स्वतंत्रता अंग्रेजी के लिबर्टी शब्द का हिन्दी अनुवाद है जो लैटिन भाषा के लाइबर शब्द से बना है, जिसका तात्पर्य है बन्धनों का न होना। अतः शाब्दिक व्युत्पत्ति के अनुसार स्वतन्त्रता का अर्थ हुआ बंधनों का अभाव, लाक ने इस भाव का समर्थन किया परन्तु वर्तमान समय में स्वतंत्रता का अर्थ प्रत्येक व्यक्ति की इच्छानुसार अलग-अलग हो गया।

ज्यादातर लोग स्वतन्त्रता का अर्थ अपने मनमाने कार्यों को करने में समझने लगे और यह सब इसलिए भी संभव है कि व्यक्ति सामाजिक प्राणी होने के नाते जहाँ सहयोगपूर्ण भावना के साथ रहने का इच्छुक होता है तो वहीं दूसरी तरफ वह अपनी इच्छा के अनुसार भी कार्य करना चाहता है।
स्वतंत्रता
मनुष्य को उसी सीमा तक सब कुछ कहने या करने का अधिकार है जिससे दूसरों को कोई हानि न हो। स्वतन्त्रता की परिभाषा विचारकों ने अपने-अपने अनुसार दी है जो निम्न है
“ऐसा कोई दूसरा शब्द नहीं जिसके इतने विभिन्न भावार्थ लिये जा सकते हैं और जिसने मानव मस्तिष्क पर इतना विभिन्न प्रभाव डाला है।
मांटेस्क्यू के अनुसार
“स्वतन्त्रता किसी अन्य साध्य की प्राप्ति का साधन नहीं, वरन यह सर्वोच्च साध्य है।”
डॉ. राधाकृष्णन के अनुसार
स्वतन्त्रता की इच्छा व्यक्ति की एक स्वाभाविक प्रवृत्ति है और इसी के आधार पर सामाजिक जीवन का निर्माण सम्भव है।”
रसेल के अनुसार
“स्वतन्त्रता अति शासन की विरोधी है।’
सीले के अनुसार
“स्वतन्त्रता सभी प्रकार के प्रतिबन्धनों का अभाव नहीं अपितु अनुचित प्रतिबन्धों के स्थान पर उचित प्रतिबन्धों की व्यवस्था है।”
मैकेंजी के अनुसार

स्वतंत्रता के प्रकार
स्वतन्त्रता के विभिन्न रूप होते हैं जोकि निम्न हैं-
1. प्राकृतिक स्वतंत्रता
प्राकृतिक स्वतन्त्रता का प्रयोग अनेक अर्थों में किया जाता है। साधारण बोलचाल की भाषा में प्राकृतिक स्वतन्त्रता का अर्थ मनमानी करना है। अर्थात उसके ऊपर किसी प्रकार का नियंत्रण नहीं है लेकिन ऐसी मनमानी स्वतन्त्रता समाज में संभव नहीं है। इस धारणा के अनुसार स्वतन्त्रता प्रकृति की देन है और मनुष्य जन्म से ही स्वतन्त्र पैदा हुआ है।
समझौतावादी विचारको ने उस स्वतन्त्रता का वर्णन किया है उनके अनुसार यह स्वतन्त्रता प्राकृतिक अवस्था के प्रारंभ में थी जब राज्य का जन्म नहीं हुआ था। लाक ने स्वतन्त्रता को प्राकृतिक अधिकार माना जो राज्य के अधिकार क्षेत्र से बाहर है। रूसो ने माना कि स्वतन्त्रता का प्रयोग मनुष्य प्राकृतिक अवस्था के प्रारम्भ में करता था जो बाद में अस्वाभाविक बंधनों के कारण विला हो गई और इन विचारकों ने माना कि राज्य की उत्पत्ति के पहले मनुष्य पूरी तरह स्वतंत्र था व अपनी इच्छानुसार अपना जीवन व्यतीत करता था।
2. व्यक्तिगत स्वतंत्रता
व्यक्तिगत स्वतन्त्रता का अर्थ है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपनी इच्छा के अनुसार अपने जीवन को नियोजित करने का अधिकार होना चाहिए जिससे वह अपनी शक्तियों का उपयोग करके अपना विकास अपनी इच्छानुसार कर सके और व्यक्ति के उसके स्वयं के सम्बन्धित कार्यों पर कोई प्रतिबंध नहीं होना चाहिए तथा वह अपने भोजन, वस्त्र, जीवन, धर्म में पूरी तरह से स्वतन्त्र होना चाहिए।
3. नागरिक स्वतंत्रता
नागरिक स्वतन्त्रता से तात्पर्य उन अधिकारों और विशेषाधिकारों से है जिन्हें राज्य अपने नागरिकों को प्रदान करता है और वह ही उनकी रक्षा करता है तथा यह स्वतन्त्रता मनुष्य को समाज में ही मिलती है और व्यक्ति के सर्वागीण विकास के लिए अत्यन्त आवश्यक है। इस अधिकार के अन्तर्गत व्यक्तिगत जीवन की सुरक्षा, संपति, व्यक्तिगत स्वतन्त्रता, कानून के समक्ष समानता, शोषण के विरुद्ध संवैधानिक उपचारों का अधिकार, आर्थिक स्वतन्त्रता आदि आते हैं।
4. आर्थिक स्वतंत्रता
आर्थिक स्वतन्त्रता का तात्पर्य है प्रत्येक व्यक्ति को अपने जीवन की बुनियादी आवश्यकताओं को पूरा करने का अवसर मिले अतः इस स्वतन्त्रता का अर्थ इस प्रकार की व्यवस्था से है जिसके अन्तर्गत कोई व्यक्ति आर्थिक दृष्टि से दूसरे व्यक्ति के अधीन न रहे और समाज में सभी व्यक्तियों का अपना आर्थिक विकास करने का समान अवसर प्राप्त हो और उसके श्रम का दूसरे के द्वारा शोषण न किया जाए।
5. नैतिक स्वतंत्रता
यह सभी स्वतन्त्रताओं का मूल है। सारी स्वतन्त्रताओं के संयोग से भी व्यक्ति सचे अर्थों में तब तक स्वतन्त्र नहीं हो पाता जब तक उसे नैतिक स्वतन्त्रता प्राप्त नहीं हो पाती। आदर्शवादी विचारको अरस्तू, कांट, ग्रीन, और बोसांके ने नैतिक स्वतन्त्रता पर बल दिया है यह मनुष्य की विवेक शक्ति पर आधारित शक्ति है जो उचित अनुचित का भेद करती है। स्वार्थी दृष्टिकोण त्यागकर व्यापक समानोपयोगी दृष्टिकोण लाती है।

स्वतंत्रता के संरक्षण की दशाएँ
स्वतंत्रता पर आये दिन प्रहार होने के कारण उसी सुरक्षा के लिए निम्नलिखित विशेष दशायें आवश्यक हैं-
1. मौलिक अधिकारों की उद्घोषणा
स्वतन्त्रता की रक्षा के लिए संविधान के अन्तर्गत नागरिकों के मौलिक अधिकारों की उद्घोषणा कर दी जाए। विश्व के सभी देशों के संविधानों में मौलिक अधिकारों की उदघोषणा तथा व्यवस्था सम्बन्धी उपायों की चर्चा कर दी गयी है।
2. नागरिकों की जागरूकता
सतत् जागरूकता स्वतंत्रता का मूल मंत्र है। किसी भी देश के नागरिकों के अचेत रहने से स्वतंत्रता पर खतरा उपस्थित हो सकता है। स्वतंत्रता की रक्षा के लिए नागरिकों को सदैव सतर्क रहना चाहिए। लॉस्की ने कहा है कि आकस्मिक अराजकता का भय शासन सत्ता के दुरुपयोग के विरुद्ध एक रक्षा कवच है।
3. कानून का शासन
किसी भी देश के कानून का शासन स्वतंत्रता की रक्षा की एक आवश्यक शर्त है। सचमुच में कानून का शासन स्वतन्त्रता के अस्तित्व के लिए आवश्यक है। कानून शासन में प्रशासकीय पदाधिकारियों को विशेष सुविधायें प्राप्त नहीं होती। इसमें राजा और रंक के साथ एक जैसा बर्ताव किया जाता है। प्रो. डायसी ने कानून के शासन की व्याख्या तीन रूपों में की है-
- कानून की सर्वोचता।
- कानून के समक्ष समानता।
- सामान्य अधिकार सामान्य कानून की उपज है।
4. वैध प्रभु और राजनीतिक प्रभु में सहयोग
वैध प्रभु अर्थात् सरकार तथा राजनीतिक प्रभु में अर्थात् जनता में स्वतंत्रता की रक्षा के लिए सहयोग होना चाहिए। चूँकि वैध प्रभु का निर्माण राजनीतिक प्रभु के द्वारा होता है, इसलिए वैध प्रभु की इच्छानुसार कार्य करना चाहिए।
5. संवैधानिक उपचार की व्यवस्था
यदि राज्य या कोई व्यक्ति नागरिक अधिकार का अपहर करें तो न्यायालय को हस्तक्षेप करने का अधिकार होना चाहिए। नागरिकों के मौलिक अधिकारों के विरुद्ध संसद या राज्य के विधानमण्डलों द्वारा पारित किसी भी विधेयक को न्यायपालिका असंवैधानिक घोषित कर सकती है। भारतीय तथा अमेरिकी संविधाओं में संवैधानिक उपचारों की व्यवस्था की गयी है।
6. निष्पक्ष एवं स्वतन्त्र न्यायपालिका
किसी भी देश में स्वतन्त्रता की रक्षा के लिए एक स्वतन्त्र और निष्पक्ष न्यायपालिका महत्वपूर्ण है। अलिखित तथा संघीय शासन प्रणाली वाले देशों में नागरिक स्वतंत्रता की रक्षा के लिए निष्पक्ष एवं स्वतंत्र न्यापालिका की आवश्यकता है।
7. शक्तियों का पृथकरण
स्वतंत्रता की रक्षा के लिए विभिन्न शक्तियों का पृथक्करण आवश्यक है। फ्रांसीसी विद्वान मॉण्टेस्क्यू ने कहा है कि नागरिकों की स्वतन्त्रता की रक्षा के लिए शक्तियों का पृथकरण अत्यावश्यक है। शक्तियों के पृथक्करण का तात्पर्य सरकार के तीन अंगो कार्यपालिका, व्यवस्थापिका और न्यायपालिका का बिना एक-दूसरे के कार्यों में हस्तक्षेप लिए अलग-अलग काम करना है।

स्वतंत्रता एवं समानता में सम्बन्ध
स्वतन्त्रता तथा समानता दोनों ही लोकतन्त्र के आधार स्तम्भ हैं। दोनों का सम्बन्ध व्यक्ति, समाज तथा राष्ट्र के विकास से है। लास्की ने स्वतन्त्रता एवं समानता दोनों को अवसरों की प्राप्ति से सम्बद्ध किया है। लास्की ने स्वतन्त्रता को परिभाषित करते हुए कहा है कि “स्वतन्त्रता से मेरा तात्पर्य उस वातावरण की समुचित सुरक्षा से है जिसमें सभी व्यक्ति अपने सर्वोत्तम विकास के अवसर पा सकें।”
समानता के अर्थ को स्पष्ट करते हुए लास्की का कहना था कि “समानता से तात्पर्य प्रथम तो विशेषाधिकारों के अभाव से है. द्वितीय इसका अर्थ सभी को समान अवसरों की प्राप्ति से है। लास्की ने स्वतन्त्रता तथा समानता को परिभाषित करने के साथ-साथ दोनों के निकट का सम्बन्ध भी स्पष्ट किया है। रूसो ने स्वतन्त्रता तथा समानता के बीच परस्पर सम्बन्धों को व्यक्त करते हुए कहा है कि स्वतन्त्रता केवल उसी स्थिति में अपने आदर्श स्तर को प्राप्त कर सकती है जब वह समानता की सहचरी बने।”
यद्यपि मैकाइवर जैसे विद्वानों का मानना है कि एक निश्चित सीमा से परे स्वतन्त्रता और समानता परस्पर विरोधी है। इसके बावजूद स्वतन्त्रता तथा समानता एक-दूसरे के पूरक है तथा दोनों का अस्तित्व परस्पर एक-दूसरे पर ही निर्भर है।