व्रत उपवास के भेद

वैदिक काल में व्रत आत्मिक उन्नति के साधन थे। उपनिषद् काल में यही स्थिति रही, किंतु पौराणिक युग में व्रत मनोकामना या मनोवांछित फल पाने का माध्यम बन गए और साथ-साथ कई कथाएँ भी इनमें जुड़ती गईं, जो पाप से विमुक्त कर पुण्य-प्राप्ति का मार्ग दिखाती थीं। कालांतर में ये कथाएँ व्रत में अभिन्न रूप से पढ़ी जाने लगीं। विभिन्न कालों के अध्ययन उपरांत व्रतोपवास 11 प्रकार के माने गए हैं-

  1. कायिक – शस्त्राघात, मर्माघात और कार्य हानि से उत्पन्न हिंसा को त्यागने को कायिक व्रत कहते हैं।
  2. वाचिक – सत्य बोलने और प्राणिमात्र के हितार्थ मृदुभाषी बनने तथा कटु वाणी, निंदा आदि का त्याग वाचिक व्रत कहलाता है।
  3. मानसिक – समस्त प्राणियों के प्रति वैमनस्य भाव को त्यागकर मन को शांत करने की दृढ़ता से किया व्रत मानसिक व्रत कहलाता है।
  4. नित्य व्रत – जिस व्रत का पालन करना हमेशा के लिए आवश्यक है और जिसके न करने से मनुष्य दोषी होता है, वह नित्य व्रत कहलाता है। सत्य वचन बोलना, पवित्र रहना, इंद्रियों पर नियंत्रण करना, क्रोध न करना, अश्लील भाषण न करना, परनिंदा न करना आदि। पुण्य-संयम के साथ एकादशी व्रत नित्यव्रत के अंतर्गत आता है। उसमें किसी कामना का समावेश नहीं होता है, वरन् भक्ति एवं प्रेम महत्त्व रखते हैं।
  5. नैमित्तिक – किसी प्रकार के पातक हो जाने पर या अन्य किसी प्रकार के निमित्त के उपस्थित होने पर पापक्षय के उद्देश्य से चांद्रायण कृच्छ प्रभृति जो व्रत होते हैं, नैमित्तिक व्रत कहे जाते हैं।
  6. काम्य व्रत – किसी कामना विशेष से प्रोत्साहित होकर किए जानेवाले व्रत काम्य व्रत कहलाते हैं, जैसे कि पुत्र प्राप्ति के लिए राजा दिलीप ने काम्य व्रत किया था। वट सावित्री एवं करवाचौथ भी काम्य व्रत की श्रेणी में आते हैं।

उल्लेखनीय है कि नित्य व्रत, नैमित्तिक और काम्य व्रत में द्रव्य विशेष के भोजन और पूजन आदि की साधना के द्वारा साध्य व्रत ‘प्रवृत्तिरूपी’ होते हैं, जबकि केवल उपासना करने के द्वारा साध्य व्रत ‘निवृत्तिरूपी’ होते हैं। इन्हें विधिपूर्वक करने से यथोचित फल मिलता है।

  1. एकभुक्त व्रत– एकभुक्त व्रत के तीन अन्य भेद हैं-
  • दिन या आधा दिन व्यतीत होने पर स्वतंत्र एकभुक्त व्रत होता है।
  • मध्याह्न या दोपहर में ‘अन्योग’ किया जाता है।
  • प्रतिनिधि एकभुक्त व्रत समयानुसार आगे-पीछे भी किया जा सकता है।
  1. नक्त व्रत – यह व्रत प्रायः रात्रि में किया जाता है। खास बात है कि गृहस्थ इसे रात्रि होने पर करते हैं, जबकि संन्यासी एवं विधवा सूर्यास्त से पहले करते हैं।
  2. अयाचित – इस व्रत में बिना माँगे जो कुछ मिले, उसे निषेध काल में बचाकर रखना और दिन या रात्रि में जब भी अवसर मिले, तभी केवल एक बार ग्रहण करना अयाचित व्रत कहा जाता है।
  3. मितभुक्त्रत – मितभुक्व्रत में एक निश्चित मात्रा में (जैसे दस ग्रास) भोजन किया जाता है। उल्लेखनीय है कि अयाचित एवं मितभुक्त्रत परम सिद्धि प्रदान करनेवाले होते हैं।
  4. चांद्रायण– चंद्रदेव को प्रसन्न कर, चंद्रलोक की प्राप्ति और पापों से निवृत्त होने के लिए यह व्रत किया जाता है। इस व्रत में अन्न यानी आहार की मात्रा चंद्र कला के बढ़ने और घटने के आधार पर बढ़ती-घटती रहती है, जैसे-शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को 1, द्वितीय को 2 इसी आधार पर पूर्णिमा तक 15 ग्रास भोजन करते हैं और फिर कृष्णपक्ष की प्रतिपदा को 1 ग्रास कम कर 14, द्वितीया को 13 आदि। इसी क्रम में ग्रासों की संख्या कम करते जाते हैं और अमावस्या को निराहार रहने से चांद्रायण होता है। यह यवमध्य चांद्रायण कहलाता है।
  5. प्राजापत्य– 12 दिनों के इस व्रत के आरंभ के पहले 3 दिनों में प्रतिदिन जितना मुँह में आए, उतना ही ’22 ग्रास’ भोजन करते हैं। अगले 3 दिन तक 26 ग्रास, तत्पश्चात् 3 दिन तक पूरी तरह पकाए हुए अन्न से 24 ग्रास भोजन ग्रहण करते हैं और उसके बाद 3 दिन तक निराहार रहते हैं। इनके अलावा भी कई प्रकार से व्रतों का वर्गीकरण किया गया है। कुछ व्रत केवल पुरुषों के लिए हैं, जैसे-श्रावण शुक्ल पूर्णिमा, हस्त या श्रवण नक्षत्र में लिया जानेवाला उपाकर्म व्रत, तो भाद्रपद शुक्ल तृतीया को आचरणीय हरितालिका व्रत केवल स्त्रियों के लिए होता है। जबकि एकादशी व्रत दोनों कर सकते हैं।

इसी तरह समय, मास, ऋतु, तिथि, वार, नक्षत्र, योग, वरण एवं भक्ति के आधार पर भी व्रतों का वर्गीकरण किया जा सकता है, जैसे- महाव्रत 16 वर्ष, वेदव्रत व ध्वजव्रत 12 वर्ष, पंचमहाभूत व्रत, संतानाष्टमी व्रत, शक्रव्रत, शीला-वाप्ति व्रत एक वर्ष में पूरे होते हैं। सत्यनारायण व्रत कभी भी किया जा सकता है।

बसंत ऋतु में अरुंधती व्रत होता है। चैत्र मास में वत्सराधिपव्रत, वैशाख में स्कंदषष्ठीव्रत, ज्येष्ठ मास में निर्जला एकादशी, आषाढ़ में हरिशयन, श्रावण में उपाकर्म, भाद्रपद में हरितालिका, आश्विन में नवरात्र, कार्तिक में गोपाष्टमी, मार्गशीर्ष में भैरवाष्टमी, पौष में मार्तंड, माघ में षतिला और फाल्गुन मास में महाशिवरात्रि व्रत होता है।

महालक्ष्मी व्रत भाद्रपद शुक्ल अष्टमी को प्रारंभ होकर 16 दिनों में पूरा होता है। प्रत्येक संक्रांति को मेष संक्रांति के दिन ‘सुजन्मावाप्ति व्रत’ होता है।

तिथि आधारित व्रतों में एकादशी व्रत, वार आधारित व्रतों में रविवार को सूर्य व्रत, नक्षत्रों में अश्विनी नक्षत्र में शिव व्रत, योगों में विष्कुंभ योग में घृतदान व्रत तथा करणों में नववरण में विष्णुव्रत किया जाता है। संवत्सर, रामनवमी, कृष्णजन्माष्टमी, महाशिवरात्रि, दशावतार व्रत को 5 महाव्रत कहा गया है।

उपवास के भेद

उपवास के मुख्यतः 13 भेद माने गए हैं-

  1. प्रातः उपवास – इस उपवास में दिन एवं रात्रि का भोजन किया जाता है, किंतु प्रातः नाश्ता नहीं किया जाता।
  2. एकाहारोपवास – इस उपवास में दिन भर में केवल एक बार भोजन में सिर्फ एक ही चीज खाई जाती है।
  3. अद्धोपवास – इस उपवास में पूरे दिन में सिर्फ एक ही बार भोजन करना होता है। रात को भोजन नहीं करते। इसे रात का उपवास भी कहा जाता है।
  4. रसोपवास – इस उपवास में अन्न तथा फल आदि भारी पदार्थ नहीं खाए जाते, सिर्फ फलों का जूस या रस अथवा सब्जियों का जूस लिया जाता है। दूध भी नहीं पीना होता है, इसे ठोस पदार्थों में माना जाता है।
  5. दुग्धोपवास – इस उपवास में केवल दिन में 2 या 3 बार दूध पिया जाता है। इसको ‘दुग्धकल्प’ भी कहा जाता है।
  1. फलोपवास – इस उपवास के अंतर्गत कुछ दिनों तक केवल फलों और सब्जियों के रस का सेवन किया जाता है।
  2. पूर्णोपवास – इस उपवास में बहुत सारे नियमों का पालन करना पड़ता है। इसमें सिर्फ शुद्ध और ताजे जल के अलावा कुछ भी सेवन नहीं किया जाता।
  3. लघु उपवास – 3 दिन से 7 दिन तक के पूर्णोपवास को ‘लघु उपवास’ कहा जाता है।
  4. मठोपवास – इस उपवास में केवल मट्ठा पिया जाता है। उसमें भी घी एवं खट्टेपन की मात्रा कम होनी चाहिए। इसे दो माह तक किया जा सकता है।
  5. दीर्घ उपवास – जब बहुत दिनों तक पूर्णोपवास किया जाता है, तो इसे दीर्घ उपवास कहा जाता है। इसे 21 दिनों से अधिक तक रखा जा सकता है।
  6. साप्ताहिक उपवास – सप्ताह में एक बार पूर्णोपवास करना ‘साप्ताहिक उपवास’ कहलाता है।
  7. कठोर उपवास – पूर्णोपवास का बहुत नियम एवं सख्ती के साथ उपवास रखना ‘कठोर उपवास’ कहा जाता है। जिन लोगों को बहुत भयंकर रोग होते हैं, उन्हें यह उपवास करना होता है।
  8. टूटे उपवास – 2 से 7 दिनों तक जब पूर्णोपवास रखा जाए और कुछ दिनों हल्का प्राकृतिक भोजन लेकर फिर उपवास रखा जाए, इसे ‘टूटे उपवास’ कहा जाता है।
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments
×