पूँजीवादी अर्थव्यवस्था प्रतियोगिता के आधार पर संगठित व्यवस्था है। इस व्यवस्था पर कीमत संयन्त्र का सम्पूर्ण नियन्त्रण होता है। अर्थव्यवस्था में उत्पादन के सम्पूर्ण साधनों पर व्यक्तियों अथवा व्यक्तिगत संस्थाओं का स्वामित्व होता है। इन साधनों का उपयोग वे निजी लाभ को अधिकाधिक बढ़ाने के लिए स्वतन्त्रतापूर्वक करते हैं। इस व्यवस्था में वस्तुओं के उत्पादन, उनके उपभोग, उनके मूल्य निर्धारण तथा साधनों के बँटवारे से सम्बद्ध सभी महत्वपूर्ण निर्णय निजी या व्यक्तिगत लाभ को दृष्टि में रखकर ही किए जाते हैं।
पूंजीवादी अर्थव्यवस्था
इस व्यवस्था का प्रारम्भ 18वीं शताब्दी में इंग्लैण्ड में हुई औद्योगिक क्रान्ति के परिणामस्वरूप हुआ। तत्पश्चात् यह विश्व के सभी देशों में फैल गया। पूँजीवाद को कुछ प्रमुख अर्थशास्त्रियों एवं विद्वानों ने अपने-अपने दृष्टिकोण से परिभाषित किया है। इनमें कुछ प्रमुख परिभाषाएँ निम्नांकित हैं-
राज्य द्वारा कुछ प्रतिबन्धों को छोड़कर प्रत्येक व्यक्ति अपनी इच्छानुसार कार्य करने के लिए लगभग स्वतन्त्र है। समाज की आर्थिक क्रियाओं का निर्धारण विभिन्न प्रकार के व्यक्तियों तथा व्यक्तियों के समूहों द्वारा होता है। प्रत्येक उत्पत्ति के साधन का स्वामी अपनी इच्छानुसार साधनों का उपयोग कर सकता है तथा अपनी आय को इच्छानुसार ही ब्यय कर सकता है।
बेन्हम के शब्दों में
पूँजीवाद आर्थिक संगठन की ऐसी प्रणाली है जिसमें व्यक्तिगत सम्पत्ति पायी जाती है है 3 और मनुष्यकृत तथा प्राकृतिक पूँजी का उपयोग निजी लाभ के लिए किया जाता है।
लूक्स तथा हूट्स के अनुसार
पूँजीवाद की एक सरल और अच्छी परिभाषा डी. एम. राइट द्वारा दी गई है। यह परिभाषा इस प्रकार है-” पूँजीवाद एक ऐसी प्रणाली है जिसमें औसत तौर पर आर्थिक जीवन का अधिकांश भाग तथा विशेषतया विशुद्ध नया विनियोग निजी इकाइयों द्वारा सक्रिय पर्याप्त स्वतन्त्र प्रतियोगिता को दशाओं में किया जाता है और ऐसा प्रायः लाभ की प्रेरणा के अन्तर्गत किया जाता है।
पूँजीवादी अर्थव्यवस्था की विशेषताएँ
पूँजीवादी अर्थव्यवस्था की निम्नांकित विशेषताएँ हैं-
- सम्पत्ति पर निजी स्वामित्व – पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में उत्पत्ति के साधनों पर व्यक्तिगत स्वामित्व तथा व्यक्तिगत नियन्त्रण होता है। वस्तुओं को प्राप्त करने, रखने, उपयोग करने तथा बेचने का अधिकार ही व्यक्तिगत सम्पत्ति कहलाता है। इस अर्थव्यवस्था में व्यक्तिगत सम्पत्ति तीन कार्य करती है-
- व्यक्तिगत सम्पत्ति इस बात का निश्चय करती है कि उत्पत्ति के सम्बन्ध में निर्णय करने का अधिकार किसको होगा अर्थात् जिस व्यक्ति के पास सम्पत्ति होती है, वही इस बात का निर्धारण करता है कि उत्पादन किस वस्तु का, कितने परिमाण में और किस स्थान पर होगा ?
- व्यक्तिगत सम्पत्ति से बचत व धन के संचय को प्रोत्साहन मिलता है।
- व्यक्तिगत सम्पत्ति से धन नष्ट होने से बचता है। जब व्यक्ति को इस बात का विश्वास हो जाता है कि उसका सुख उसकी सम्पत्ति पर निर्भर करेगा तो वह उसकी यथाशक्ति सुरक्षा करता है और नष्ट होने से बचाता है।
- आर्थिक स्वतन्त्रता – पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में प्रत्येक नागरिक को अपनी व्यक्तिगत पूँजी और उससे प्राप्त आय को अपनी इच्छानुसार व्यय करने की स्वतन्त्रता रहती है। इस स्वतन्त्रता से सम्बन्धित पूँजीवाद की तीन विशेषताएँ होती हैं-
- व्यावसायिक स्वतन्त्रता,
- प्रसंविदा सम्बन्धी स्वतन्त्रता
- उपभोक्ताओं के लिए चुनाव की स्वतन्त्रता।
- लाभ की प्रवृत्ति – पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली में उत्पादन की मात्रा, उत्पादन और रोजगार का अंश राष्ट्रीय आवश्यकता पर आधारित न होकर लाभ के अंश पर निर्भर होता है जिसके फलस्वरूप राष्ट्रीय उत्पादन और राष्ट्रीय आवश्यकताओं के बीच उचित समन्वय नहीं हो पाता और अत्युत्पादन अथवा न्यूनोत्पादन की समस्याएँ उत्पन्न होती रहती हैं।
- उत्तराधिकार – पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में व्यक्तिगत सम्पत्ति के स्वामित्व से सम्बन्धित उत्तराधिकार का अधिकार भी एक आवश्यक गुण होता है। सम्पत्ति को हस्तान्तरित करने के अन्तर्गत दो अधिकारों का समावेश होता है-
- प्रत्येक सम्पत्ति के स्वामी को अधिकार होता है कि वह स्वतन्त्रतापूर्वक इस बात का निश्चय कर ले कि उसकी मृत्यु के बाद उसकी सम्पत्ति का अधिकारी कौन होगा?
- यदि किसी व्यक्ति का सम्पत्ति के अधिकारी से निश्चित सम्बन्ध है तो उसको सम्पत्ति उत्तराधिकार स्वरूप मिल जायेगी। उत्तराधिकार का अधिकार व्यक्तियों को बचत करने तथा पूँजी के संचय करने की प्रेरणा देता है क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति अपने परिवार तथा बाल-बच्चों के लिए अधिक-से-अधिक सुख पैदा करना चाहता है।
- सामाजिक वर्ग-भेद – पूँजीवादी उत्पादन व्यवस्था में समाज धनी और निर्धन अथवा शोषित और शोषक अथवा मिल-मालिक और श्रमिक दो वर्गों में विभाजित होता है तथा उत्तरोत्तर इन दोनों वर्गों के बीच की खाई चौड़ी होती चली जाती है। इस प्रकार पूँजीवादी अर्थव्यवस्था समाज में वर्ग-भेद और वर्ग-संघर्ष को जन्म देती है जिसकी प्रतिक्रिया के फलस्वरूप इन वर्गों में संघर्ष होता है।
- समन्वय-रहित उत्पादन प्रणाली – पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में उत्पत्ति के विनियोग के विषय में किसी केन्द्रीय संस्था का निर्देशन नहीं होता तथा व्यवसायों का कोई भी विचारयुक्त निगमन नहीं होता है। इसमें सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था स्वयंचालित होती है।
- प्रतिस्पर्द्धा – व्यक्तिगत आर्थिक स्वतन्त्रता से सम्बन्धित प्रतिस्पर्द्धा भी पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली की आधारभूत विशेषता है। प्रतियोगिता के लिए दो आवश्यक शर्तें- साधनों की पूर्ण गतिशीलता तथा किसी व्यक्ति विशेष द्वारा वस्तु के मूल्य को प्रभावित करने की अक्षमता – पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली में पाई जाती हैं। प्रतियोगिता के कई लाभ होते हैं-
- प्रत्येक व्यक्ति को वस्तुओं को खरीदने और चुनने की स्वतन्त्रता होती है।
- उत्पादन क्षेत्र में कुशलता में वृद्धि हो जाती है। यह स्मरण रहे कि पूँजीवादी व्यवस्था में भी पूर्ण प्रतियोगिता नहीं पाई जाती है। साधारणतया अपूर्ण प्रतियोगिता ही देखने को मिलती है।
- विनाशशील प्रवृत्ति – पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में समाज धनी और निर्धन दो वर्गों में विभाजित हो जाता है तथा छोटे-छोटे उत्पादक भी प्रतियोगिता में असफल होकर श्रमिक वर्ग में बदल जाते हैं। पूँजीपतियों की अधिकाधिक लाभ कमाने की प्रवृत्ति उन्हें श्रमिकों का शोषण करने को प्रेरित करती है। अतएव उत्पादक वर्ग श्रमिकों को न्यूनतम जीवन निर्वाह मजदूरी देकर उनसे अधिकाधिक कार्य कराते हैं जिसके फलस्वरूप अत्युत्पाद अथवा न्यूनोत्पादन की समस्याएँ समाज में पैदा हो जाती हैं। अन्त में पूँजीपतियों का सामना करने हेतु श्रमिक एक संघ में संगठित हो जाते हैं और इस वर्ग-संघर्ष में श्रमिकों की ही विजय होती है। इस प्रकार अन्ततः पूँजीवाद समाजवाद या साम्यवाद में परिवर्तित हो जाता है।
- मूल्य तन्त्र – पूँजीवाद में मूल्य तन्त्र एक निर्देशन यन्त्र के समान है जो उत्पादक, उपभोग, वितरण एवं व्यवसाय का प्रत्येक क्षेत्र में मार्गदर्शन करता है। आर्थिक स्वातन्त्र्य के रहते हुए भी व्यक्ति को अपने निर्णय मूल्य परिवर्तनों के आधार पर ही लेने होते हैं।
- साहसी को महत्व – पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली में साहसी के जोखिम उठाने का विशेष महत्व होता है क्योंकि उत्पत्ति के साधनों का एकत्रीकरण, निर्देशन तथा काम में लगाये रखने का कार्य वही करता है। पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली सदैव ही माँग के अनुमान पर चलती है तथा पूरे प्रयत्नों के बाद भी माँग के अनुमानों में अनिश्चितता यथावत् बनी रहती है। इसीलिए इसमें जोखिम का कार्य बहुत महत्वपूर्ण है। इस तरह स्पष्टतया साहसी के बिना इस उत्पत्ति प्रणाली का संचालन सम्भव नहीं है।
पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के लाभ
पूँजीवादी व्यवस्था के मुख्य लाभ अथवा गुण निम्नांकित हैं-
- रहन-सहन के स्तर में वृद्धि – पूँजीवादी व्यवस्था में एक ओर तो पूर्व की अपेक्षा प्रचुर मात्रा में वस्तुओं का उपभोग होने लगा है, दूसरी ओर नई-नई किस्म की विभिन्न नवीन वस्तुओं का उत्पादन प्रारम्भ हो गया है। फलतः पूँजीवादी प्रणाली में उत्पादन की मात्रा में हुई वृद्धि से नागरिकों के जीवन स्तर में बहुत उन्नति हो गई है।
- लचीलापन – पूँजीवाद के समर्थकों के अनुसार यह प्रणाली लोचपूर्ण है तथा इसने परिवर्तित परिस्थितियों के साथ-साथ अपनी उत्पादन विधि, प्रबन्ध और कार्य प्रणाली को परिवर्तित कर लिया है। पूँजीवाद का लचीलापन पूँजीवाद की प्रत्येक संस्था व इस संगठन के तरीके में है। व्यक्तिगत सम्पत्ति, उत्तराधिकार का अधिकार, आर्थिक स्वतन्त्रता और प्रतियोगिता आदि प्रत्येक संस्था में समय-समय पर परिवर्तन होता रहता है।
- उत्पादन में वृद्धि – पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली ने वस्तुओं और सेवाओं की पूर्ति में गुणात्मक और परिमाणात्मक दोनों ही दृष्टि से पर्याप्त वृद्धि की है। पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली में वस्तु की संख्या और विविधता में अत्यधिक वृद्धि हुई है, श्रमिकों की उत्पादन शक्ति में वृद्धि हुई है तथा पूर्वापेक्षाकृत बहुत-सी नवीन किस्मों की वस्तुओं का उत्पादन आरम्भ हुआ है।
- स्वतन्त्रता – अन्य व्यस्थाओं की अपेक्षा पूँजीवादी व्यवस्था में नागरिक को अधिक राजनीतिक एवं आर्थिक स्वतन्त्रता रहती है। आर्थिक क्षेत्र में व्यक्तिगत सम्पत्ति का स्वामित्व उसके राजनीतिक अधिकारों को भी सार्थक बना देता है। इस व्यवस्था में प्रत्येक व्यक्ति को इच्छानुसार व्यवसाय करने, वस्तुओं का उपभोग करने, अपनी सम्पत्ति का उपभोग करने एवं हस्तान्तरित करने की पूर्ण स्वतन्त्रता होती है।
- स्वयं-चालकता – पूँजीवादी पद्धति में आर्थिक क्रियाओं का निर्धारण, उपभोग और वितरण सम्बन्धी निर्णय मूल्य तन्त्र पर निर्भर करते हैं। प्रतियोगिता और मूल्य तन्त्र के कारण अर्थव्यवस्था के संचालन में किसी प्रकार के निर्देशन एवं परामर्श की आवश्यकता नहीं रह पाती है। इस स्वचालिता के कारण पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में कोई त्रुटि होने की सम्भावना नहीं रहती है और यदि होती भी है तो वह स्वयं शीघ्र समाप्त हो जाती है।
- मितव्ययिता – पूँजीवादी व्यवस्था में उत्पत्ति के साधनों का अधिक मितव्ययितापूर्ण उपयोग किया जाता है तथा सभी प्रकार के अपव्यय को समाप्त कर दिया जाता है। लाभ की प्रवृत्ति से प्रेरित होकर पूँजीपति स्वयं मितव्ययिता का मार्ग अपनाता है तथा उत्पत्ति के प्रत्येक साधन का अधिक कुशलता एवं मितव्ययी उपयोग करता है जिसके फलस्वरूप सम्पूर्ण समाज को प्रत्यक्ष एवं परोक्ष लाभ प्राप्त होते हैं।
- न्यायशीलता – पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के समर्थकों का कहना है कि यह प्रणाली न्यायशील है क्योंकि इसमें प्राकृतिक नियमों के अनुसार अधिक योग्य व्यक्ति ही प्रतियोगिता में ठहर पाता है। पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली में व्यक्तिगत रुचि, उत्तरदायित्व और हित के लाभ प्राप्त होते हैं जिसके फलस्वरूप साहसी को अपनी कुशलता दिखाने का अवसर मिलता है।
- जनतन्त्रीय प्रकृति – पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली में उपभोक्ता सम्प्रभु होता है तथा उत्पादक को उसी की इच्छा, रुच्चि, माँग के अनुसार उत्पादन कार्य करना पड़ता है। उपभोक्ता द्वारा उपभोग्य वस्तुओं का निर्णय मूल्य तन्त्र द्वारा होता है। इस प्रकार उपभोक्ता की सार्वभौमिकता इस उत्पादन प्रणाली को जनतन्त्रीय स्वरूप प्रदान करती है।
पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के दोष
पूंजीवादी अर्थव्यवस्था की खामियां अधिक गंभीर हैं। यह प्रणाली बेरोजगारी, अतिउत्पादन, अल्पउत्पादन, सामाजिक वर्ग संघर्ष और व्यापार चक्र जैसे सामाजिक-आर्थिक दोषों के उद्भव के लिए मूल्य का स्रोत है। पूँजीवादी व्यवस्था के मुख्य दोष अग्रलिखित हैं-
- बेकारी का भय– पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली में उत्पत्ति माँग के पूर्व-अनुमान के अनुसार की की जाती है जिससे मन्दी व तेजीकाल आते रहते हैं। इसलिए जब भी उद्योग का उत्पादन कम हो जाता है, पूँजीपति मजदूरों को कम कर देता है जिससे बेकारी फैलती है इसके अतिरिक्त, पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली में उद्योगपति अपने लाभ को अधिकतम करने की दृष्टि से कारखानों में श्रमिकों के स्थान पर नयी-नयी मशीनें लगाता है क्योंकि श्रमिकों की मजदूरी की तुलना में इन मशीनों पर कम व्यय होता है तथा श्रमिकों की अपेक्षा इन मशीनों से उत्पादन गुण और परिणाम में भी अच्छा होता है। अतएव यन्त्रीकरण भी बेकारी फैलाने का मुख्य कारण है।
- आय व धन के वितरण में असमानता – पूँजीवादी अर्थव्यवस्था समाज में आय व धन के वितरण की असमानताओं को जन्म देती है। इस व्यवस्था के अन्तर्गत व्यक्ति सम्पत्ति और उत्तराधिकारी नियमों के फलस्वरूप देश के उत्पत्ति के साधनों पर मुट्ठीभर आदमियों का स्वामित्व हो जाता है तथा शेष जनसंख्या श्रमिक वर्ग में परिणित हो जाती है। लाभ की प्रवृत्ति से प्रेरित होकर उद्योगपति और व्यवसायी श्रमिकों को न्यूनतम वेतन देकर उनसे अधिकाधिक परिश्रम कराते हैं। इस प्रकार पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली में समाज शोषक और शोषित दो वर्गों में विभाजित हो जाता है तथा समय के साथ-साथ शोषक वर्ग धनी और शोषित वर्ग निर्धन होता चला जाता है।
- आर्थिक अस्थिरता – पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली में उत्पादक अपने व्यक्तिगत लाभ को सामने रखकर उत्पादन कार्य करता है। अतः राष्ट्रीय उत्पादन और राष्ट्रीय आवश्यकता के बीच किसी भी प्रकार का समायोजन सम्भव नहीं होता। यदि कभी अत्युत्पादन की समस्या दिखाई देती है तो कभी न्यूनोत्पादन का भय बना रहता है। परिणामस्वरूप इस प्रणाली में मूल्यों के उतार-चढ़ाव बहुत अधिक और बहुत शीघ्र ही होते रहते हैं।
- सामाजिक परजीविता – पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में उत्तराधिकार नियम के प्रचलन के कारण समाज में बहुत-से व्यक्ति उत्तराधिकार में अतुल सम्पत्ति प्राप्त करते हैं, इस सम्पत्ति को पुनः उत्पादन कार्य में लगाकर उसमें वृद्धि करते हैं और इस तरह बिना शारीरिक या मानसिक परिश्रम किए ही ये व्यक्ति अनार्जित आय प्राप्त करने में सफल हो जाते हैं। यह अनार्जित आय समाज में विषमता को जन्म देती है।
- कृत्रिम आर्थिक अभाव – पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली में पूँजीपति का यह ध्येय होता है कि बाजार में वस्तुओं की पूर्ति सीमित करके उनके मूल्यों में वृद्धि कर दे ताकि उसे अधिक लाभ प्राप्त हो सके। इस तरह पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में पूँजीपति सामान्य जनता के हित को स्वयं के लाभहित पर बलिदान करके कृत्रिम आर्थिक अभाव की स्थिति उत्पन्न करते हैं।
- अपव्ययिता– पूँजीवादी व्यवस्था में अपव्ययिता की बुराई तीन कारणों से पाई जाती है-
- पूँजीवादी व्यवस्था में मूल्य तन्त्र मूल्य निर्देशक होता है। अतः केवल उन्हीं वस्तुओं का उत्पादन किया जाता है जिसके मूल्य ऊँचे होते हैं (स्पष्टतया ऐसी वस्तुओं का उपभोग केवल धनी वर्ग के ही द्वारा होता है)। अतएव इस व्यवस्था के अधिकांश व्यक्तियों द्वारा उपभोग में लाई जाने वाली अनिवार्य आवश्यकता की वस्तुओं के उत्पादन में साधनों का बहुत कम उपयोग होता है।
- पूँजीवादी उत्पादन पद्धति में प्रतियोगिता एक मौलिक विशेषता है और यह प्रतियोगिता ही अपव्ययिता की जड़ है। प्रत्येक उत्पादक बाजार में आधिपत्य स्थापित करने के ध्येय से विज्ञापन और विपणन कौशल पर भारी व्यय करता है।
- इसके अतिरिक्त, इस उत्पादन प्रणाली में साधनों का बँटवारा एक आदर्शतम अनुपात में नहीं होता। उत्पादक अपने स्वयं के लाभ को दृष्टिगत करके शराब आदि मादक वस्तुओं का उत्पादन करता है जिनकी मौद्रिक लागत तो कम होती है लेकिन इन वस्तुओं की सामाजिक लागत बहुत अधिक होती है।
- समन्वय का अभाव – पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली में इस प्रकार की कोई केन्द्रीय संस्था नहीं होती जो कि विभिन्न आर्थिक निर्णयों में समन्वय उत्पन्न कर सके। प्रो. लर्नर ने पूँजीवादी अर्थव्यवस्था की तुलना ऐसी मोटरगाड़ी से की है जिसमें चालक नहीं होता तथा प्रत्येक यात्री अपने अनुमानानुसार नियन्त्रक चक्र को घुमाता रहता है जिससे आपस में संघर्ष होने का भय सदैव बना रहता है।
- पूँजीवाद की माँग व पूर्ति का नियत त्रुटिपूर्ण है – कार्ल मार्क्स और एंजिल के मतानुसार पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली में स्वतन्त्र प्रतियोगिता केवल नाममात्र की होती है क्योंकि एक ओर उत्पादकों में एकाधिकारी संघों में संगठित होने की प्रवृत्ति पाई जाती है और दूसरी ओर श्रमिक वर्ग शोषण से तंग आकर श्रम संघों में संगठित हो जाने को बाध्य हो जाते हैं। इस प्रकार पूँजीवादियों द्वारा उपस्थित माँग-पूर्ति का नियम व्यावहारिक नहीं होता है।
- कला की अवनति– रॉबिन्स के अनुसार, पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली में प्रत्येक वस्तु का महत्व द्रव्य से आँका जाता है। इसलिए कला और साहित्य के विकास को कोई प्रोत्साहन नहीं दिया जाता।
- मानवीय आदर्शों की महत्वहीनता – पूँजीवाद में प्रत्येक व्यक्ति अधिकाधिक धन अर्जित करने में संलग्न रहता है जिससे परहित, निष्ठा व सहयोग के स्थान पर स्वार्थ को अधिक महत्व दिया जाता है। पूर्ण प्रतियोगिता का अभाव, उत्पादक द्वारा विज्ञापन व धोखेबाजी का प्रयोग तथा उपभोक्ताओं की अज्ञानता व शक्तिहीनता सभी मिलकर उपभोक्ता को पूँजीपति का दास बना देते हैं। इस प्रणाली में व्यावसायिक स्वतन्त्रता नाममात्र की ही होती है तथा रोजगार का अंश और रोजगार का स्वरूप पूँजीपति द्वारा ही निर्धारित किया जाता है।
- व्यक्तिगत सम्पत्ति का दोष – पूँजीवादी व्यक्ति सम्पत्ति तथा उत्तराधिकार की रक्षा करता है। अतः व्यक्तिगत सम्पत्ति और उत्तराधिकारी नियमों ने योग्यतम जीवन के सिद्धान्त तोड़ दिए हैं क्योंकि पूँजीवादी व्यवस्था के अन्तर्गत निर्धन व्यक्तियों को साधनहीन होने के कारण अपनी योग्यता का लाभ उठाने का कोई अवसर नहीं मिल पाता है।
- एकाधिकारी संघों की स्थापना – पूँजीवादी उत्पादन पद्धति में प्रायः एकाधिकारी संघों के स्थापित होने की प्रवृत्ति पाई जाती है। इन एकाधिकारी संघों की स्थापना से केवल पूँजीवादी प्रणाली के दोष बढ़ते ही नहीं वरन् इसके लाभ भी कम होते जाते हैं।