सन 1885
सतारा महाराष्ट्र
21 अगस्त 1981
बालकृष्ण कालेलकर
1965 में साहित्य अकादमी पुरस्कार : जीवन-व्यवस्था नामक गुजराती निबन्ध-संग्रह के लिये 1971 में उन्हें साहित्य अकादमी का फेलो बनाया गया।
काका कालेलकर सच्चे बुद्धिजीवी व्यक्ति थे। लिखना सदा से उनका व्यसन रहा। सार्वजनिक कार्य की अनिश्चितता और व्यस्तताओं के बावजूद यदि उन्होंने बीस से ऊपर ग्रंथों की रचना कर डाली इस पर किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। इनमें से कम-से-कम 5-6 उन्होंने मूल रूप से हिंदी में लिखी। यहाँ इस बात का उल्लेख भी अनुपयुक्त न होगा कि दो-चार को छोड़ बाकी ग्रंथों का अनुवाद स्वयं काका साहब ने किया, अतः मौलिक हो या अनूदित वह काका साहब की ही भाषा शैली का परिचायक हैं। हिंदी में यात्रा-साहित्य का अभी तक अभाव रहा है। इस कमी को काका साहब ने बहुत हदतक पूरा किया। उनकी अधिकांश पुस्तकें और लेख यात्रा के वर्णन अथवा लोक-जीवन के अनुभवों के आधार पर लिख गए। हिंदी, हिंदुस्तानी के संबंध में भी उन्होंने कई लेख लिखे।
इनका परिवार मूल रूप से कर्नाटक के करवार जिले का रहने वाला था और उनकी मातृभाषा कोंकणी थी। लेकिन सालों से गुजरात में बस जाने के कारण गुजराती भाषा पर उनका बहुत अच्छा अधिकार था और वे गुजराती के प्रख्यात लेखक समझे जाते थे।
जिन नेताओं ने राष्ट्रभाषा प्रचार के कार्य में विशेष दिलचस्पी ली और अपना समय अधिकतर इसी काम को दिया, उनमें प्रमुख काकासाहब कालेलकर का नाम आता है। उन्होंने राष्ट्रभाषा के प्रचार को राष्ट्रीय कार्यक्रम के अंतर्गत माना है। दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के अधिवेशन में (1938) भाषण देते हुए उन्होंने कहा था, हमारा राष्ट्रभाषा प्रचार एक राष्ट्रीय कार्यक्रम है।
उन्होंने पहले स्वयं हिंदी सीखी और फिर कई वर्षतक दक्षिण में सम्मेलन की ओर से प्रचार-कार्य किया। अपनी सूझ-बूझ, विलक्षणता और व्यापक अध्ययन के कारण उनकी गणना प्रमुख अध्यापकों और व्यवस्थापकों में होने लगी। हिंदी-प्रचार के कार्य में जहाँ कहीं कोई दोष दिखाई देते अथवा किन्हीं कारणों से उसकी प्रगति रुक जाती, गांधी जी काका कालेलकर को जाँच के लिए वहीं भेजते। इस प्रकार के नाज़ुक काम काका कालेलकर ने सदा सफलता से किए।