सामाजिक परिवर्तन के जनसंख्यात्मक कारक – सामाजिक परिवर्तन के क्षेत्र में जनसंख्यात्मक कारकों का भी अत्यधिक महत्व है। जनसंख्यात्मक कारक भी सामाजिक परिवर्तन के कारण होते हैं। अन्य शब्दों में जनसंख्या का आकार और घनत्व में परिवर्तन जन्म दर और मृत्यु दर के घटने-बढ़ने से कई परिवर्तन होते हैं। उदाहरण के लिए भारत में 1901 में जनसंख्या 24 करोड़ थी जो 2001 की जनगणना के अनुसार 1 अरब से अधिक अर्थात् 1,02,270, 1524 हो गई है।
किसी देश की अति जनसंख्या की स्थिति में खाद्यान्न की पूर्ति कम हो जाती है तो समस्या का समाधान स्वयं प्रकृति ही करती है और कुछ प्राकृतिक अवरोध जैसे प्लेग, हैजा, चेचक तथा ऐसी ही दूसरी भयंकर बीमारियाँ, अकाल, बाढ़, भुखमरी आदि क्रियाशील होते हैं। अति जनसंख्या के कारण सामाजिक जीवन में क्रान्तिकारी परिवर्तन होते हैं। अति जनसंख्या के कारण व्यक्तियों का रहन-सहन तो निम्न होता ही है साथ ही व्यक्तिगत विघटन, पारिवारिक विघटन और सामाजिक विघटन को भी प्रोत्साहन मिलता है।
मॉल्थस के अनुसार
सामाजिक परिवर्तन के जनसंख्यात्मक कारक
जनसंख्या की विशेषताओं के कारण अनेक परिवर्तन उत्पन्न होते हैं सामाजिक परिवर्तन के जनसंख्यात्मक कारक निम्न है –
- अति जनसंख्या का प्रभाव
- जन्म दर व मृत्यु दर का प्रभाव
- जनसंख्या की रचना का प्रभाव
- देशागमन तथा देशान्तरगमन का प्रभाव
अति जनसंख्या का प्रभाव
सामाजिक परिवर्तन पर अति जनसंख्या का प्रभाव रहता है किसी देश की अति जनसंख्या अनेक सामाजिक कारणों को जन्म देती है। उदाहरण के लिए अत्यधिक तीव्र गति से जनसंख्या की वृद्धि के कारण अनेक सामाजिक परिवर्तन होते हैं। उदाहरण के लिए 1951 में भारत की जनसंख्या 36 करोड़ से बढ़कर सन् 1991 में 84.4 करोड़ हो गई व 2001 में 1 अरब से भी अधिक हो गई। अति जनसंख्या के कारण समाज में निर्धनता, बेकरी, भुखमरी फैलती है।


जन्म दर व मृत्यु दर का प्रभाव
जन्म-दर व मृत्यु दर का सामाजिक परिवर्तन पर प्रभाव पड़ता है। यदि देश में जन्म दर में कमी आती है तो उस देश में व्यक्तियों की कमी हो जाती है जिसका प्रभाव देश में आर्थिक स्तर पर पड़ता है। यदि किसी देश में जन्म दर अधिक हो जाती है तो यह देश का आर्थिक विकास तो होगा परन्तु इससे कई विकट परिस्थितियों भी उत्पन्न हो जायेंगी।
यदि किसी समाज में जन्म दर बढ़ती है तो वहाँ पर गर्भ निरोध, विलम्ब विवाह, गर्भपात, शिशु हत्या आदि अनेक मात्रा में देखने को मिल सकते हैं। भारत में जन्म दर की अधिकता है। अतः वहाँ ये सभी कार्य देखने को मिलने हैं। यही कारण है कि भारत में परिवार नियोजन के कार्यक्रमों को बढ़ावा दिया जा रहा है। इसके विपरीत जहाँ पर जन्म दर कम है वहाँ पर बहुपत्नी विवाह आदि का प्रचलन है। जिससे जन्म दर बढ़े अतः कहा जा सकता है कि जन्म दर तथा मृत्यु दर का प्रभाव सामाजिक परिवर्तन पर पड़ता है।
कैलर तथा फ्रेजर के अनुसार
जनसंख्या की रचना का प्रभाव
जनसंख्या की वृद्धि या कमी का प्रभाव भी सामाजिक संरचना पर पड़ता है। जनसंख्या के अन्तर्गत स्त्री-पुरुष तथा बच्चों, बूढ़ों आदि का समावेश होता है। जिस देश में वृद्धों तथा बच्चों की संख्या अधिक होती है उस देश में उत्पादन अधिक नहीं होता परन्तु जिस देश में युवाओं की संख्या अधिक होती है वहाँ पर देश उन्नति करता है। आप सामाजिक परिवर्तन के जनसंख्यात्मक कारक Hindibag पर पढ़ रहे हैं।
इसी प्रकार जहाँ पर स्त्रियों की संख्या पुरुषों से अधिक होती है वहाँ पर बहुपत्नी विवाह पाया जाता है व वर मूल्य की परम्परा पाई जाती है इसके विपरीत पुरुषों की संख्या अधिक होने पर बहुपति विवाह प्रथा पाई जाती है तथा वधू मूल्यों का प्रचलन है। अतः कहा जा सकता है कि जनसंख्या की रचना का सामाजिक परिवर्तन पर प्रभाव पड़ता है।


देशागमन तथा देशान्तरगमन का प्रभाव
देशागमन का अर्थ है बाहर से या दूसरे देश से लोगों का आना व देशान्तरगमन का अर्थ है देश के लोगों का अन्य देशों को जाना। दोनों ही स्थितियों में सामाजिक परिवर्तन होते हैं। उदाहरण के लिए बाहर से कोई व्यक्ति अगर अपने देश में आता है तो भी उसकी संस्कृति का प्रभाव पड़ता है तथा अगर व्यक्ति कहीं बाहर जाता है। तो भी उसकी संस्कृति का प्रभाव वहाँ पर पड़ता है।
इसका उदाहरण भारत तथा पाकिस्तान का विभाजन है। विभाजन के पश्चात् अनेक व्यक्ति बाहर से हमारे देश में आये जिससे हमारे देश में अनेक सभ्यताओं व संस्कृतियों का समावेश हो गया। अगर अपने देश से कोई व्यक्ति विदेश जाता है तो वहाँ की संस्कृति लेकर आता है इसी कारण भारत में पाश्चात्य संस्कृति के कारण अनेक परिवर्तन हुए।
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