नवरात्र व्रत – किसी भी प्रकार की साधना के लिए शक्ति का होना जरूरी है और शक्ति की साधना का पथ अत्यंत गूढ़ और रहस्यपूर्ण है और नवरात्र कुछ और नहीं, शक्ति व साधना का ही पर्व है। हम नवरात्र में व्रत इसलिए करते हैं, ताकि अपने भीतर की शक्ति, संयम तथा नियम से सुरक्षित हो सके; उनका अनावश्यक अपव्यय न हो।
नवरात्र क्या है?
संपूर्ण सृष्टि में जो ऊर्जा का प्रवाह है, उसे अपने भीतर रखने के लिए स्वयं की पात्रता तथा इस पात्र की स्वच्छता भी जरूरी है। शक्ति को भीतर प्रवेश कराने का ही पर्व है नवरात्र। भारतीय धर्म में व्रत का विशेष महत्त्व है। वस्तुतः व्रत केवल धर्म से नहीं, अपितु हमारे आचरण से भी जुड़े हुए हैं। अलग-अलग व्रतों के माध्यम से हम समूची भारतीयता, धार्मिक संस्कृति और अध्यात्म के मर्म को समझ सकते हैं। हमारे पुराण कई व्रतों को मानव सृष्टि के लिए कल्याणकारी मानते हैं। इस पर रखे जानेवाले व्रतों का सर्वाधिक महत्त्व माना गया है। नवरात्र व्रत पर माँ जगदंबा के नौ रूपों की पूजा की जाती है।

नवरात्र में आदिशक्ति की साधना और व्रत से साधकों को हर प्रकार के कष्टों से मुक्ति मिलती है। यह प्रश्न विशेष रूप से उठाया जाता है कि माँ के रूपों की साधना रात्रि में ही क्यों होती है? इसके पीछे एक रहस्य है, हम रात का समय सोने के लिए व्यतीत करते हैं। हम तमोगुण की मोह-निद्रा में कई काल तक सोते आए हैं। नवरात्र का संदेश यही होता है कि तमोगुण की मोह-निद्रा से मुक्त होने का अब समय आ गया है। धार्मिक ग्रंथों में भी रात्रि जागरण का विशेष विधान देखने को मिलता है।
रात्रि में जागने का अर्थ है-निद्रा को छिन्न-भिन्न कर देना या अज्ञानरूपी अंधकार को नष्ट करने के लिए जागकर माँ दुर्गा की आराधना करना। भगवती दुर्गा के अनेक रूप हैं। उनके विभिन्न रूपों के अनुसार उनकी उपासना पद्धतियाँ भी भिन्न-भिन्न होती हैं। सामान्यतः देवी के स्वरूप को तीन श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है। वे हैं- सात्त्विक, राजसिक और तामसिक। नवरात्र व्रत का समय तीनों ही प्रकृति की देवियों की उपासना के लिए अति उत्तम कहा जा सकता है। लेकिन इसके नौ दिनों को शक्ति के नौ स्वरूपों में विभाजित किया गया है और इन दिनों शक्ति के नौ रूप हैं-
- शैलपुत्री
- ब्रह्मचारिणी
- चंद्रघंटा
- कूष्मांडा
- स्कंदमाता
- कात्यायनी
- कालरात्रि
- महागौरी
- सिद्धिदात्री

1 वर्ष में दो नवरात्र
वर्ष में दो नवरात्र होते हैं- शारदीय और वासंती। इन दोनों ही नवरात्रों का काफी महत्त्व है। दोनों नवरात्र व्रत संपातों में पड़ते हैं। ‘संपात’ का अर्थ है- स्थूल रूप से दिन-रात का बराबर होना या पृथ्वी का सूर्य से सम दूरी पर होना। इसी कारण इन दोनों ऋतुओं में ऊर्जा उत्पन्न होती है। इसकी सही पहचान और विनियोग के लिए दोनों के शुक्ल पक्ष की प्रारंभिक नौ तिथियों में माँ दुर्गा के नौ स्वरूपों की पूजा-अर्चना और व्रत का विधान है।
दैवी शक्ति से ओत-प्रोत होने के साथ-साथ भारत एक कृषिप्रधान देश भी है। यहाँ पर देश की भूमि को ‘मातृभूमि’ कहा जाता है। इस कृषिप्रधान देश में जब फसल बदल रही होती है तो ‘देवी पर्व’ मनाते हैं। एक वर्ष में चार नवरात्र मनाई जाती हैं, जिनमें दो गुप्त और दो जगत् के सामने मनाई जाती हैं। वर्ष के चार नवरात्र शक्ति संप्रदाय के अनुसार-
- चैत्र शुक्ल प्रतिपदा – वासंतिक नवरात्र।
- आषाढ़ शुक्ल प्रतिपदा।
- माघ शुक्ल प्रतिपदा।
- अश्विनी शुक्ल प्रतिपदा – शारदीय नवरात्र।
आषाढ़ के माघ मास के नवरात्र गुप्त माने जाते हैं और चैत्र अश्विनी नवरात्र प्रत्यक्ष होते हैं। इन प्रत्यक्ष नवरात्रों में साधारण हो या विशेष, सभी समूह माँ देवीजी की साधना करते हैं। देखा जाए तो ये चार मास ऋतु परिवर्तन के हैं। इस प्रकार सामान्य जन वर्ष में दो बार नवरात्र प्रमुख रूप से मनाते हैं। नवरात्रों में भगवती माँ देवीजी की उनके नौ विशेष अवतारों के रूप में पूजा की जाती है। यह पर्व भक्ति भाव से लगातार नौ रात्रियों में देवीजी की पूजा-अर्चना और वंदना का पर्व है और दशमी तिथि का विशेष महत्त्व है।

नवरात्र व्रत का महत्व
शारदीय नवरात्र हों या चैत्र पक्षीय नवरात्र हों, इन नौ पवित्र दिनों में शक्ति की पूजा का विशेष विधान है। नवरात्रों की प्रथम तीन रात्रियों में आदिशक्ति दुर्गा की अगली तीन रात्रियों में महालक्ष्मी जी की और अंतिम तीन रात्रियों में देवी सरस्वती जी की साधना करते हैं। मन एकाग्र हो, अंतःकरण शुद्ध हो, आत्मानुशासन, आत्मसंयम, सच्चा ऐश्वर्य, आंतरिक समृद्धि हो; वास्तव में धार्मिक दृष्टि से यह आत्मशुद्धि का पर्व है। इन दिनों की पूजा-पाठ-अर्चना आदि से जीवन में सुख, शांति व समृद्धि आती है।
नवरात्र व्रत भौतिक तथा नैतिक शक्तियों को समान रूप से जाग्रत् करनेवाला महोत्सव है। ‘मनुस्मृति‘ में लिखा है कि जहाँ नारी की पूजा होती है, वहाँ देवताओं का वास होता है। नारी शक्ति को कोई भी व्यक्ति अस्वीकार तथा तिरस्कार भी नहीं कर सकता। देवी भागवत में उनके विराट् स्वरूप का वर्णन इस प्रकार है। उनके विराट् स्वरूप के प्रदर्शन के समय आकाश उनका मस्तक, विश्व उनका हृदय, पृथ्वी जंघा, वेद वाणी और वायु प्राण थी। चंद्रमा एवं सूर्य उनके नेत्र थे, कान दिशाएँ थीं, नाभि पाताल, वक्ष ज्योतिष्चक्र, मुख जनलोक तथा पलकें दिन-रात थीं।
ऐसा अद्भुत स्वरूप तो देवी का ही हो सकता है, जो विश्व के कण-कण में व्याप्त हैं। वास्तव में यह शक्ति ही विश्व को जन्म देती है, उसका पालन करती है और विनाश भी इसी शक्ति के कारण होता है। ब्रह्मा को सृष्टि का जन्म देनेवाला, विष्णु को पालन करनेवाला तथा रुद्र (शिव) को संहार करनेवाला कहा जाता है। भले ही जन्म, पालन और संहार के लिए तीन देव हैं, मगर ये तीनों देव भी अपनी-अपनी शक्ति के साथ ही जाने और माने जाते हैं। ब्रह्मा के साथ महासरस्वती, विष्णु के साथ महालक्ष्मी और रुद्र (शिव) के साथ महाकाली का नाम शक्ति के रूप में जुड़ा है।
वैदिक साहित्य में ‘शक्ति सृजति ब्रह्मांडम्’ कहकर जिसकी ओर संकेत किया गया है, वह दुर्गा देवी ही हैं। यही देवी ऋग्वेद में अपना परिचय इन शब्दों में देती हैं, “मैं स्वयं समग्र जगत् की ईश्वरी हूँ। मैं ही धनदात्री हूँ। उपास्य तत्त्वों में मैं ही श्रेष्ठ हूँ। मैं ही एकमात्र उपास्य हूँ। मैं ही संपूर्ण जगत् में हूँ। मुझे तुम सर्वरूप में देख रहे हो, मगर पहचान नहीं रहे हो।” यह पर्व नैसर्गिक पवित्रता और बाल स्वभाव के आह्वान का पर्व है।

इसका आह्वान जितनी सुरुचि, सादगी या प्रकृति के साथ संतुलन रखते हुए किया जाए और जितने बाल-सुलभ भाव व सरल, निश्चल मन से किया जाए, उतना ही माँ दुर्गा प्रसन्न होती हैं। नवरात्र व्रत का संदेश हर वर्ष नवसृष्टि का संदेश लेकर आता है तथा चैत्र नवरात्र व्रत से ही नए वर्ष का प्रारंभ माना जाता है।
नवरात्र प्रथा का आरंभ
भारतीय पुराणों में दुर्गा, अर्थात् शक्ति के अवतरण से संबंधित कई कथाएँ प्रचलित हैं। इन्हीं में से एक प्रमुख कथा के अनुसार शुंभ-निशुंभ नामक महाबली असुरों ने संपूर्ण जगत् में अपने कुकर्मों से त्राहि-त्राहि मचा रखी थी। इन असुरों के आतंक से भयभीत होकर सभी देवता देवी पार्वती के पास पहुँचे और अपनी व्यथा का बयान किया। देवताओं की पीड़ा को जानकर देवी पार्वती के शरीर से एक कुमारी कन्या दिव्य रूप में प्रकट हुई, जिसने शुंभ-निशुंभ का वध करके पाप का नाश कर दिया। इस प्रकार जब संसार में पुनः धर्म की लहरें उठने लगीं, तब देवताओं ने नवरात्र व्रत रखे तथा माँ दुर्गा का श्रद्धापूर्वक पूजन किया। बस तभी से नवरात्र प्रथा का आरंभ हुआ।
नवरात्र व्रत कथा
दुर्गा-पूजन की पद्धति का स्पष्ट वर्णन ग्यारहवीं शताब्दी में मिलता है। बंग नरेश हरिदेव वर्मा के एक मंत्री भवदेव भट्ट ने अपने पूर्ववर्ती व्यक्तियों का उल्लेख करते हुए दुर्गा पूजा की पद्धति को लिपिबद्ध किया। इसके पश्चात् चौदहवीं शताब्दी में श्री वाचस्पति मित्र ने दुर्गा- पूजन का विशद वर्णन किया है। बंगाली पंडित रघुनंदन ने काफी प्रयासों के पश्चात् दुर्गा-उपासना की जो पद्धति तैयार की, वह बहुत लोकप्रिय हुई।

सोलहवीं शताब्दी में राजा कंसनारायण बहुत बड़े दुर्गा-उपासक हुए थे। उन्होंने अपने राजपुरोहित रमेश शास्त्री के सहयोग से दुर्गा पूजा का अत्यंत विराट् व भव्य आयोजन किया था। बंगाल के राजशाही प्रांत के ताहिरपुर नगर में आयोजित इस भव्य समारोह में राजा कंसनारायण ने लगभग साढ़े आठ लाख रुपए खर्च किए। इसी के बाद बंगाल के हिंदुओं में दुर्गा-पूजा एक अनिवार्य उत्सव बन गया।
नवरात्र व्रत से लाभ
यह हमारे जीवन में अलौकिक शक्ति का संचार करते हैं, जिसमें तन और मन दोनों को निर्मल करने की प्रक्रिया की जाती है। पहले उपवास द्वारा तन को नियंत्रित किया जाता है, इसके बाद साधना द्वारा मन को वश में किया जाता है। अतः नवरात्रे शारीरिक व अलौकिक, दोनों प्रकार की उन्नति का मार्ग प्रशस्त करते हैं। नवरात्रों को साधना के लिए उत्तम समय कहा गया है। शास्त्रों में नवरात्रों की बहुत महिमा बताई गई है। इस दौरान की गई देवी की आराधना भक्त पर असीम कृपा की वर्षा करती है।
कलियुग में समस्त कामनाओं को सिद्ध करने के लिए दुर्गा पूजा ही श्रेष्ठ मानी गई है। वैसे तो प्रतिदिन ‘दुर्गा सप्तशती’ का पाठ करने से मन को शांति और शक्ति मिलती है, लेकिन नवरात्र व्रत के विशेष अवसर पर विधि-विधान से माँ दुर्गा की पूजा करने से विशेष फल मिलता है। इस अवसर पर विधिवत् पूजन कैसे किया जाए, यह जानना जरूरी है। वेद-पुराणों के अनुसार, दुर्गा माता की शक्ति के असंख्य स्वरूप हैं, क्योंकि यह ब्रह्म व प्रकृति स्वरूप हैं। जिस प्रकार ब्रह्मा, विष्णु, महेश, रजो, सतो, तमो गुण प्रधान हैं।

उसी प्रकार माता शक्ति में तीनों गुण प्रधान हैं। महाकाली रौद्र, महालक्ष्मी सतो और महासरस्वती रजो गुण प्रधान हैं। महाकाली दुष्टों का संहार करती हैं, महालक्ष्मी संसार का पालन-पोषण और महासरस्वती जगत् की उत्पत्ति व ज्ञान का संचार करती हैं। भारतवर्ष में तकरीबन शतप्रतिशत लोग माँ दुर्गा पर अटूट विश्वास रखते हैं और माँ को उनके 108 नामावली में से किसी एक नाम से चुनकर उसका विधिपूर्वक पूजन करते हैं।