भारतीय संस्कृति में व्रत का आचरण समाज जीवन के सभी रूपों में रहा है। प्रत्येक व्रत के नियम में स्वयं को भौतिक कार्यों से तपाना महत्त्व रखता है। कितनी ही कठिनाई आए, सांसारिक बाधाएँ एवं संघर्ष आएँ, किंतु व्रत का दृढ़ता से पालन करना राजा और प्रजा के जन-जीवन में मुख्य धारणा रही है।
उदाहरण के लिए हरिश्चंद्र जैसे राजर्षि अपने सत्यादि व्रतों के लिए लोक विख्यात रहे हैं। ब्रह्मा के मानसपुत्रों सनक, सनंदन, सनातन, सनत्कुमार और नारद तथा परशुराम, भीष्म, हनुमान के ब्रह्मचर्यव्रत जग-विख्यात हैं। कपोत की रक्षार्थ स्वयं का मांस दे देनेवाले शिवि और कवच-कुंडल भी दान में दे देनेवाले कर्ण के प्रसंगों में क्षत्रियों के रक्षाव्रत और दानव्रतों के उदाहरण मिलते हैं।
ऋषि-मुनियों द्वारा पालित कुछ व्रत, जैसे – मौनव्रत, वानप्रस्थ, अहिंसा, चातुर्मास, पारायण, दक्षिणायंत व्रत आदि भी ऐसे व्रत रहे हैं, जिनका पालन मृत्यु समय तक भी दृढ़ता से किया गया। ध्यान रखने की यह बात है कि व्रतों का मुख्य प्रयोजन काम, क्रोध, लोभ, मोहादि पर विजय पाते ही धैर्य और संतोष के साथ मुख्य नियम में दृढ़ रहकर आत्मभाव में स्थिर होना है। जीवन के उत्तरार्ध में किए जानेवाले इन व्रतों में इसी कारण वैराग्य की महत्ता स्वीकार की गई है। यह वैराग्यभाव ही मोक्ष मार्ग का प्रथम द्वार है।
इसी प्रकार समाज में भिन्न-भिन्न अधिकारी-कर्मचारी, विद्यार्थी, अध्यापक, पति-पत्नी, सबके अपने व्रत हैं। जैसे अधिकारी में दायित्व को समझना, कर्मचारी में कर्तव्य, विद्यार्थी में स्वाध्याय, अध्यापक में अध्यापन, पति में पत्नी-रक्षण, पत्नी में पातिव्रत्य आदि उन सबके अपने- अपने व्रत भारतीय संस्कृति में निर्धारित रहे हैं। हमारी संस्कृति के इस जीवन-मूल्य (व्रतीजीवन) की शिक्षा का अपने आचार-विचार में पालन होने पर ही हम भारतीय लोग विश्व को फिर से चरित्र, संस्कार और जीवन जीने की कला का ज्ञान दे सकते हैं। भारत के विश्व गुरुत्व का प्रमुख कारण हमारा सर्वश्रेष्ठ जीवन-मूल्य एवं व्रती जीवन ही रहा है।
व्रत के नियम
- व्रत करनेवाले व्यक्ति को क्रोध, लोभ, मोह, आलस्य, चोरी, ईर्ष्या आदि नहीं करना चाहिए। व्रती को क्षमा, दया, दान, शौच, इंद्रिय निग्रह, देव पूजा, अग्निहोत्र और संतोष से काम करना उचित और आवश्यक है।
- व्रत के समय बार-बार जल पीने, दिन में सोने, तांबूल चबाने और स्त्री- सहवास करने से व्रत बिगड़ जाता है।
- जल, फल, फूल, दूध, दही, औषधि के सेवन और गुरु (पूज्य जनों) के वचन- इनसे व्रत नहीं बिगड़ता।
- होमावशिष्ट खीर, सत्तू (भुने हुए जौ का चूर्ण), जौ, शाक (तोरई, ककड़ी, मेथी आदि), गो दुग्ध, दही, घी, मूल, आम, नारंगी और कदली फल (केला) व्रत में खाने योग्य हैं।
- व्रत में गंध, पुष्प, माला, शुभ्र, स्वच्छ वस्त्र धारण करने चाहिए। सौभाग्यवती स्त्रियों को विष्णु धर्म के अनुसार व्रत-पूजाओं में लाल वस्त्र धारण करने चाहिए।
- व्रत करनेवाले व्यक्ति के लिए आचमन करना आवश्यक है। नहाते- धोते, खाते-पीते, सोते, छींक लेते समय और गलियों में घूमकर आने पर यदि आचमन किया हुआ हो तो भी दुबारा करना आवश्यक है। यदि जल न मिले तो दक्षिण कर्ण का स्पर्श कर लें। हाथ के पोरुओं को बराबर करके हाथ को गौ के कान जैसा बनाकर आचमन करें।
- अधोवायु (अपाश्वाक) के निकल जाने, रोने, क्रोध करने, बिल्ली और चूहे से छू जाने के बाद, जोर से हँसने और झूठ बोलने पर जल स्पर्श करना आवश्यक होता है।
- बहुत दिनों में समाप्त होनेवाले व्रत का पहले संकल्प कर लिया हो तो उसमें जन्म और मरण का सूतक नहीं लगता। व्रतों में अशौच आने पर व्रत करते रहें, दान और पूजा न करें।
- बड़े व्रतों का प्रारंभ करने पर स्त्री रजस्वला हो जाए, तो उससे भी व्रत में कोई बाधा नहीं आती।
- व्रत में, तीर्थयात्रा में, अध्ययन काल में तथा श्राद्ध में दूसरे का अन्न लेने से, जिसका अन्न होता है, उसी को पुण्य प्राप्त होता है।
- किसी विपत्ति, रोग अथवा यात्रा के कारण धर्म-कर्म अपने से न हो सके तो वायु पुराण के अनुसार पति, पत्नी, ज्येष्ठ पुत्र, पुरोहित, भाई अथवा मित्र को अपना प्रतिनिधि बनाकर उससे कराया जा सकता है। यदि इनमें से कोई उपलब्ध न हो तो यह काम ब्राह्मण से कराया जा सकता है।
व्रत किस प्रकार करें?
मनुष्यों के हित के लिए महर्षियों ने अनेक साधन बताए हैं। उनमें एक साधन व्रत भी है। मनुष्य जीवन को सफल बनाने में व्रत की बड़ी महिमा मानी गई है। देवल के अनुसार व्रत और उपवास के नियम पालन से शरीर को तपाना ही तप है।व्रत में भोजन किया जा सकता है। उपवास में निराहार रहना पड़ता है। इनके कायिकादि तीन भेद हैं-
- शस्त्राघात, मर्माघात और कार्य हानि आदि जनित हिंसा के त्याग से कायिक।
- सत्य बोलने और प्राणिमात्र से निर्वैर रहने से वाचिक।
- मन को शांत रखने की दृढ़ता से मानसिक व्रत होता है।
- प्रयोजन सिद्धि के लिए तीन भेद
- पुण्य-संचय के लिए एकादशी आदि ‘नित्य व्रत’ कहलाते हैं।
- पाप-क्षय के निमित्त चांद्रायणादि ‘नैमित्तिक व्रत’ कहलाते हैं।
- सुख-सौभाग्यादि के वट सावित्री आदि ‘काम्य व्रत’ माने जाते हैं।