इसलामी कैलेंडर का नौवाँ महीना रोजा रमजान का महीना होता है। यह एक पवित्र महीना होता है, जिसमें तीसों दिन मुसलमान धर्मावलंबी व्रत रखते हैं, जिन्हें रोजे के नाम से जाना जाता है। इसलाम धर्म के आरंभ से ही मुसलमानों के लिए रोजे आध्यात्मिक, मानसिक व आत्मिक शोधन के आवश्यक कर्तव्य के रूप में तय किए गए हैं।
रमजान
मुख्य रूप से नजर डालें तो इसका वास्तविक उद्देश्य रोजेदारों को भूख और प्यास का एहसास कराने, जरूरतमंदों की मदद करने और खुदा की सच्ची इबादत की ओर उन्मुख करना होता है। रोजे दरअसल मुसलमानों की सामूहिक फौजी ट्रेनिंग की तरह होते हैं, जिसमें दुनिया भर के लाखों-करोड़ों मुसलमान सुबह से लेकर शाम तक नियत समय पर खुदा की इबादत में डूबे रहते हैं और भूखे-प्यासे रहकर अपने कर्तव्य-कर्म में निमग्न रहते हैं।
यह ट्रेनिंग तीस दिन तक लगातार चलती रहती है। इसमें रोजा रखनेवाले का संपर्क सीधे खुदा से होता है। वह जो भी अच्छा-बुरा, नेकी-बदी, दान-धर्म करता है, उस पर अल्लाह की सीधी नजर होती है, अतः उसमें धर्म-भीरुता, नेकी, ईमानदारी, निर्धनों के प्रति दया, खुदा के प्रति प्रेम आदि की भावनाएँ उत्पन्न होती हैं। रोजे का असल मकसद भी यही होता है कि रोजेदार केवल भूखा रहने और पाँच वक्त की नमाज पढ़ने को ही रोजे का असल मकसद न समझ ले, बल्कि इस एक महीने के दौरान वह अपने सभी गुनाहों से तौबा करते हुए जीवन भर के लिए इन गुणों को अपने जीवन में उतार ले।

इसलाम में कहा गया है कि इस पवित्र महीने में स्वर्ग के दरवाजे खुल जाते हैं और शैतान कैद हो जाता है। रमजान के इस महीने में रोजे रखनेवालों को बेशुमार पुण्य मिलता है और इन दिनों में जो मुसलमान श्रद्धा और भक्ति से खुदा की उपासना करता है, उसके गुनाह ऐसे ही धुल जाते हैं, जैसे साफ पानी से गंदा कपड़ा धुल जाता है। यह कहा जाता है कि रोजे रखनेवाले मुसलमान कयामत के दिन अल्लाह के नेक बंदों की शक्ल में पहचाने जाएँगे। इसलिए कहा गया है कि रमजान का महीना इनसानी शैतानियत को काबू में करने का बेहतरीन वक्त होता है।
साल भर जो शख्स पाप और गुनाह में डूबा रहता है, उसके मन में भी रमजान के पवित्र दिनों में यही खयाल बना रहता है कि उसे अपने किए कामों का खुदा को जवाब देना है। यानी रमजान का माह गुनाहों को न कि केवल नसीहत देकर इनसान को अपने सदाचार पर गौर करने का मौका देता है। सात साल की उम्र के बाद हर मुसलमान के लिए रोजा रखना फर्ज है। अरबी भाषा में रमजान का अर्थ है-झुलसा देना। रोजे इनसान के जीवन को तपाकर सोना बना देते हैं। इनसे इनसान को आत्मिक बल, आत्मसंयम, धैर्य धारण की कला आती है।
रमजान के नियम
इसलाम के अनुसार, इनसान को रोजे के दौरान भूख-प्यास का मतलब समझ में आता है, उसके दिल में यतीम, बेसहारा, गरीब और लाचार लोगों की मदद की भावना पैदा होती है। रोजे के दौरान अपनी हैसियत के अनुसार गरीबों की मदद को अनिवार्य बनाया गया है। इसे ‘जकात’, खैरात या दान कहा जाता है। कमजोर वर्ग की सहायता किए बगैर रोजे का पूरा पुण्य हासिल नहीं होता। धनी-संपन्न लोग रोजे के दौरान अपनी हैसियत के अनुसार ‘जकात’ करते हैं।
इस तरह समाज के कमजोरों को भी मुख्यधारा में शामिल होने का मौका मिलता है, सामाजिक व मानवीय संवेदनाओं का ताना-बाना सुदृढ़ होता है और परस्पर भाईचारा बढ़ता है। रमजान के पहले दिन सूर्योदय से पहले सभी मुसलमान नहा-धोकर स्वच्छ वस्त्र धारण करते हैं और प्रातः की नमाज से पहले अल्पाहार से निबट लेते हैं। इस अल्पाहार को अरबी भाषा में ‘सहरी’ कहा जाता है। इसके बाद सूर्यास्त तक वे कुछ खा-पी नहीं सकते। यहाँ तक कि थूक भी नहीं गटक सकते।
शाम का भोजन वे सूर्यास्त के समय होनेवाली ‘मगरिब’ की नमाज के बाद ही करते हैं, जिसे ‘इफ्तार’ कहा जाता है। इसके बाद रात भर बेखौफ होकर भोजन ग्रहण किया जा सकता है। रोजे के दौरान दिन में शारीरिक व मानसिक शुद्धि होना व रखना परमावश्यक है। असल में इसका मकसद ही व्यक्ति का मानसिक विकास करना है, इसलिए रोजेदार की कोशिश होती है कि वह अधिक-से-अधिक स्वयं को खुदा से जोड़े और उसके बताए मार्ग पर चले।
इस प्रकार रोजे का यह क्रम रमजान माह के तीसों दिन जारी रहता है। जो रोजेदार श्रद्धा, भक्ति के साथ और शारीरिक व मानसिक शुद्धि से रोजे का पालन करता है, वह तमाम तामसिक वृत्तियों से दूर होकर खुदा के करीब हो जाता है। रमजान में हर दिन अदा की जानेवाली पाँच वक्त की नमाज (फजर, जोहर, असर, मगरिब और ईशा) के अलावा इस माह में तरावीह की विशेष नमाज पढ़ी जाती है। इस महीने की 27वीं रात्रि को पवित्र रात माना जाता है। इबादत की इस महान् रात को ‘शबे-रूद्र’ कहते हैं।

इस रात को की जानेवाली पूजा-अर्चना का दर्जा हजार रातों की इबादत के बराबर माना गया है। तरावीह और शबे-कद्र की पूरी रात की जानेवाली स्तुति के दौरान कुरआन पढ़ा-सुना जाता है। कुरआन लोगों को ऐसी दृष्टि प्रदान करता है, जो हर प्रकार के पक्षपात रहित समाज का निर्माण करे। इसलाम के अनुसार रोजे की मुख्य शिक्षा है-माँ-बाप, रिश्तेदारों, यतीमों, मुसाफिरों, गरीबों के साथ अच्छा व्यवहार करें।
अपने धन में से जरूरतमंदों की सहायता करें। बुराई को भलाई से दूर करें, इससे दुश्मनी का अंत हो जाता है। सब्र करना और अपराधी-पापी को क्षमा करना। नाहक खून- खराब न करें, लोगों को घरों से बेघर न करें, कमजोर स्त्री-पुरुषों और बच्चों के लिए अत्याचारियों से लड़ें। नाजायज तरीके से दूसरे की धन-संपत्ति न हड़पें। गुस्से को दबाएँ और लोगों को माफ करने की आदत डालें।
वादा पूरा करें, समझौता करने के बाद उससे न फिरें। दूसरों के घरों में जबरदस्ती न घुसें। मर्द परायी स्त्री से और स्त्री पराये मर्द से नजरें बचाकर रखे। बेशर्मी से बचें। गंदी सोहबतों से बचें। संयम, धैर्य और शारीरिक व मानसिक शुचिता से रहें।
रोजा रमजान में बरती जाने वाली सावधानियां
रोजे के दौरान कुछ सावधानियों और पाबंदियों का पालन भी करना पड़ता है। इनमें से कुछ प्रमुख निम्नानुसार हैं-
- अगर कोई रोजेदार कोई चीज जानबूझकर खा ले तो उसका रोजा भंग हो जाता है, लेकिन अगर भूल से कोई चीज खा-पी ले तो रोजा भंग नहीं होता।
- रोजे के दौरान बदन पर दवा के तौर पर इंजेक्शन लगवाए जा सकते हैं।
- बूढ़े, बीमार, अत्यधिक कमजोर लोग और गर्भवती स्त्रियाँ आदि रोजे छोड़ सकते हैं, लेकिन इसके बदले उन्हें रमजान के दौरान यथाशक्ति दान-धर्म अवश्य करना चाहिए।
- रोजे के दौरान स्त्री-पुरुष को शारीरिक संपर्क से दूर रहना चाहिए।
- रोजे के दौरान झूठ बोलने से भी रोजा भंग हो जाता है।
- धूल-मिट्टी आदि उड़कर हलक में उतर जाए तो रोजा भंग हो जाता है।
- रोजे के दौरान बीड़ी, सिगरेट और तंबाकू आदि की भी मनाही है।
- रोजे के दौरान सिर को पानी से भिगोकर या पानी में डुबोकर स्नान करने से भी रोजा भंग हो जाता है- अगर यह स्नान, जानबूझकर किया जाए तो।
- रोजे के दौरान आँख में दवा डालना, सुरमा लगाना, नसवार खींचना, खून निकलवाना, खुशबूदार जड़ी-बूटी सूँघना, दाँत निकलवाना आदि मना है।
यदि रोजों को अनजाने में भंग किया जाए तो वे माफी योग्य हो सकते हैं, लेकिन जानबूझकर रोजा भंग करने पर सजा और उपचार के दौर पर भंग रोजे की ‘कजा’ और ‘कफ्फारा’ भुगतने पड़ते हैं।

कजा और कफ्फारे की सजा
अगर रमजान के महीने में कोई शख्स रोजा भंग करने का काम जानबूझकर करे और वह यह जानता हो कि इन कामों के करने से रोजा भंग हो जाता है, तो उस पर ‘कजा’ व ‘कफ्फारा’ दोनों लागू हो जाते हैं।
रोजे का कफ्फारा
जिस शख्स पर रोजा भंग करने के लिए सजा के तौर पर ‘कफ्फारा’ लागू है, उसे चाहिए कि वह एक गुलाम को आजाद करे या रमजान के अलावा अन्य किसी माह में साठ दिन के रोजे रखे या साठ फकीरों को पेट भरकर खाना खिलाए या हर फकीर को गेहूँ और जौ का दान दे। कहा गया है कि जिस इनसान पर ‘कफ्फारा’ वाजिब हो और वह कई साल तक न दे तो कफ्फारे में कोई बढ़ोतरी नहीं होगी; लेकिन फिर भी उससे अपेक्षा यह होती है कि वह कफ्फारा देने में कोताही न बरते, उसे फौरन करे।

रोजे की कजा
कुछ हालतें ऐसी हैं, जिनमें इनसान पर सिर्फ रोजे की ‘कजा’ वाजिब होती है। ऐसी कुछ सूरतें हैं-
- रोजे को भंग करने का काम तो न किया हो, लेकिन रोजे का नियम न करे या लोगों को दिखाने के लिए रोजा रखे या रोजा न रखने का इरादा करे।
- अगर कोई कहे कि सुबह नहीं हुई है और इनसान उसके कथनानुसार कोई काम करे, जो रोजे को भंग करता हो और बाद में पता चले कि सुबह हो गई थी।
- अगर रोजेदार शरीर को ठंडा करने के लिए या बेवजह कुल्ला करे, यानी पानी मुँह में घुमाए और बेइख्तियार पानी पेट में चला जाए तो कजा लागू हो जाती है। लेकिन इनसान भूल जाए कि रोजे से है और पानी पी ले या कुल्ला करे और पानी बेइख्तियार पेट में चला जाए तो उस पर कजा लागू नहीं होती।
- जो रोजे किसी नशे की वजह से छूटे हों, उनकी कजा जरूरी है और इसमें कोई फर्क नहीं है कि जिस चीज के खाने से वह मदहोश हुआ हो, उसने वह चीज, चाहे इलाज की गरज से खाई हो या किसी और वजह से।
- अगर कोई व्यक्ति बीमारी की वजह से रमजान के रोजे न रखे और उसकी बीमारी अगले रमजान तक चलती रहे तो जो रोजे उसने न रखे हों, उनकी कजा उस पर लागू नहीं होती, बल्कि उसे चाहिए कि हर दिन रोजे के बदले गेहूँ या जौ या ऐसा ही कोई अनाज फकीर को दान करे।
- रोजे की कजा के तौर पर रोजों के बदले रोजे रखे जाते हैं, जो रमजान के आइंदा महीने में भी रखे जा सकते हैं। फिर भी बीमारी आदि की वजह से कजा के रोजे न रखे जा सकते हों तो फकीरों को अनाज दान करके इन्हें उपचारित किया जा सकता है।
- किसी के बदले कोई दूसरा शख्स भी कजा के रोजे रख सकता है।
- यदि माता-पिता को कजा के रोजे रखने हों और उसके पहले ही उनका निधन हो जाए तो बड़े बेटे को उनके कजा के रोजे रखने चाहिए।
- सफर या यात्रा के दौरान रोजे रखे जा सकते हैं, लेकिन रोजों से बचने के लिए सफर करने से कजा लागू हो जाती है।
- यदि रमजान के दिनों में कोई इनसान पागल या दीवाना हो जाए तो उस पर रोजों की कजा लागू नहीं होती।

इस प्रकार रोजों के द्वारा खुदा इनसान को महान् बनने की ओर अग्रसर करना चाहता है। रमजान का महीना केवल रोजा रखने का नाम नहीं है। यह महीना अपने अंदर झाँकने का भी है। एक हदीस में आता है कि अगर किसी ने बुरी आदतें नहीं छोड़ीं तो अल्लाह को इसकी परवाह नहीं कि उसने खाना-पीना छोड़ दिया। इस नजरिए से सोहबत को बड़ी अहमियत दी गई है। काम से किरदार तक हरेक चीज की परीक्षा। कुव्वते-इरादों की और आपके कामों की भी। अल्लाह को सुस्ती, लापरवाही, काहिली, फर्ज से गफलत और गैर-जिम्मेदाराना रवैया पसंद नहीं।
अल्लाह के रसूल ने इरशाद फरमाया है कि रोजा ढाल है, इसलिए तू न बुरी बात कर धरती पर इनसान अधिकतर जो भी काम करता है, अपने फायदे के लिए करता है। लेकिन रोजे के जरिए वह अपने साथ-साथ समाज और देश के फायदे के लिए भी काम कर सकता है। हदीस में कहा गया है। आदमी का हर अमल खुदा के जहाँ कुछ-न-कुछ बढ़ता है।
एक नेकी दस गुनी से सात सौ गुनी तक फलती-फूलती है, मगर अल्लाहताला फरमाते हैं कि रोजा इससे अलग है। वह खास मेरे लिए है और मैं उसका जितना चाहता हूँ, बदला देता हूँ।अर्थात् श्रद्धा और भक्ति से संपन्न रोजों से खुदा प्रसन्न होता है और रोजेदार पर जी भरकर प्रसन्नता लुटाता है। जब यही प्रसन्नता सैकड़ों- हजारों रोजेदारों पर बरसती है तो पूरी कायनात खुशियों से भर जाती है और रोजों का असल मकसद पूरा हो जाता है।