतों का अपना विशेष महत्त्व है और वह इसलिए नहीं कि यह नौ दिनों तक रखे जाते हैं, बल्कि यह साल में दो बार मनाए जाते हैं तथा इस व्रत का समापन अष्टमी-नवमी के रूप में कन्या पूजन के साथ बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है।

अष्टमी-नवमी के दिन माता के भक्त अपने व्रत एवं पूजा को सार्थक अंजाम देने के लिए गली-मोहल्लों में कन्याओं को ढूँढ़ते नजर आते हैं। शायद यही वे दिन होते हैं, जिसमें मैंने समाज को लड़कियों की जरूरत महसूस होते हुए देखा है, वरना देवी की पूजा करनेवाले देश में लड़कियों को कितना सम्मान मिलता है, यह मुझे बताने की जरूरत नहीं।

जन्म से ही बोझ समझी जानेवाली लड़कियाँ अष्टमी-नवमी के दिन पूजनीय बन जाती हैं और फिर तीसरे दिन किसी बच्ची की हत्या या उसके साथ रेप की घटना अखबार व टी.वी. चैनलों में शीर्ष पर आने के लिए खड़ी होती हैं। बहरहाल, कन्या पूजनेवाले घर अधिक होते हैं, कन्याएँ कम। लोग कन्याओं को पूज-पूजकर उन्हें प्रसाद देते रहते हैं।

व्रतों के नाम पर हलवा, पूड़ी, चने का वितरण इतना ज्यादा होता है कि बचता और फिंकता है। अष्टमी और नवमी के अगले दिन आप सड़क, पार्क या पुलिया पर तथाकथित प्रसाद के ढेर को सरलता से फैला देख सकते हैं। जो बताता है कि गाएँ भी खाकर थक गई हैं, अब उन्हें भी नहीं खाना है। क्या व्रत के नाम पर यह अन्न का निरादर नहीं है?

क्या ऐसे व्रत से भगवान् खुश होते होंगे? कभी आपने सोचा है कि दस लाख लोग, यदि अपने नौ दिनों का अन्न बचाकर बाँटें तो कितने घरों के लोगों का भला होगा? शायद नहीं, पर सोचिएगा जरूर। नवरात्र का व्रत स्त्री-शक्ति को व उसके महत्त्व को पहचानने का व्रत है। जीवन में उसके योगदान को समझने का व्रत है। यदि हमारी आखों में स्त्री के प्रति सम्मान नहीं तो हमें ऐसे व्रतों को रखने का अधिकार नहीं।

व्रत उपवास

व्रत से ज्यादा हमें स्त्री व अन्न को महत्त्व देना होगा। इन दोनों के सम्मान के बिना व्रतों का, विशेषतौर पर नवरात्रों के व्रतों का कोई महत्त्व नहीं है। मैं व्रत-उपवास के खिलाफ नहीं हूँ, बस सही व्रत एवं उपवास के पक्ष में हूँ। जिन पर्वो का शाब्दिक अर्थ तक हमें मालूम नहीं, उनके गूढ़ अर्थ को जानना तो और मुश्किल है।

इसलिए हमें व्रतों के धार्मिक, आध्यात्मिक एवं वैज्ञानिक अर्थों के साथ-साथ इनके व्यावहारिक पक्ष को भी समझने की जरूरत है, तभी इनको रखने व मनाने का कुछ महत्त्व है। असली व्रत वही है, जिससे स्वयं का तो भला हो ही, साथ ही दूसरे का, समाज व राष्ट्र का भी भला हो।

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