सामाजिक नियंत्रण का अर्थ उस ढंग से है जिससे सम्पूर्ण सामाजिक व्यवस्था में एकता व स्थायित्व बना रहता है। अर्थात् वह किस प्रकार परिवर्तनशील संतुलन के रूप में क्रियाशील होती है। प्लेटो व अरस्तू से लेकर आधुनिक समय तक के सामाजिक विचारकों ने यह स्वीकार किया है कि समाज के अस्तित्व के लिये थोड़ी बहुत सामाजिक दृढ़ता आवश्यक है। अब यह प्रश्न उठता है कि वे कौन-सी शक्तियाँ हैं जो सामाजिक संरचना में दृढ़ता और सामंजस्य बनाये रखने में सहायक होती हैं और वे किस प्रकार क्रियाशील होती हैं? इन्हीं प्रश्नों के उत्तर में जिस समाजशास्त्रीय साहित्य की रचना हुई है उसे सामाजिक नियंत्रण के शीर्षक के अन्तर्गत रखा गया है।
समाजशास्त्रीय साहित्य का बहुत बड़ा भाग सामाजिक नियंत्रण से संबंधित है, भले ही उसका नाम कुछ भी हो।
काइवर तथा पेज
समाज का निर्माण ही सामाजिक संबंधों और नियंत्रण की व्यवस्था से होता है क्योंकि एक की अनुपस्थिति में दूसरे का अस्तित्व सुरक्षित नहीं है।
किंग्सले डेविस
सामाजिक नियंत्रण
सामाजिक नियंत्रण की व्याख्या समाजशास्त्रीय तथा मनोवैज्ञानिक दो दृष्टिकोणों से की गई है। वैसे इस अवधारणा का विकास समाजशास्त्र के विस्तार से हुआ है। समाजशास्त्रियों ने सामाजिक नियंत्रण की शक्तियों, लोकरीतियों, रूढ़ियों, प्रथाओं आदि को महत्व दिया है। इनमें उल्लेखनीय हैं समनर, ऑगबर्न व निमकॉफ और गिलि तथा गिलित। कुछ समाजशास्त्री जैसे – गिडिंग्स, हाबहाउस, कूले आदि ने आदर्शात्मक दृष्टिकोण अपनाया है। ये विद्वान नैतिकता, धर्म, शिक्षा, कला, ज्ञान, कानून को सामाजिक नियंत्रण में विशेष महत्व देते हैं। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से पार्क व वर्जेस व वर्नार्ड आदि ने व्यक्ति को दृष्टि में रखकर सामाजिक नियंत्रण को स्पष्ट किया है।
“सामाजिक नियंत्रण दबाव के वे प्रतिमान हैं जो व्यवस्था तथा स्थापित नियमों के बनाये रखने में समाज प्रयोग करता है।”
आगवर्न तथा निमकॉफ
“सामाजिक नियंत्रण की विधियों को एक ऐसी व्यवस्था माना है जिसके द्वारा समाज अपने सदस्यों को व्यवहार के मान्य स्तरों के अनुरूप बनाता है।”
रास
इन परिभाषाओं पर विचार करने से यह स्पष्ट होता है कि सामाजिक नियंत्रण की धारणा व्यापक व विस्तृत है। समाजशास्त्री व मनोवैज्ञानिक दोनों ही इस तथ्य को स्वीकार करते हैं कि सामाजिक नियंत्रण के अन्तर्गत अनेक सकारात्मक व नकारात्मक विधियों का समावेश होता है जो सम्पूर्ण सामाजिक व्यवस्था में दृढ़ता व स्थायित्व बनाये रखती है और मनुष्य के व्यवहार को मान्य व्यवहार प्रतिमानों के अनुरूप बनाती है। इस प्रकार सामाजिक नियंत्रण के अन्तर्गत वे प्रक्रियायें, संस्थायें व अभिकरण आते हैं जिनके द्वारा मनुष्य को सामाजिक नियमों के अनुसार व्यवहार करने की शिक्षा दी जाती है। उन स्थितियों को उत्पन्न किया जाता है जिनमें व्यक्ति का समाजीकरण होता है।



सामाजिक नियंत्रण की विशेषताएं
विभिन्न विद्वानों की परिभाषाओं का अध्ययन करने पर सामाजिक नियंत्रण की निम्नलिखित विशेषताएं प्रकट होती है-
- सामाजिक नियंत्रण के द्वारा सामाजिक संगठन में एकरूपता पैदा होती है।
- सामाजिक नियंत्रण से तनाव एवं संघर्षों को कम किया जाता है तथा आपसी सहयोग स्थापित किया जाता है।
- सामाजिक नियंत्रण विपथगामी प्रवृत्तियों को नियंत्रण रखता है तथा उन्हें नष्ट कर देता है।
- सामाजिक नियंत्रण के तीन स्तर होते हैं समूह का समूह पर नियंत्रण, व्यक्तियों का व्यक्तियों पर नियंत्रण तथा समूह का व्यक्तियों पर नियंत्रण ।
- सामाजिक नियंत्रण के द्वारा सामाजिक संबंधों में स्थिरता एवं समरूपता स्थापित की जाती है।
सामाजिक नियंत्रण के उद्देश्य
विद्वानों ने सामाजिक नियंत्रण के उद्देश्य भिन्न-भिन्न ढंग से वर्णन किए हैं। किम्बल यंग के अनुसार सामाजिक नियंत्रण के तीन उद्देश्य हैं किसी समूह या समाज में एकरूपता, सुदृढ़ता तथा निरन्तरता बनाये रखना। सामान्य रूप से सामाजिक नियंत्रण के उद्देश्यों को निम्नलिखित ढंग से भी स्पष्ट किया जा सकता है –
1. व्यक्ति का समाजीकरण
सामाजिक नियंत्रण का एक प्रमुख उद्देश्य व्यक्ति का समाजीकरण करना है। इस प्रक्रिया द्वारा व्यक्ति को समाज का एक सक्रिय सदस्य बनाया जाता है तथा समाज के मूल्यों, आदर्शों व प्रचलनों का व्यक्ति में अन्तरीकरण किया जाता है। इसके लिए प्राथमिक व द्वैतीयक अनेक प्रकार के समूह कार्यशील होते हैं, जिनमें परिवार, क्रीडा समूह व विद्यालय प्रमुख हैं। यदि व्यक्ति का समुचित ढंग से समाजीकरण न हो तो कोई शक्ति या बाध्यता उसके व्यवहार को नियंत्रित नहीं कर सकती। यह सामाजिक नियंत्रण का सकारात्मक पक्ष है।
2. व्यक्तिगत व्यवहार का नियंत्रण करना
मनुष्यों में अनेक प्रकार के जैवकीय, शारीरिक, बौद्धिक व भावनात्मक अन्तर मिलते हैं। यदि इन्हें मनमाने रूप से विकास के अवसर दिये जायें और भिन्नताओं को बढ़ने दिया जाये तो समाज की दृढता और व्यवस्था नष्ट हो सकती है। अतएव व्यक्तिगत व्यवहार को नियंत्रित करके समानता और सहयोग को अपनाया जाता है। संघर्ष को कम किया जाता है।
3. प्राचीन व्यवस्था को बनाये रखना
सामाजिक नियंत्रण का उद्देश्य प्राचीन प्रथाओं, परम्पराओं, रूढ़ियों व व्यवहार के परम्परात्मक ढंगों को बनाये रखना है क्योंकि इनमें क्रान्तिकारी परिवर्तन होने से नई-नई परिस्थितियों और समस्याओं को जन्म मिलता है जिनसे अनुकूलन करने में कठिनाई होती है। इसके परिणामस्वरूप संगठन व व्यवस्था को हानि होती है और विघटन की प्रक्रिया प्रबल होती है।
4. सामाजिक निर्णयों का पालन करवाना
सामाजिक निर्णयों की सार्थकता इसी में है कि इनका पालन किया जाये। सामाजिक नियंत्रण इनके पालन के लिए हमें प्रेरित व बाध्य करता है। उदाहरण के लिए नए सामाजिक निर्णयों व कानूनों से स्त्रियों को पुरुषों के समान अधिकार प्रदान किये गये हैं। कुछ पुरुषों ने इसे अच्छा नहीं समझा। सामाजिक नियंत्रण के दण्ड के भय से सामाजिक निर्णयों को स्वीकार करने के लिए ऐसे मनुष्यों को बाध्य करता है।
5. व्यक्तियों के व्यवहार के चुनाव में सहायता देना
एक परिस्थिति में व्यवहार के अनेक विकल्प होते हैं। उनमें कौन उचित है इसका निश्चय करने में सामाजिक नियंत्रण सहायक हैं, क्योंकि व्यवहार के आदर्श पूर्व निश्चित होते हैं। इसी बात को लेजली व्हाइट ने इस प्रकार बताया है, “यदि हमें व्यवहार के हर अगले कदम के लिए सोचना, विचारना पड़े तो हमारा जीवन दुखमय हो जायगा ” संक्षेप में व्यवहार के चुनाव में हमारा मार्गदर्शन सामाजिक नियंत्रण के द्वारा होता है।
6. सामाजिक व्यवस्था को बनाये रखना
विरोधी उद्देश्य व स्वार्थ, परस्थितियों से सम्बन्धित भूमिकाओं का निर्वाह न करना, व्यक्तिवादिता व मनमाना व्यवहार सामाजिक संगठन व व्यवस्था के लिए हानिकारक है। सामाजिक नियंत्रण इन्हें दूर कर उद्देश्यों में समानता व सामंजस्य तथा भूमिकाओं के निर्वाह पर बल देता है। इससे व्यवस्था बनी रहती है।
7. सामाजिक एकरूपता या एकता को बनाये रखना
सामाजिक नियंत्रण के साधनों, प्रथाओं, रूढ़ियों, नियमों में समानता के कारण व्यक्तियों के व्यवहार में समानता व समरूपता उत्पन्न होती है। जिसके कारण समूह या समाज एकता के सूत्र में बंध जाता है।
8. सामाजिक दृढ़ता को बनाये रखना
समाज विरोधी व विघटनकारी तत्व समाज की दृढ़ता पर चोट करते हैं। सामाजिक नियंत्रण के साघन इन पर अंकुश लगाकर इनके हानिकारक प्रभाव को रोकते हैं। संकट व संघर्ष के समय नियंत्रण के साधन लोगों के मनोबल को ऊँचा उठाकर भी समाज में दृढ़ता स्थापित करते हैं।
9. समाज में स्थिरता बनाये रखना
सामाजिक स्थिरता और निरन्तरता के लिए सामाजिक दृढ़ता की आवश्यकता सभी विचारकों ने अनुभव की है। सामाजिक नियंत्रण सामाजिक नियमों, प्रथाओं और परम्पराओं के लिए प्रेरित और बाध्य करता है। मनमाने और समाज विरोधी कार्यों को रोकता है। इस तरह सामाजिक दृढ़ता की चुनौतियों व खतरों पर विजय प्राप्त की जाती है और समाज में स्थिरता बनी रहती है।



सामाजिक नियंत्रण में धर्म की भूमिका
धर्म के द्वारा सामाजिक नियंत्रण सर्वाधिक प्रभावपूर्ण ढंग से होता है। व्यक्ति पाप एवं ईश्वर से डरते हैं इसलिए समाज-विरोधी कार्यों से बचे रहते हैं। समाज में धर्म इस कदर छाया रहता है कि व्यक्ति के सामाजिक नियमों का उल्लंघन करने का साहस नहीं करते क्योंकि उन्हें पाप का भागी एवं ईश्वर की अप्रसन्नता का भय रहता है। इन्हीं कारणवश व्यक्ति सामाजिक नियमों को स्वीकार करते हैं।
व्यक्ति जब विवश हो जाता है उस समय धर्म का आश्रय लेते हैं। शायद यही कारण है कि पहले बीमारियों के कारण न मालूम होने पर व्यक्ति उसे दैवीय आपदा मान लेते थे और यह कहते थे कि भगवान बुरे कर्मों की सजा दे रहा है। सामाजिक नियंत्रण में धर्म की भूमिका को इस प्रकार व्यक्त किया जा सकता है-
1. सुरक्षा की भावना उत्पन्न करना
व्यक्ति यह मानते हैं कि धर्म की रक्षा करने पर धर्म उनकी रक्षा करेगा। यह धारणा होने पर व्यक्ति में सद्गुणों का विकास होता है। धार्मिक आचरण करने से वे समाज विरोधी गतिविधियों से बचे रहते हैं। ईश्वर के प्रति अनुरक्त रहने से उनमें यह भाव प्रबल होता है कि वह संसार में अकेला नहीं है वरन ईश्वर सदैव उसके साथ है। धर्म का आश्रय लेकर व्यक्ति सभी समस्याओं से पार हो जाता है। सुरक्षा की भावना होने पर व्यक्ति नियंत्रित व्यवहार करते हैं।
2. व्यक्तित्व का विकास करना
व्यक्ति का धर्म उसके व्यक्तित्व का विकास करता है। धर्म में विश्वास के कारण व्यक्ति के उद्देश्यों में पवित्रता आ जाती है। धर्म बुरे समय में व्यक्ति को धैर्य से काम लेने की प्रेरणा देता है तथा संकटों से सामना करने की शक्ति देता है। यह वैयक्तिक विघटन को रोकता है और संगठित व्यक्तित्व का विकास करके सामाजिक विघटन को रोकता है।
3. समाज का एकीकरण
धर्म सामाजिक एकीकरण का कार्य भी करता है। धर्म सभी अनुयायियों को एकता के सूत्र में बाँधता है। समान धर्मावलम्बियों में हम की भावना पैदा करता है। वे परस्पर एक दूसरे की सहायता करते हैं। धर्म के द्वारा कर्तव्य पालन का शिक्षण दिया जाता है। क्योंकि समाज के सभी सदस्य अपने कर्तव्यों का पालन करके सामाजिक संगठन में अपना योगदान देते हैं। इस तरह धर्म सामाजिक एकता पैदा करके सामाजिक नियंत्रण बनाये रखता है।
4. पवित्रता एवं मानव में सद्गुणों का विकास
धर्म पवित्रता एवं अपवित्रता में स्पष्ट भेद बताता है। धर्म अच्छे कार्यों को करने के लिए प्रेरित करते हैं और बुरे कार्यों से बचने के लिए धार्मिक प्रतिबन्ध लगाता है। धर्म के अनुसार वे कार्य जो समाज एवं संस्कृति के अनुरूप नहीं होते. वे पाप है तथा जो कार्य समाज के हित में होते हैं, पुण्य होते हैं। पवित्रता धारण करने से व्यक्ति के सद्गुणों का विकास होता है। क्योंकि व्यक्ति पवित्र विचारों के कारणों से अधर्म की तरफ उन्मुख नहीं होते। धार्मिक बनने पर मानवीय गुणों जैसे सत्य, ईमानदारी, प्रेम, दया, अहिंसा, आदि का विकास होता है।
5. मानव व्यवहार एवं सामाजिक परिवर्तन पर नियंत्रण
मनुष्य अज्ञात अलौकिक शक्ति के प्रकोप से डरते हैं। इसलिए धार्मिक नियमों का पालन करते हैं। मानय सोचते हैं कि ईश्वर को खुश करके उसकी शक्तियों को प्राप्त कर सकते हैं। ईश्वर से भयभीत रहने का एक कारण स्वर्ग. नरक की अवधारणा भी है। आम धारणा पायी जाती है कि धर्म को निभाने से स्वर्ग मिलता है मोक्ष की प्राप्ति होती है। धर्म को मानने का यह सकारात्मक प्रभाव होता है।
समाज विरोधी अनावश्यक परिवर्तन नहीं हो पाते क्योंकि धर्म उसका प्रतिकार करने लगता है। धर्म स्वस्थ परम्परागत नियमों का समर्थन करता है जिससे अवांछित विचार हतोत्साहित होते हैं। धर्म इस तरह के अनैतिक एवं अनुपयोगी परिवर्तनों का विरोध करके सामाजिक परिवर्तन पर नियंत्रण करता है।
6. मानसिक सन्तोष
धर्म व्यक्ति को मानसिक झंझावतों से लड़ने की शक्ति देता है। संसार के सभी व्यक्तियों को कभी न कभी मानसिक अन्तर्द्वन्द्व का सामना करना पड़ता है। ऐसी परिस्थितियों में वे स्वयं को असहाय अनुभव करने लगते हैं। प्रायः व्यक्ति के जीवन में बीमारी, संकट, बेकारी, आर्थिक संकट आदि आते रहते हैं। ऐसे शारीरिक एवं मानसिक कष्टों के समय वह ईश्वर का आह्वान करता है तथा खुद को ईश्वर के आगे समर्पित करता है।
चारों ओर से मुसीबतों से घिरा हुआ व्यक्ति कभी-कभी असामाजिक कार्य करने के लिए भी प्रस्तुत हो जाता है लेकिन धर्म के कारण अपने कदमों को पीछे खींच लेता है। धर्म की भावना उसे कष्टों से मुक्ति दे अथवा न दे परन्तु मानसिक संतोष तो मिल ही जाता है।
7. धार्मिक संस्कार एवं कर्तव्य के रूप में नियंत्रण
व्यक्तियों का संबंध अनेक धार्मिक संस्कारों से होता है जिसे वे समय-समय पर संपन्न करते हैं। धार्मिक संस्कारों के द्वारा व्यक्ति को सामाजिक व्यवहार करने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है। भविष्य की नयी परस्थिति एवं भूमिका के लिए धर्म उसे दायित्वों का ज्ञान कराता है। संस्कारित व्यक्तियों से समाज कुछ निश्चित आचरणों की आशा करता है, इसे इस तरह भी कह सकते हैं व्यक्ति को कुछ नियंत्रण स्वीकार करने पड़ते हैं।
उदाहरण के लिए हिन्दू संस्कृति में विवाह एक धार्मिक संस्कार है। इस संस्कार को करने का अर्थ होता है कि व्यक्ति वैवाहिक संस्था के समस्त नियमों को स्वीकार करता है। भारतीय सामाजिक जीवन में कर्तव्यों के रूप में अनेक धर्मों का वर्णन किया गया है, उदाहरण के लिए जाति धर्म, कुल धर्म, देश धर्म, स्वधर्म, राजधर्म एवं मानव धर्म उक्त सभी धर्म सदस्यों को एक पूर्व निर्धारित आचरण करने का आदेश देते हैं और उनके स्वछंद व्यवहार पर अंकुश रखते हैं।
8. आर्थिक जीवन पर अंकुश
धर्म व्यक्ति की अनियंत्रित आर्थिक गतिविधियों पर अंकुश रखता है। प्रायः देखा जाता है कि व्यक्ति पैसा कमाने के चक्कर में उचित – अनुचित, न्याय-अन्याय का भी ध्यान नहीं रखते। धर्म उन्हें ईमानदारी से कार्य करते हुए अर्थ कमाने के लिए प्रेरित करता है।
9. परिस्थितियों में सामंजस्य से नियंत्रण
सभी समाजों में व्यक्तियों की प्रस्थिति में असमानता पायी जाती है। कोई अमीर होता है कोई भी आर्थिक रूप से कमजोर व्यक्तियों में कभी-कभी अपनी स्थिति को लेकर असन्तोष भी उत्पन्न हो जाता है। वे अपने से सब व्यक्तियों के प्रति विद्रोह की बात सोचने लगते हैं। ऐसी परिस्थितियों में धर्म उन्हें धैर्य रखने की प्रेरणा देता है। अनेक धार्मिक ग्रन्थों में यह कहा गया है कि उसका वर्तमान जीवन पिछले जन्म के कर्मों का प्रतिफल है। इसलिए व्यक्ति भाग्य की नियति मानकर अपनी वर्तमान अवस्था को सहजता से स्वीकार कर लेते हैं। धर्म इस प्रकार कर्मों की दुहाई देकर व्यक्ति को असामाजिक होने से बचाता है तथा सामाजिक नियंत्रण को बनाये रखता है।
10. स्वस्थ मनोरंजन एवं अपराधिक कार्यों पर नियंत्रण
धर्म के द्वारा व्यक्तियों का स्वस्थ मनोरंजन किया जाता है। इससे व्यक्ति मानसिक कुंठाओं से निजात पाते हैं एवं रोजमर्रा के जीवन में सन्तुलित व्यवहार करते हैं। विभिन्न धार्मिक आयोजन जैसे रामलीला, कृष्णलीला, भजन-कीर्तन, अखंड पाठ, यज्ञ, हवन, प्रवचन, पूजा पाठ, मंदिर-मस्जिद या गुरुद्वारे में जाना, तीर्थयात्राएं करना व्यक्ति को मानसिक सुख के साथ-साथ शिक्षा भी प्रदान करते हैं।
स्वस्थ मनोरंजन होते रहने से व्यक्ति मानसिक विकारों से बचे रहते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि वे अपराधों की तरफ नहीं बढ़ते सतत् धार्मिक क्रियाओं में सहभागी होने के कारण धर्म के कारण धर्म का भय उसे बना रहता है जिसके कारण अपराध का विचार भी उसे नहीं आता है। धर्म व्यक्ति को उसकी क्रियाओं के प्रति उसे जागरूक बनाये रखता है।