1478 ई•
सीही, रुनकता दिल्ली
रामदास बैरागी
1580 ई•
सूरदास हिन्दी के भक्तिकाल के महान कवि थे। हिन्दी साहित्य में भगवान श्रीकृष्ण के अनन्य उपासक और ब्रजभाषा के श्रेष्ठ कवि महात्मा सूरदास हिंदी साहित्य के सूर्य माने जाते हैं।
सूरदास के पिता, रामदास बैरागी प्रसिद्ध गायक थे। प्रारंभ में सूरदास आगरा के समीप गऊघाट पर रहते थे। वहीं उनकी भेंट श्री वल्लभाचार्य से हुई और वे उनके शिष्य बन गए। वल्लभाचार्य ने उनको पुष्टिमार्ग में दीक्षित करके कृष्णलीला के पद गाने का आदेश दिया।
सूरदास जन्म से अंधे थे या नहीं, इस संबंध में विद्वानों में मतभेद है।
सूरदास संस्कृतवार्ता मणिपाला, भाव-प्रकाश, निजवार्ता आदि ग्रंथों के आधार पर वे जन्म से अन्धे माने गए हैं। लेकिन राधा-कृष्ण के रूप सौन्दर्य का सजीव चित्रण, नाना रंगों का वर्णन, सूक्ष्म पर्यवेक्षणशीलता आदि गुणों के कारण अधिकतर वर्तमान विद्वान सूर को जन्मान्ध स्वीकार नहीं करते।
श्यामसुन्दर दास के अनुसार - "सूर वास्तव में जन्मांध नहीं थे, क्योंकि शृंगार तथा रंग-रुपादि का जो वर्णन उन्होंने किया है वैसा कोई जन्मान्ध नहीं कर सकता।"
हजारीप्रसाद द्विवेदी के अनुसार - "सूरसागर के कुछ पदों से यह ध्वनि अवश्य निकलती है कि सूरदास अपने को जन्म का अंधा और कर्म का अभागा कहते हैं, पर सब समय इसके अक्षरार्थ को ही प्रधान नहीं मानना चाहिए।"
जन्म स्थान में मतभेद -
जन्मतिथि में मतभेद -
सूरसागर सूरदास द्वारा रचित सबसे प्रसिद्द रचना है। जिसमे सूरदास के कृष्ण भक्ति से युक्त सवा लाख पदों का संग्रहण होने की बात कही जाती हैं। लेकिन वर्तमान समय में केवल सात से आठ हजार पद का अस्तित्व बचा हैं।
सूरदास के सूरसारावली में कुल 1107 छंद हैं। इस ग्रन्थ की रचना सूरदास ने 67 वर्ष की उम्र में की थी। यह सम्पूर्ण ग्रन्थ एक “वृहद् होली” गीत के रूप में रचित है।
साहित्यलहरी सूरदास की 118 पदों की एक लघुरचना हैं। इस ग्रन्थ की सबसे खास बात यह हैं इसके अंतिम पद में सूरदास ने अपने वंशवृक्ष के बारे में बताया हैं जिसके अनुसार सूरदास का नाम “सूरजदास” हैं और वह चंदबरदाई के वंशज हैं। चंदबरदाई वहीँ हैं जिन्होंने “पृथ्वीराज रासो” की रचना की थी। साहित्य-लहरी में श्रृंगार रस की प्रमुखता हैं।
नल-दमयन्ती सूरदास की कृष्ण भक्ति से अलग एक महाभारतकालीन नल और दमयन्ती की कहानी हैं। जिसमे युधिष्ठिर जब सब कुछ जुएँ में गंवाकर वनवास करते हैं तब नल और दमयन्ती की यह कहानी ऋषि द्वारा युधिष्ठिर को सुनाई जाती हैं।
ब्याहलो सूरदास का नल-दमयन्ती की तरह अप्राप्य ग्रन्थ हैं। जो कि उनके भक्ति रस से अलग हैं।