श्रीधर पाठक

श्रीधर पाठक का नाम हिंदी साहित्य में एक प्रमुख कवि और लेखक के रूप में उल्लेख किया जाता है। उन्होंने अपने लेखनी के माध्यम से एक महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त किया है। श्री धर पाठक की कविताएँ और निबंध हिंदी साहित्य के कई विभागों में प्रकाशित होते हैं। वे अपनी रचनाओं में समाज के मुद्दे, सामाजिक समस्याएँ, और मानव जीवन के विभिन्न पहलुओं पर चर्चा करते हैं।

श्री धर पाठक के रचनाओं में कविताएँ, कहानियाँ, और निबंध शामिल हैं, और उन्होंने भारतीय समाज की विविधता और सांस्कृतिक धरोहर के प्रति अपनी गहरी समझ को अपने लेखन में प्रकट किया है। उनकी कविताओं का एक मुख्य विषय भारतीय जीवन की वास्तविकता और लोगों के अनुभव है।

श्रीधर पाठक जीवन परिचय

 
श्रीधर पाठक
लेखक
जन्म

11 जनवरी 1858

जन्म स्थान

जौंवरी आगरा उत्तर प्रदेश

मृत्यू

13 सितंबर 1928

पिता

पंडित लीलाधर

कवि प्राकृतिक सौंदर्य, स्वदेश प्रेम तथा समाजसुधार की भावनाओ के हिन्दी कवि थे। वे प्रकृतिप्रेमी, सरल, उदार, नम्र, सहृदय, स्वच्छंद तथा विनोदी थे। वे हिंदी साहित्य सम्मेलन के पाँचवें अधिवेशन (1915, लखनऊ) के सभापति हुए और ‘कविभूषण’ की उपाधि से विभूषित भी। हिंदी, संस्कृत और अंग्रेजी पर उनका समान अधिकार था।

शिक्षा – दीक्षा

एक सुसंस्कृत परिवार में उत्पन्न होने के कारण आरंभ से ही इनकी रूचि विद्यार्जन में थी। छोटी अवस्था में ही इन्होंने घर पर संस्कृत और फ़ारसी का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया। तदुपरांत औपचारिक रूप से विद्यालयी शिक्षा लेते हुए ये हिन्दी प्रवेशिका (1875) और ‘अंग्रेजी मिडिल’ (1879) परीक्षाओं में सर्वप्रथम रहे। फिर ‘ऐंट्रेंस परीक्षा’ (1880-81) में भी प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुए। उन दिनों भारत में ऐंट्रेंस तक की शिक्षा पर्याप्त उच्च मानी जाती थी।

कार्य

सर्वप्रथम उन्होंने जनगणना आयुक्त रूप में कलकत्ता के कार्यालय में कार्य किया। उन दिनों ब्रिटिश सरकार के अधिकांश केन्द्रीय कार्यालय कलकत्ता में ही थे। जनगणना के संदर्भ में इन्हें भारत के कई नगरों में जाना पड़ा। इसी दौरान इन्होंने विभिन्न पर्वतीय प्रदेशों की यात्रा की तथा इन्हें प्रकृति-सौंदर्य का निकट से अवलोकन करने का अवसर मिला। कालान्तर में अन्य अनेक कार्यालयों में भी कार्य किया, जिनमें रेलवे, पब्लिक वर्क्स तथा सिंचाई-विभाग आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। धीरे-धीरे ये अधीक्षक के पद पर पहुँचे। 1914 में सेवा-निवृत्त होने के पश्चात ये स्थायी रूप से प्रयाग में रहने लगे। यहीं सन 1928 में इनका देहावसान हो गया।

रचनाएँ
पद्य साहित्य
  1. मनोविनोद
  2. धन विनय
  3. वनाष्टक
  4. गुनवंत हेमंत
  5. देहरादून
  6. गोखले गुनाष्टक


अन्य रचनाए
  1. बाल भूगोल
  2. जगत सचाई सार
  3. एकांतवासी योगी
  4. काश्मीरसुषमा
  5. आराध्य शोकांजलि
  6. जार्ज वंदना
  7. भक्ति विभा
  8. श्री गोखले प्रशस्ति
  9. श्रीगोपिकागीत
  10. भारतगीत
  11. तिलस्माती मुँदरी
  12. विभिन्न स्फुट


काव्यगत विशेषताएँ

पाठक जी मौलिक उद्भावनाओं के कवि हैं। विषय और शिल्प दोनों ही दृष्टियों से आधुनिक हिंदी काव्य को एक नया मोड़ देने के कारण उन्हें स्वच्छंद भावधारा का सच्चा प्रवर्तक ठहराया गया। उन्होंने काव्य को अपेक्षाकृत अधिक स्वच्छंद, वैयक्तिक और यथार्थभरी दृष्टि से देखने का सफल प्रयास किया जिससे आगामी छायावादी भावभूमि को बड़ा बल मिला और पूर्वागत परंपरित रूढ़ काव्यढाँचा टूट गया। सफल काव्यानुवादों द्वारा उन्होंने हिंदी को नई दृष्टि देने का प्रयत्न किया। यद्यपि उन्होंने ब्रजभाषा और खड़ीबोली दोनों में रचनाएँ कीं तथापि समर्थक वे खड़ीबोली के ही थे।

×