भारत में पंचायती राज का इतिहास क्या है? 30 कार्य

पंचायती राज व्यवस्था का अस्तित्व में भारत में शुरुआती दौर से ही रहा है। अलग-अलग समय में यह व्यवस्था अलग-अलग नामों से जानी जाती रही है। पंचायती राज व्यवस्था में ग्राम, तहसील, तालुका और ज़िला आते हैं। ब्रिटिश शासन काल में 1882 में तत्कालीन वायसराय लॉर्ड रिपन ने स्थानीय स्वायत्त शासन की स्थापना की कोशिश की थी, पर उसमें सफलता नहीं मिल सकी।

ब्रिटिश शासकों ने स्थानीय स्वायत्त संस्थाओं की स्थिति पर जांच करने और उसके सम्बन्ध में सिफारिश करने के लिए 1882 तथा 1907 में शाही आयोग का गठन किया। इस आयोग ने स्वायत्त संस्थाओं के विकास पर बल दिया, जिसके कारण 1920 में संयुक्त प्रान्त, असम, बंगाल, बिहार, मद्रास और पंजाब में पंचायतों की स्थापना के लिए कानून बनाये गये। स्वतंत्रता संग्राम के समय भी आजादी के लिए लड़ाई लड़ रहे नेता पंचायती राज की स्थापना की मांग करते रहे थे।

भारत में पंचायती राज

पंचायती राज के संवैधानिक प्रावधान

संविधान के अनुच्छेद 40 में राज्यों को पंचायतों के गठन का निर्देश दिया गया है। इसके साथ ही संविधान की 7वीं अनुसूची (राज्य सूची) की प्रविष्टि 5 में ग्राम पंचायतों को शामिल करके इसके सम्बन्ध में कानून बनाने का अधिकार राज्य को दिया गया है। 1993 में संविधान में 73वां संशोधन करके पंचायत राज संस्था को संवैधानिक मान्यता दे दी गई है और संविधान में भाग 9 को पुनः जोड़कर तथा इस भाग में 16 नये अनुच्छेदों (243 से 243-ण तक) और संविधान में 11वीं अनुसूची जोड़कर पंचायत के गठन, पंचायत के सदस्यों के चुनाव, सदस्यों के लिए आरक्षण तथा पंचायत के कार्यों के सम्बन्ध में व्यापक प्रावधान किये गये हैं।

भारत में पंचायती राज का प्रारंभ

महात्मा गांधी पंचायती राज के पक्षधर थे। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद उनके प्रभाव से पंचायती राज व्यवस्था पर विशेष बल दिया गया और इसके लिए केन्द्र में पंचायती राज एवं सामुदायिक विकास मंत्रालय की स्थापना की गई। एस.के. डे को इस विभाग का मंत्री बनाया गया। इसके बाद 2 अक्टूबर, 1952 को इस उद्देश्य के साथ सामुदायिक विकास कार्यक्रम प्रारम्भ किया गया। वो इसलिए ताकि सामान्य जनता को विकास प्रणाली से अधिक से अधिक जोड़ा जा सके।

इस कार्यक्रम के अधीन खण्ड को इकाई मानकर खण्ड के विकास के लिए सरकारी कर्मचारियों के साथ सामान्य जनता को विकास की प्रक्रिया से जोड़ने का प्रयास किया गया। पर इसमें कुछ खमियां रह गई। इसमें जनता को अधिकार नहीं दिया गया था। इस वजह से यह सरकारी अधिकारियों तक सीमित रह गया और असफल हो गया। बाद में 2 अक्टूबर, 1953 को राष्ट्रीय प्रसार सेवा को प्रारम्भ किया गया। पर यह भी असफल हो गया।

  1. बलवंत राय मेहता समिति
  2. अशोक मेहता समिति
  3. डॉ. पी. वी. के. राव समिति
  4. डॉ. एल. एम. सिंधवी समिति
  5. पी. के. थुगन समिति एवं तिहत्तरवां संविधान संशोधन
भारत में पंचायत

बलवंत राय मेहता समिति

सामुदायिक विकास कार्यक्रम तथा राष्ट्रीय प्रसार सेवा के असफल होने के बाद पंचायत राज व्यवस्था को मज़बूत बनाने की सिफारिश करने के लिए 1957 में बलवंत राय मेहता की अध्यक्षता में ग्रामोद्धार समिति का गठन किया गया। इस समिति में गांवों के समूहों के लिए प्रत्यक्षत रूप से निर्वाचित पंचायतों, खण्ड स्तर पर निर्वाचित तथा नामित सदस्यों वाली पंचायत समितियों और ज़िला स्तर पर ज़िला परिषद् गठित करने का सुझाव दिया गया। पंचायती राज व्यवस्था को मेहता समिति ने ‘लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण’ का नाम दिया। समिति ने ग्रामीण स्थानीय शासन के लिए त्रिस्तरीय व्यवस्था का सुझाव दिया, जो निम्न प्रकार से था-

  • ग्राम– ग्राम पंचायत
  • खंड– पंचायत समिति
  • जिला– जिला परिषद

मेहता समिति की सिफारिशों को 1 अप्रैल, 1958 को लागू किया गया। इस सिफारिश के आधार पर राजस्थान विधानसभा ने 2 सितंबर, 1959 को पंचायती राज अधिनियम पारित किया। इस अधिनियम के प्रावधानों के आधार पर 2 अक्टूबर, 1959 को राजस्थान के नागौर ज़िले में पंचायती राज का उद्घाटन किया गया।

बाद में 1959 में आन्ध्र प्रदेश, 1960 में असम, तमिलनाडु और कर्नाटक, 1962 में महाराष्ट्र, 1963 में गुजरात तथा 1964 में पश्चिम बंगाल में विधानसभाओं के द्वारा पंचायती राज अधिनियम पारित करके पंचायत राज व्यवस्था को प्रारम्भ किया गया।धीरे-धीरे यह व्यवस्था सभी राज्यों में लागू की गई। कुछ राज्यों ने त्रिस्तरीय प्रणाली को तो कुछ राज्यों ने द्विस्तरीय प्रणाली को अपनाया। पर यह व्यवस्था भारत में सफल नहीं हो पाया।

पंचायती राज व्यवस्था का इतिहास

अशोक मेहता समिति

जनता पार्टी के द्वारा अशोक मेहता समिति का गठन दिसम्बर, 1977 में अशोक मेहता की अध्यक्षता में किया गया। बलवंत राय मेहता समिति की सिफारिशों के आधार पर स्थापित पंचायती राज व्यवस्था में कई कमियां थीं। इन कमियों को दूर करने तथा सिफारिश करने के लिए अशोक मेहता समिति का गठन किया गया। अशोक मेहता समिति में 13 सदस्य थे। समिति ने 1978 में अपनी रिपोर्ट केन्द्र सरकार को सौंपी। इसमें पंचायती राज व्यवस्था का एक नया मॉडल प्रस्तुत किया गया था। समिति द्वारा दी गई रिपोर्ट में 132 सिफारिशें की गयी थीं, जिनमें ये प्रमुख थे-

  1. राज्य में विकेन्द्रीकरण का प्रथम स्तर ज़िला हो,
  2. जिला स्तर के नीचे मण्डल पंचायत का गठन किया जाए, जिसमें करीब 15000-20000 जनसंख्या एवं 10-15 गांव शामिल हों,
  3. ग्राम पंचायत तथा पंचायत समिति को समाप्त कर देना चाहिए,
  4. मण्डल अध्यक्ष का चुनाव प्रत्यक्ष तथा ज़िला परिषद के अध्यक्ष का चुनाव अप्रत्यक्ष हो,
  5. मण्डल पंचायत तथा परिषद का कार्यकाल 4 साल का हो,
  6. विकास योजनाओं को जिला परिषद के द्वारा तैयार किया जाए।

अशोक मेहता समिति की सिफारिशों में भी कई कमियां थीं। इसी वजह से इस समिति की सिफारिशों को अपर्याप्त माना गया और इसे स्वीकृत नहीं किया गया।

डॉ. पी. वी. के. राव समिति

1985 में डॉ. पी. वी. के. राव की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया गया। इस समिति को यह कार्य सौंपा गया कि वह ग्रामीण विकास तथा ग़रीबी को दूर करने के लिए प्रशासनिक व्यवस्था पर सिफारिश करे। इस समिति ने राज्य स्तर पर राज्य विकास परिषद्, ज़िला स्तर पर ज़िला परिषद्, मण्डल स्तर पर मण्डल पंचायत तथा गांव स्तर पर गांव सभा के गठन की सिफारिश की। इस समिति ने विभिन्न स्तरों पर अनुसूचित जाति तथा जनजाति एवं महिलाओं के लिए आरक्षण की भी सिफारिश की। पर इस समिति की सिफारिश को भी मान्यता नहीं दी गई।

डॉ. एल. एम. सिंधवी समिति

पंचायती राज संस्थाओं के कार्यों की समीक्षा करने तथा उसमें सुधार करने के सम्बन्ध में सिफारिश करने के लिए सिंधवी समिति का गठन किया गया। इस समिति ने ग्राम पंचायतों को सक्षम बनाने के लिए गांवों के पुनर्गठन की सिफारिश की तथा साथ में यह सुझाव भी दिया कि गांव पंचायतों को अधिक वित्तीय संसाधन उपलब्ध कराया जाए।

पी. के. थुगन समिति एवं तिहत्तरवां संविधान संशोधन

1988 में पी. के. धुंगन समिति का गठन पंचायती संस्थाओं पर विचार करने के लिए किया गया। इस समिति ने अपने प्रतिवेदन में कहा कि राज संस्थाओं को संविधान में स्थान दिया जाए। इस समिति की सिफारिशों को संवैधानिक मान्यता प्रदान करने के लिए 1989 में 64वां संविधान संशोधन लोकसभा में पेश किया गया। इसे लोकसभा द्वारा पारित कर दिया गया, लेकिन राज्य सभा ने इसे नामन्जूर कर दिया। इसके बाद लोकसभा भंग हो जाने की वजह से यह विधेयक समाप्त कर दिया गया।

इसके बाद 16 दिसम्बर, 1991 को 72वां संविधान संशोधन विधेयक पेश किया गया, जिसे संयुक्त संसदीय समिति (प्रवर समिति) को सौंपा गया। इस समिति ने विधेयक पर अपनी सम्मति जुलाई 1992 में दी और विधेयक के क्रमांक को बदलकर 73वां संविधान संशोधन विधेयक कर दिया गया, जिसे 22 दिसम्बर, 1992 को लोकसभा ने तथा 23 दिसम्बर, 1992 को राज्यसभा ने पारित कर दिया। सत्रह राज्य विधान सभाओं के द्वारा अनुमोदित किय जाने पर इसे राष्ट्रपति के पास भेजा गया। राष्ट्रपति ने 20 अप्रैल, 1993 को इस पर अपनी सम्मति दे दी। इस प्रकार इसे 24 अप्रैल, 1993 को लागू कर दिया गया।

गांव भारत के

पंचायत राज के सम्बन्ध में प्रावधान

हमारे देश के अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग पंचायती राज व्यवस्थाएं हैं। किसी राज्य में एक स्तरीय तो किसी राज्य में द्विस्तरीय कहीं त्रिस्तरीय तो कहीं चार स्तरीय पंचायती राज व्यवस्थाएं हैं। किन राज्यों में किस तरह की व्यवस्थाएं हैं, वो इस प्रकार हैं-

  • केरल, जम्मू-कश्मीर, त्रिपुरा, मणिपुर, सिक्किम – एकस्तरीय (ग्राम पंचायत)
  • असम, कर्नाटक, ओडीसा, हरियाणा – द्विस्तरीय (ग्राम पंचायत, पंचायत समिति)
  • उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार, राजस्थान, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, पंजाब, तमिलनाडू, हिमाचल प्रदेश, गुजरात – त्रिस्तरीय (ग्राम पंचायत, पंचायत समिति, जिला पंचायत)
  • पश्चिम बंगाल – चतुर्थस्तरीय (ग्राम पंचायत, अंचल पंचायत, आंचलिक परिषद, जिला पंचायत)
  • मेघालय, नागालैंड, मिजोरम, गोवा – एकस्तरीय (जनजातीय परिषद)

पंचायती राज व्यवस्था के सम्बन्ध में प्रावधान संविधान के भाग 9 में 16 अनुच्छेदों में शामिल किया गया है, जो इस प्रकार हैं-

  1. पंचायत व्यवस्था के अन्तर्गत सबसे निचले स्तर पर ग्रामसभा होगी। इसमें एक या एक से अधिक गांव शामिल किए जा सकते हैं। ग्रामसभा की शक्तियों के सम्बन्ध में राज्य विधान मण्डल द्वारा कानून बनाया जाएगा।
  2. जिन राज्यों की जनसंख्या 20 लाख से कम है, उनमें दो स्तरीय पंचायत का गठन होगा। मतलब कि ज़िला स्तर और गांव स्तर पर पंचायत का गठन किया जाएगा। 20 लाख की जनसंख्या से अधिक आबादी वाले राज्यों में त्रिस्तरीय पंचायत की स्थापना की जाएगी। इसका अर्थ यह कि गांव, मध्यवर्ती तथा ज़िला स्तर पर पंचायत का गठन होगा।
  3. सभी स्तर के पंचायतों के सभी सदस्यों का चुनाव वयस्क मतदाताओं द्वारा हर पांचवें वर्ष में किया जाएगा। गांव स्तर के पंचायत के अध्यक्ष का चुनाव प्रत्यक्ष रूप से और मध्यवर्ती एवं ज़िला स्तर के पंचायत के अध्यक्ष का चुनाव अप्रत्यक्ष रूप से किया जाएगा।
  4. पंचायत के सभी स्तरों पर अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति के सदस्यों के लिए आनुपातिक आरक्षण दिया जाएगा। महिलाओं के लिए 30 प्रतिशत आरक्षण होगा।
  5. सभी स्तर की पंचायतों का कार्यकाल पांच वर्ष होगा, लेकिन इनका विघटन पांच वर्ष के पहले भी किया जा सकता है। पर विघटन की स्थिति में छह महीने के अंदर चुनाव कराना जरूरी होगा।
  6. पंचायतों को कौन सी शक्तियाँ प्राप्त होंगी और वे किन उत्तरदायित्वों का निर्वाह करेंगी, इसकी सूची संविधान में ग्याहरवीं अनुसूची में दी गयी हैं।

पंचायती राज में पंचायत के कार्य

  1. कृषि, इसके अन्तर्गत कृषि विस्तार भी है।
  2. भूमि सुधार और मिट्टी का संरक्षण।
  3. लघु सिंचाई, जल प्रबन्धन आदि का विकास।
  4. पशु पालन, दुग्ध उद्योग और कुक्कुट पालन।
  5. मत्स्य पालन उद्योग।
  6. सामाजिक वानिकी और फार्म वानिकी।
  7. लघु वन उत्पाद।
  8. लघु उद्योग, जिसके अन्तर्गत खाद्य प्रसंस्करण उद्योग भी है।
  9. खादी, ग्राम और कुटीर उद्योग।
  10. ग्रामीण आवास।
  11. पेय जल
  12. ईधन और चारा
  13. सड़कें, पुलिया, पुल, नौघाट, जल मार्ग और संचार के अन्य साधन की व्यवस्था करना।
  14. ग्रामीण विद्युतीकरण और वितरण।
  15. गैर पारम्परिक ऊर्जा स्रोत।
  16. गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम।
  17. समुचित शिक्षा व्यवस्था, इसके अन्तर्गत प्राथमिक और माध्यमिक विद्यालय भी हैं।
  18. तकनीकी प्रशिक्षण और व्यावसायिक शिक्षा,
  19. प्रौढ़ और अनौपचारिक शिक्षा,
  20. हर पंचायत में पुस्तकालय की व्यवस्था करना,
  21. सांस्कृतिक क्रिया कलाप,
  22. बाज़ार और मेले
  23. अस्पताल, प्राथमिक स्वास्थ्य और दवा केन्द्र,
  24. परिवार कल्याण
  25. महिला और बाल विकास,
  26. समाज कल्याण (विकलांग और मानसिक विकलांग सहित),
  27. कमजोर वर्गों (खास कर अनुसूचित जाति और जनजातियों) का कल्याण,
  28. लोक वितरण प्रणाली।
  29. सामुदायिक चीजों का अनुरक्षण।

राज्य विधान मण्डल कानून बनाकर पंचायतों को उपयुक्त स्थानीय कर लगाने, उन्हें वसूल करने तथा उनसे प्राप्त धन को व्यय करने का अधिकार प्रदान कर सकती है।पंचायतों की वित्तीय अवस्था के सम्बन्ध में जांच करने के लिए प्रति पांचवें वर्ष वित्तीय आयोग का गठन किया जाएगा, जो राज्यपाल को अपनी रिपोर्ट देगा।

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