सामाजिक क्रिया क्या है? परिभाषा 6 विशेषताएं 10 उद्देश्य

सामाजिक क्रिया की प्रकृति को बहुत व्यवस्थित रूप से स्पष्ट करते हुए उन्होंने लिखा “सामाजिक क्रिया कोई भी वह मानवीय दृष्टिकोण अथवा कार्य है जिसका सम्बन्ध क्रिया करने वाले लोगों के अर्थपूर्ण व्यवहार से होता है, चाहे वह कार्य करने की असफलता को स्पष्ट करता हो या निष्क्रिय स्वीकारोक्ति को।” इस कथन के द्वारा उन्होंने बताया कि प्रत्येक व्यवहार को क्रिया नहीं कहा जा सकता।

सामाजिक क्रिया

सामाजिक क्रिया का सम्बन्ध उन्हीं व्यवहारों से होता है, जो अर्थपूर्ण होते हैं तथा जो दूसरे लोगों के दृष्टिकोणों और व्यवहारों से प्रभावित होने के साथ ही स्वयं भी दूसरे लोगों के व्यवहारों को प्रभावित करते हैं। इस आधार पर उन्होंने विभिन्न सामाजिक क्रियाओं को चार भागों में विभाजित किया – (1) तार्किक क्रियाएं, (2) मूल्यों पर आधारित क्रियाएं, (3) भावनात्मक क्रियाएं (4) परम्परागत क्रियाएं। वेबर के अनुसार परम्परावादी समाजों में भावनात्मक और परम्परात्मक क्रियाओं का अधिक महत्व होता है जबकि तार्किक क्रियाएं तथा मूल्यों पर आधारित क्रियाएं आधुनिक युग की महत्वपूर्ण विशेषता है।

सामाजिक क्रिया का अध्ययन किस तरह किया जाये? इसके लिए वेबर ने एक विशेष पद्धति प्रस्तुत की जिसे उन्होंने जर्मन भाषा में वर्स्टहीन (Verstehen) के नाम से सम्बोधित किया। जर्मनी के दार्शनिक समुदाय में पहले से ही एक शब्द हरमेन्यूटिक्स (Hermenutics) का प्रयोग होता रहा था जिसका तात्पर्य किसी कर्ता की क्रिया के अर्थ को समझने के लिए अध्ययनकर्ता को स्वयं उसके स्थान पर रखकर वास्तविकता को ज्ञात करना था।

वेबर ने हरमेन्यूटिक्स की जगह वर्स्टहीन शब्द का प्रयोग एक ऐसी अध्ययन पद्धति के लिए किया जिसके द्वारा एक अध्ययनकर्ता अपने आप को क्रिया करने वाले व्यक्ति की स्थिति में रखकर उसकी क्रियाओं का व्याख्यात्मक बोध करने का प्रयत्न करता है। सरल शब्दों में कहा जा सकता है कि जिस तरह एक कलाकार की कलाकृति को समझने के लिए स्वयं को चित्र बनाने वाले कलाकार की स्थिति में रखना जरूरी होता है, उसी तरह किसी व्यक्ति द्वारा की जाने वाली क्रिया के अर्थ को तभी समझा जा सकता है जब कर्ता के दृष्टिकोण से किसी क्रिया से सम्बन्धित प्रयोजनों और अर्थों को समझ लिया जाये। इस दशा को वेबर ने प्रयोजनात्मक बोध (Motivational understanding) के नाम से सम्बोधित किया।

सामाजिक क्रिया की विशेषताएं

  1. सामाजिक क्रिया में समाज कार्य के सिद्धांत, मान्यताओं, ज्ञान तथा कौशल का प्रयोग किया जाता है, अत: यह समाज कार्य का ही एक अंग है। 
  2. इसका उद्देश्य सही अर्थों में सामाजिक न्याय और समाज कल्याण की प्राप्ति है। 
  3. इस प्रक्रिया में आवश्यकतानुसार सामाजिक व्यवस्था में परिवर्तन लाने एवं अनावष्यक तथा अवांछनीय सामाजिक परिवर्तन को रोकने का प्रयास किया जाता है। 
  4. यथासम्भव अहिंसात्मक ढंग से कार्य किया जाता है। 
  5. उद्देश्यपूर्ति के लिए सामूहिक सहयोग अपेक्षित होता है। 
  6. इसमें कार्य जनतांत्रिक मूल्यों और संविधान में दिये गये नागरिक अधिकारों पर आधारित सहमतिपूर्ण आन्दोलन के रूप में होता है।

सामाजिक क्रिया के उद्देश्य 

  1. सामाजिक नीतियों के क्रियान्वयन के लिए सामाजिक पृश्ठभूमि तैयार करना।
  2. स्वास्थ्य एवं कल्याण के क्षेत्र में स्थानीय, प्रांतीय तथा राष्ट्रीय स्तर पर कार्य करना। 
  3.  आंकड़ों का एकत्रीकरण एवं सूचनाओं का विश्लेशीकरण करना। 
  4. अविकसित तथा पिछडे़ समूहों के विकास के लिए आवश्यक मांग करना। 
  5. समस्याओं के लिए ठोस निराकरण एवं प्रस्ताव प्रस्तुत करना।
  6. नवीन सामाजिक स्रोतों का अंवेशण। 
  7.  सामाजिक समस्याओं के प्रति जनता में जागरूकता लाना।
  8. जनता का सहयोग प्राप्त करना। 
  9. सरकारी तंत्र का सहयोग लेना। 
  10. नीति निर्धारक सत्ता से प्रस्ताव स्वीकृत कराना।

समाजशास्त्र के अध्ययन की विषय-वस्तु के रूप में सामाजिक क्रिया तथा इसकी अध्ययन पद्धति के रूप में वर्स्टहीन या व्याख्यात्मक बोध को स्पष्ट करने के साथ ही वेबर ने यह भी स्पष्ट किया कि समाजशास्त्र को केवल सिद्धान्त निर्माण तक सीमित रखना सही नहीं है। उन्होंने आनुभविक आधार पर पूंजीवादी व्यवस्था पर धार्मिक आचारों के प्रभाव का विश्लेषण करके यह स्पष्ट किया कि आनुभविक अध्ययनों के द्वारा विभिन्न प्रकार की सामाजिक क्रियाओं की व्यवस्थित विवेचना की जा सकती है।

समाजशास्त्र के संस्थापकों के विचारों से स्पष्ट होता है कि एक परिप्रेक्ष्य के रूप में समाजशास्त्र की प्रकृति दूसरे सामाजिक विज्ञानों से भिन्न है। समाजशास्त्र के अध्ययन का दृष्टिकोण व्यक्तिवादी न होकर समग्रतावादी होता है। समाजशास्त्रीय ज्ञान भावनाओं पर आधारित नहीं होता बल्कि यह उन्हीं घटनाओं को सामाजिक वास्तविकता के रूप में देखता है जिनकी सत्यता की जांच की जा सके। सामाजिक क्रिया समाजशास्त्र सामाजिक जीवन के विभिन्न पक्षों में समन्वय करके एक ऐसे दृष्टिकोण को लेकर अध्ययन करने पर बल देता है जिससे किसी समाज और संस्कृति की प्रतिनिधि विशेषताओं को समझा जा सके।

समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य से यह भी स्पष्ट होता है कि समाजशास्त्र में व्यक्ति के विभिन्न व्यवहारों और क्रियाओं का अध्ययन उसकी प्रस्थिति और भूमिका को ध्यान में रखते हुए किया जाता है। समाजशास्त्र में सामाजिक घटनाओं का अध्ययन तटस्थ रूप से किया जाता है। इसी को हम वैज्ञानिक दृष्टिकोण कहते हैं इसका तात्पर्य है कि समाजशास्त्रीय अध्ययन कल्पना से सम्बन्धित नहीं होते। इनका सम्बन्ध ‘क्या होना चाहिए’ अथवा ‘ऐसा होना ही था’ आदि से नहीं होता समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य स्पष्ट करता है कि समाजशास्त्र केवल वास्तविक घटनाओं तथा उनके कारणों और परिणामों की व्याख्या से सम्बन्धित है।

वर्तमान में समाजशास्त्र को परिभाषित करके इसके अध्ययन क्षेत्र का जिस रूप में निर्धारण किया गया है, वह समाजशास्त्र के परिप्रेक्ष्य से ही सम्बन्धित है। इसके बाद भी यह ध्यान रखना आवश्यक है कि एक परिप्रेक्ष्य के रूप में समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण दो मुख्य भागों अथवा सम्प्रदायों में विभाजित हैं। इनमें से एक को हम स्वरूपात्मक सम्प्रदाय’ तथा दूसरे को ‘समन्वयात्मक सम्प्रदाय’ कहते हैं। सामाजिक क्रिया स्वरूपात्मक सम्प्रदाय (Formal School) मुख्य रूप से जार्ज सिमेल, मैक्स वेबर तथा टॉनीज के विचारों पर आधारित है।

इन विद्वानों का यह मानना है कि सामाजिक सम्बन्धों का क्षेत्र इतना व्यापक है कि समाजशास्त्र में सभी तरह के सम्बन्धों का अध्ययन करने से इसे एक विज्ञान का रूप नहीं दिया जा सकता। समाजशास्त्र को एक स्वतन्त्र विज्ञान के रूप में विकसित करने के लिए यह जरूरी है कि समाजशास्त्र में सामाजिक सम्बन्धों के कुछ प्रमुख स्वरूपों का ही अध्ययन किया जाये। इसके लिए जार्ज सिमेल ने यह विचार दिया कि समाजशास्त्र में केवल सामाजिक सम्बन्धों के स्वरूपों का ही अध्ययन किया जाना चाहिए।

उन्होंने स्पष्ट किया कि भौतिक वस्तुओं की तरह सामाजिक सम्बन्धों का भी एक स्वरूप होता है और दूसरी ‘अन्तर्वस्तु’। उदाहरण के लिए, सहयोग, समायोजन, एकीकरण, प्रतिस्पर्द्धा, संघर्ष, अनुकरण तथा प्रभुत्व आदि सामाजिक क्रिया के कुछ प्रमुख स्वरूप हैं। इनके अध्ययन के द्वारा समाजशास्त्र का एक पृथक् दृष्टिकोण विकसित किया जा सकता है।

जैसा कि पहले स्पष्ट किया जा चुका है, मैक्सवेबर ने समाजशास्त्र में केवल उन्हीं मानवीय व्यवहारों के अध्ययन पर बल दिया जो सामाजिक क्रिया के रूप में अर्थपूर्ण होते हैं। टॉनीज ने लिखा कि समाजशास्त्र को दूसरे सामाजिक विज्ञानों से स्वतन्त्र रखने के लिए यह आवश्यक है कि इससे सम्बन्धित नियम और पद्धतियां अन्य सामाजिक विज्ञानों से पूरी तरह स्वतन्त्र हों। इसके लिए उन्होंने ‘विशुद्ध समाजशास्त्र’ (Pure Sociology) की अवधारणा को विकसित किया।

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