सत्यनारायण व्रत की कथा में ऐसे उन सभी व्यक्तियों की कथाएँ संगृहीत की गई हैं, जिन्होंने अपने कार्य-व्यवहार में सत्य को समाविष्ट करने का व्रत धारण किया था। फिर चाहे वे समाज के किसी भी वर्ग से थे। यहाँ काशीपुर में रहनेवाला दरिद्र ब्रण है तो उल्कामुख एवं तुंगध्वज जैसे राजा भी हैं। इसी प्रकार गरीब लकड़हारा है तो चतुर चालाक साधु नामक बनिया भी यहाँ है। गोचारण करने वाले साधारण ग्वालों की कथा भी यहाँ है।
कौन है सत्यनारायण
भगवान् सत्यनारायण विष्णु के ही रूप हैं। कथा के अनुसार इंद्र का दर्प भंग करने के लिए विष्णुजी ने नर और नारायण के रूप में बद्रीनाथ में तपस्या की थी, वहीं नारायण सत्य को धारण करते हैं, अतः ‘सत्य नारायण’ कहे जाते हैं।
सत्य को अपनाने से जैसे ये सब प्रकार से सुखी एवं संपन्न हो गए, उसी प्रकार जो भी सुखी एवं समृद्ध होना चाहे, वह इन्हीं की भाँति सत्य को अपने जीवन का अभिन्न अंग बनाने का व्रत धारण कर ले। यहाँ किसी के लिए द्वार नहीं बंद है। यही कारण है कि श्री सत्यनारायण व्रत कथा में जिनकी कथाएँ संकलित हैं, उन सभी ने सत्यव्रत धारण करने का संकल्प किया था, यही बारंबार कहा गया है। श्री सत्यनारायण व्रत कथा के अंतिम अध्याय में फलश्रुति के अंतर्गत यह बताया गया है कि सत्य का आश्रय लेने वालों को क्या लोकोत्तर लाभ हुए।


सत्यनारायण व्रत कथा व पूजन विधि
सत्यनारायण भगवान् की कथा जगत् में प्रचलित है। कुछ लोग मनौती पूरी होने पर तो कुछ किसी शुभ कार्य के प्रारंभ व गृह-प्रवेश के अवसर पर सत्यनारायण कथा का आयोजन करते हैं। शास्त्रों में कहा गया है कि लौकिक क्लेश-मुक्ति, सांसारिक सुख-समृद्धि एवं पारलौकिक लक्ष्य-सिद्धि के लिए एक ही राजमार्ग है, वह है सत्यनारायण व्रत। सत्यनारायण का अर्थ है- सत्याचरण, सत्याग्रह, सत्यनिष्ठा। संसार में सुख-समृद्धि की प्राप्ति सत्याचरण द्वारा ही संभव है।
सत्यनारायण व्रत पूजन विधि
जो व्यक्ति सत्यनारायण की पूजा का संकल्प लेते हैं, उन्हें दिन भर व्रत रखना चाहिए। पूजन स्थल को गाय के गोबर से पवित्र करके वहाँ एक अल्पना बनाएँ और उस पर पूजा की चौकी रखें। इस चौकी के चारों पाए के पास केले का वृक्ष लगाएँ। इस चौकी पर ठाकुरजी और श्री सत्यनारायण की प्रतिमा स्थापित करें।
सत्यनारायण व्रत पूजा करते समय सबसे पहले गणपति की पूजा करें, फिर इंद्रादि दस दिक्पाल की और क्रमशः पंच लोकपाल, सीता सहित राम, लक्ष्मण की, राधा-कृष्ण की। इनकी पूजा के पश्चात् ठाकुरजी व सत्यनारायण की पूजा करें। इसके बाद लक्ष्मी माता की और अंत में महादेव और ब्रह्माजी की पूजा करें। पूजा में केले के पत्ते व फल के अलावा पंचामृत, पंचगव्य, सुपारी, पान, तिल, मौली, रोली, कुमकुम, दूर्वा की आवश्यकता होती है, जिनसे भगवान् की पूजा होती है।
सत्यनारायण की पूजा के लिए दूध, मधु, केला, गंगाजल, तुलसी पत्ता, मेवा मिलाकर पंचामृत तैयार किया जाता है, जो भगवान् को काफी पसंद है। सत्यनारायण भगवान् को प्रसाद के तौर पर फल-मिष्ठान के अलावा आटे की पंजीरी का भी भोग लगाया जाता है। पूजन विधि में निम्न मंत्रों के उच्चारण से आप सत्यनारायण की कथा का सफल आयोजन कर सकते हैं।

सत्यनारायण व्रत कथा
श्री सत्यनारायण की कई कथाएँ हैं, जिसमें से कुछ का यहाँ वर्णन किया जा रहा है। इस कथा को सूतजी ने सनकादि ऋषियों के कहने पर कहा था। इनसे पूर्व नारद मुनि को स्वयं भगवान् विष्णु ने यह कथा सुनाई थी। कथा के अनुसार एक गरीब ब्राह्मण था। ब्राह्मण भिक्षा के लिए दिन भर भटकता रहता था। भगवान् विष्णु को उस ब्राह्मण की दीनता पर दया आई और एक दिन भगवान् स्वयं ब्राह्मण वेश धारण कर उस विप्र के पास पहुँचे।
विप्र से उन्होंने उनकी परेशानी सुनी और उन्हें सत्यनारायण की पूजा करने की सलाह दी। ब्राह्मण ने श्रद्धापूर्वक सत्यनिष्ठ होकर सत्यनारायण की पूजा एवं कथा की। इसके प्रभाव से उसकी दरिद्रता समाप्त हो गई और वह धन-धान्य से संपन्न हो गया। इस अध्याय में एक लकड़हारे की भी कथा है, जिसने विप्र को सत्यनारायण व्रत कथा करते देखा तो उनसे पूजन विधि जानकर भगवान् की पूजा की, जिससे वह धनवान बन गया।
ये लोग सत्यनारायण की पूजा से मृत्यु के पश्चात् उत्तम लोक गए और कालांतर में विष्णु की सेवा में रहकर मोक्ष के भागी बने। सत्यनारायण का अर्थ है, एकमात्र नारायण ही सत्य हैं अथवा सत्य में ही नारायण प्रतिष्ठित हैं। एक बार योगी नारदजी ने भ्रमण करते हुए मृत्युलोक के प्राणियों को अपने-अपने कर्मों के अनुसार नाना क्लेशजन्य ताप से संतप्त होते देखा। इससे उनका संत हृदय द्रवित हो उठा और वह वीणा बजाते हुए अपने परम आराध्य भगवान् श्रीहरि की शरण में क्षीरसागर पहुँच गए और स्तुतिपूर्वक बोले, “हे नाथ! यदि आप मेरे ऊपर प्रसन्न हैं तो मृत्युलोक के प्राणियों की व्यथा हरनेवाला कोई छोटा-सा उपाय बताने की कृपा करें।”
तब भगवान् ने कहा, “हे वत्स! तुमने विश्व- कल्याण की भावना से बहुत सुंदर प्रश्न किया है। अतः तुम्हें साधुवाद है। आज मैं तुम्हें ऐसा व्रत बताता हूँ, जो स्वर्ग में भी दुर्लभ है और महान् पुण्यदायक है तथा मोह के बंधन को काट देनेवाला है और वह है श्री सत्यनारायण व्रत। इसे विधि-विधान से करने पर मनुष्य सांसारिक सुखों को भोगकर परलोक में मोक्ष प्राप्त कर लेता है।” इसके पश्चात् काशीपुर नगर के एक निर्धन ब्राह्मण को भिक्षावृत्ति करते देख भगवान् विष्णु स्वयं ही एक बूढ़े ब्राह्मण के रूप में उस निर्धन ब्राह्मण के पास जाकर बोले, “हे विप्र ! श्री सत्यनारायण भगवान् मनोवांछित फल देनेवाले हैं।

तुम उनका व्रत-पूजन करो, जिसे करने से मनुष्य सब प्रकार के दुःखों से मुक्त हो जाता है। इस व्रत में उपवास का भी अपना महत्त्व है, किंतु उपवास का अर्थ मात्र भोजन न करना ही नहीं समझना चाहिए। उपवास के समय हृदय में यह धारणा होनी चाहिए कि आज श्री सत्यनारायण भगवान् हमारे पास ही विराजमान हैं। अतः बाह्य आभ्यंतर शुचिता बनाए रखनी चाहिए और श्रद्धा-विश्वासपूर्वक भगवान् का पूजन कर उनकी मंगलमयी कथा का श्रवण करना चाहिए।”
सत्यनारायण व्रत कथा में निर्धन ब्राह्मण, गरीब लकड़हारा, राजा उल्कामुख, धनवान व्यवसायी, साधु वैश्य, उसकी पत्नी लीलावती, पुत्री कलावती, राजा तुङ्गध्वज एवं गोपगणों की कथा का समावेश किया गया है। कथासार ग्रहण करने से यह निष्कर्ष निकलता है कि जिस किसी ने सत्य के प्रति श्रद्धा-विश्वास किया, उन सबके कार्य सिद्ध हो गए, जैसे- लकड़हारा, गरीब ब्राह्मण, उल्कामुख, गोपगणों ने सुना कि यह व्रत सुख, सौभाग्य, संतति, संपत्ति सबकुछ देनेवाला है, तो सुनते ही श्रद्धा, भक्ति तथा प्रेम के साथ सत्यव्रत का आचरण करने में लग गए और फलस्वरूप इहलौकिक सुख भोगकर परलोक में मोक्ष के अधिकारी हुए।
साधु वैश्य ने भी यही प्रसंग राजा उल्कामुख से विधि-विधान के साथ सुना, किंतु उसका विश्वास अधूरा था। श्रद्धा में कमी थी। वह कहता था कि संतान प्राप्ति पर सत्यव्रत-पूजन करूँगा। समय बीतने पर उसके घर एक सुंदर कन्या ने जन्म लिया। उसकी श्रद्धालु पत्नी ने व्रत की याद दिलाई तो उसने कहा कि कन्या के विवाह के समय करेंगे। समय आने पर कन्या का विवाह भी हो गया, किंतु उस वैश्य ने व्रत नहीं किया। वह अपने दामाद को लेकर व्यापार के लिए चला गया।
उसे चोरी के आरोप में राजा चंद्रकेतु द्वारा दामाद सहित कारागार में डाल दिया गया। पीछे घर में भी चोरी हो गई। पत्नी लीलावती व पुत्री कलावती भिक्षावृत्ति के लिए विवश हो गईं। एक दिन कलावती ने किसी विप्र के घर श्री सत्यनारायण व्रत का पूजन होते देखा और घर आकर माँ को बताया। तब माँ ने अगले दिन श्रद्धा से व्रत-पूजन कर भगवान् से पति और दामाद के शीघ्र वापस आने का वरदान माँगा। श्रीहरि प्रसन्न हो गए और स्वप्न में राजा को दोनों बंदियों को छोड़ने का आदेश दिया।
राजा ने धन-धान्य तथा प्रचुर द्रव्य देकर उन्हें विदा किया। घर आकर पूर्णिमा और संक्रांति को सत्यव्रत सत्यनारायण व्रत का जीवनपर्यंत आयोजन करता रहा, फलतः सांसारिक सुख भोगकर उसे मोक्ष प्राप्त हुआ। इसी प्रकार राजा तुङ्गध्वज ने वन में गोपगणों को श्री सत्यनारायण भगवान् का पूजन करते देखा, किंतु प्रभुता के मद में चूर राजा न तो पूजास्थल पर गया, न दूर से ही प्रणाम किया और न ही गोपगणों द्वारा दिया प्रसाद ग्रहण किया।
परिणाम यह हुआ कि राजा के पुत्र, धन-धान्य, अश्व-गजादि सब नष्ट हो गए। राजा को अकस्मात् यह आभास हुआ कि विपत्ति का कारण सत्यदेव भगवान् का निरादर है। उसे बहुत पश्चात्ताप हुआ। वह तुरंत वन में गया। गोपगणों के साथ सत्यनारायण भगवान् की पूजा की। फिर उसने उनसे ही प्रसाद ग्रहण किया तथा घर आ गया। उसने देखा कि विपत्ति टल गई और उसकी सारी संपत्ति तथा जन सुरक्षित हो गए। राजा प्रसन्नता से भर गया और सत्यव्रत के आचरण में रत हो गया तथा अपना सर्वस्व भगवान् को अर्पित कर दिया।