पूस की रात मुंशी प्रेमचंद द्वारा लिखित एक श्रेष्ठ कहानी है। हिन्दी कहानीकार मुंशी प्रेमचन्द जी ने पूस की रात कहानी को सन् 1930 में माधुरी में प्रकाशित कराया था। तात्पर्य यह है कि तब तक प्रेमचन्द का यथार्थवादी दृष्टिकोण पूर्ण रूप में स्पष्ट हो गया था। इससे यथार्थवादिता की प्रेरणा तीव्रतम हुई है।
यह कहानी एक ग्रामीण किसान हल्कू की है जोकि खेत में कृषि करके अपना तथा अपनी पत्नी का जीवन यापन करता है। हल्कू के कुत्ते का नाम जबरा है। हल्कू तथा जबरा ठंड की रात में किसी तरह बचने की कोशिश करते हैं। यही इस पूस की रात कहानी में दर्शाया गया है।

पूस की रात कहानी को एक प्रकार से काल्पनिक रूप में या प्रतीक रूप में मानकर उस समाज की आर्थिक, सामाजिक स्थिति को समझा जा सकता है। जिस समाज की प्रेमचन्द ने अपनी जादू की कलम से लिखकर कल्पना की थी।
पूस की रात कहानी सारांश
हल्कू खेती द्वारा जो भी आमदनी करता था उसमें से कुछ रुपया घर गृहस्थी तथा बाकी कर्ज चुकाने में चला जाता था क्योंकि हल्कू पर जमींदार का कर्ज था इस बार सर्दियों में मजदूरी करके उसने तीन रुपए इकट्ठा किए थे। ताकि वह इस ₹3 से उसे पूछ की रात में ठंड से बचने के लिए कंबल खरीद सके।
परंतु वह रुपया उसे महाजन को देना पड़ा। इस बात पर हल्कू की पत्नी हल्कू पर बहुत नाराज होती है और इसका विरोध भी करती है। वह कहती है कि अगर यह रुपया महाजन को दे दोगे तो कंबल किस प्रकार खरीदा जाएगा परंतु हल्कू के समझाने पर वह समझ जाती है क्योंकि महाजन हल्कू को अपशब्द बोलता है हल्कू की पत्नी इस बात पर बहुत दुखी होती है लेकिन उसके पास ₹3 देने के सिवाय और कोई दूसरा उपाय भी नहीं होता है।
हल्कू अपने खेत की रखवाली करने के लिए जाता है उसका कुत्ता जबरा भी उसके साथ होता है। पूस की रात में ठंडी ठंडी हवा चल रही थी, आसमान में तारे टिमटिमा रहे थे। ठंड इतनी ज्यादा थी कि हल्कू का शरीर ठंड के कारण कांप रहा था। हल्कू का कुत्ता जबरा उसे भी बहुत ठंड लग रही थी। दोनों ठंड रात में एक साथ समय बिताने के लिए आपस में बातें करने लगे। हल्कू अपने कुत्ते से कह रहा था कि आग से ठंडी कम हो जाएगी।
हल्कू ने पेड़ों के सूखे पत्तों को इकट्ठा करके आग जलाई दोनों आग से तापने लगे जिससे दोनों को ठंड से राहत मिली जब तक अलाव जलता रहा दोनों आग के सामने बैठे तापते रहे। जब आग बुझ जाती है तो हल्कू अपनी पुरानी साल ओढ़ कर लेट जाता है क्योंकि आग के तापने से हल्कू का शरीर थोड़ा गर्म हो जाता है।


हल्कू का कुत्ता जबरा भी हल्कू के पास ही लेट जाता है वह अपने कुत्ते से चपक कर सो जाता है इधर उसके खेत में नीलगाय घुस जाती हैं। जबरा को इस बात की आहट होती है और वह भौकना चालू कर देता है। हल्कू भी जग जाता है लेकिन ठंड के कारण उसकी उठने की हिम्मत नहीं होती है। वह सोचता है कि जबरा नीलगाय को फसल में घुसने नहीं देगा, वह नींद के आगोश में चला जाता है।
जबरा बेचारा अकेला भोक-भौक कर नील गायों को भगा रहा था लेकिन उसका भौकना काम नहीं आया क्योंकि जब सुबह हुई उसकी पत्नी मुन्नी खेत में आकर देखती है। पूरी फसल नील गाय खा जाती है जबरा बेचारा चुपचाप खेत के बगल में बैठा होता है। मुन्नी दुखी होती है कि अब दोबारा मजदूरी करनी पड़ेगी। उधर हल्कू जब यह देखता है कि उसकी फसल पूरी तरह से नष्ट हो गई है तो उसे इस बात से खुशी होती है कि अब उसे पूस की रात में जागकर फसल नहीं देखनी पड़ेगी।
पूस की रात कहानी के उद्देश्य
यह कहानी इस बात को दर्शाती है कि जमीदारों के शोषण से एक किसान इतनी ठंड में कंबल भी नहीं खरीद सकता किसान जमीदारों के शोषण के शिकार थे यही इस कहानी में दर्शाया गया है। प्रेमचन्द ने अन्त में हल्कू को किसान से गांव का मजदूर बनाकर स्वयं अपनी दृष्टि में और ग्राम्य समाज की नजर में तथा हल्कू की नज़र में उसका पतन हो हाता है। प्रेमचन्द ने दिखाया है कि अपने पतन से भी हल्कू प्रसन्न है।’

पूस की रात कहानी को पढ़कर भारतीय समाज की स्थिति का निर्धारण होता है। अतीत और वर्तमान में समाज में भी ऐसा कौन सा यौद्धा वीर होगा जो अपनी पराजय पर स्वयं हंसकर अपना जीवन व्यतीत कर ले। यह खूबी तो मुंशी जी के जीवन से भी सिद्ध नहीं होती है। जितना जीवन स्वयं का कांटो भरा उनके साहित्य के माध्यम द्वारा बताया जाता है। प्रेमचन्द एक भी स्थान पर अपने पूरे जीवन काल में स्थित नजर नहीं दिखलायी पड़ते हैं। ईश्वर ने कहा है कि गरीब के ऊपर हंसना अपने जीवन के उपर रोने जैसा है। न जाने कब समय करवट बदल ले ।
कुछ तो गुल खिलके बाहरे जां फिजा दिखला गये।
हसरत उन गुंचों पै हैं जो बिन खिले मुर्झा गये।।
प्रेमचंद का जीवन परिचय
1880
लमही वाराणसी उत्तर प्रदेश
08 अक्टूबर 1930
मुंशी अजायबराय
आनन्दी देवी
1918 से 1936 तक के कालखंड को ‘प्रेमचंद युग’ कहा जाता है।
प्रेमचंद हिन्दी और उर्दू के सर्वाधिक लोकप्रिय उपन्यासकार, कहानीकार एवं विचारक थे। उनमें से अधिकांश हिंदी तथा उर्दू दोनों भाषाओं में प्रकाशित हुईं। उन्होंने अपने दौर की सभी प्रमुख उर्दू और हिंदी पत्रिकाओं जमाना, सरस्वती, माधुरी, मर्यादा, चाँद, सुधा आदि में लिखा। उन्होंने हिंदी समाचार पत्र जागरण तथा साहित्यिक पत्रिका हंस का संपादन और प्रकाशन भी किया। इसके लिए उन्होंने सरस्वती प्रेस खरीदा जो बाद में घाटे में रहा और बंद करना पड़ा। प्रेमचंद फिल्मों की पटकथा लिखने मुंबई आए और लगभग तीन वर्ष तक रहे। जीवन के अंतिम दिनों तक वे साहित्य सृजन में लगे रहे। महाजनी सभ्यता उनका अंतिम निबंध, साहित्य का उद्देश्य अंतिम व्याख्यान, कफन अंतिम कहानी, गोदान अंतिम पूर्ण उपन्यास तथा मंगलसूत्र अंतिम अपूर्ण उपन्यास माना जाता है।
1906 से 1936 के बीच लिखा गया प्रेमचंद का साहित्य इन तीस वर्षों का सामाजिक सांस्कृतिक दस्तावेज है। इसमें उस दौर के समाजसुधार आंदोलनों, स्वाधीनता संग्राम तथा प्रगतिवादी आंदोलनों के सामाजिक प्रभावों का स्पष्ट चित्रण है। उनमें दहेज, अनमेल विवाह, पराधीनता, लगान, छूआछूत, जाति भेद, विधवा विवाह, आधुनिकता, स्त्री-पुरुष समानता, आदि उस दौर की सभी प्रमुख समस्याओं का चित्रण मिलता है। आदर्शोन्मुख यथार्थवाद उनके साहित्य की मुख्य विशेषता है। हिंदी कहानी तथा उपन्यास के क्षेत्र में 1918 से 1936 तक के कालखंड को ‘प्रेमचंद युग’ कहा जाता है।
मुंशी जी ने डेढ़ दर्जन से ज़्यादा तक उपन्यास लिखे। प्रेमचंद के कई प्रमुख उपन्यास हैं, जो उनके साहित्यिक योगदान के महत्वपूर्ण हिस्से हैं। ये कुछ प्रमुख प्रेमचंद के उपन्यास हैं:
- रागदरबारी - यह उनका प्रसिद्ध उपन्यास है जिसमें समाज के विभिन्न वर्गों की रागदरबारी और उसके परिणामों का विवेचन किया गया है।
- गबन - इस उपन्यास में प्रेमचंद ने गांव की जीवनशैली और किसानों की समस्याओं को दर्शाया है।
- निर्गुण्ठ - इस उपन्यास में वे भक्ति आंदोलन के समय के धार्मिक और सामाजिक परिपेक्ष्य में किसी व्यक्ति की कथा का परिचय कराते हैं।
- कर्मभूमि - इस उपन्यास में प्रेमचंद ने एक युवक के जीवन की संघर्षों और आत्मसमर्पण की कहानी सुनाई है।
- ईदगाह - यह उपन्यास एक बच्चे के जीवन की कथा को बयां करता है और सामाजिक असमानता को छूने का प्रयास करता है
- कफ़न - इस उपन्यास में प्रेमचंद ने गरीबी और सामाजिक समस्याओं के प्रति अपनी चिंता को दर्शाया है।
- गोदान - यह उपन्यास प्रेमचंद के अंतिम उपन्यास में से एक है और इसमें भारतीय समाज की कई मुद्दों को व्यापक रूप से छूने का प्रयास किया गया है।
इनमें से कुछ उपन्यास प्रेमचंद के साहित्य में अत्यधिक प्रसिद्ध हैं और उन्होंने इन्हें भारतीय साहित्य के महत्वपूर्ण कृतियों में शामिल किया है।
- संग्राम
- कर्बला
- प्रेम की वेदी