सामाजिक अध्ययन पाठ्यक्रम निर्माण के सिद्धांत – पाठ्यक्रम, शैक्षिक उद्देश्यों की प्राप्ति का साधन होता है अर्थात् शैक्षिक क्रियाकलापों की पूर्णतया यों कहें कि शिक्षा प्रक्रिया को लक्ष्य तक पहुँचाने का मात्र एक साधन। पाठ्यक्रम के स्वरूप में शिथिलता या कोई भी दोष अधिगमकर्त्ता की निष्क्रियता को जन्म दे सकता है, जिससे शिक्षा के स्वरूप का पूरा ढांचा ही चरमरा जाएगा।
सामाजिक अध्ययन पाठ्यक्रम निर्माण के सिद्धांत
पाठ्यक्रम की रचना करते समय विभिन्न दृष्टिकोणों, आवश्यकताओं एवं स्थितियों तथा परिस्थितियों को ध्यान में रखना अनिवार्य है। इन्हीं समस्त आधारों को निम्नलिखित सिद्धान्तों के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है-
उद्देश्य प्राप्ति का सिद्धांत
पाठ्यक्रम का सर्वप्रथम एवं सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका शिक्षा के उद्देश्यों की प्राप्ति है। अतः इसकी रचना करते समय इस तथ्य को ध्यान में रखना चाहिए कि जिस स्तर का पाठ्यक्रम निर्मित किया जा रहा है, उसके द्वारा उस स्तर पर निर्धारित उद्देश्यों की प्राप्ति सम्भव है या नहीं। जिस स्तर का पाठ्यक्रम है उसमें उसी स्तर के उद्देश्यों के अनुरूप पाठ्य-सामग्री एवं क्रियाओं को सम्मिलित किया जाना चाहिए जिनके ज्ञान एवं अभ्यास से बालक वैसे बन सके जैसा कि हम उन्हें बनाना चाहते है।

उपयोगिता का सिद्धांत
पाठ्यक्रम में निर्धारित पाठ्य सामग्री उपाध्यक्ष परक तभी हो सकती है जबकि यह उपयोगी भी हो। अतः पाठ्यक्रम निर्धारण में उसी ज्ञान, तथ्यों एवं क्रियाओं को सम्मिलित करना चाहिए जो सामान्य एवं वास्तविक जीवन के लिए उपयोगी हों, तभी बालक विभिन्न जानकारियों एवं क्रियाओं के माध्यम से शिक्षा के उद्देश्य प्राप्ति की ओर शनैः शनैः कदम बढ़ायेगा। आप सामाजिक अध्ययन पाठ्यक्रम Hindibag पर पढ़ रहे हैं।
क्रमबद्धता का सिद्धांत
पाठ्यक्रम में विभिन्न पाठ्य-विषयों एवं क्रियाओं को उनके महत्व व उपयोगिता के आधार पर क्रमबद्ध ढंग से स्थान देना आवश्यक है, तभी वह पाठ्यक्रम अधिकाधिक फलदायी होगा। हम जानते हैं कि पाठ्यक्रम में सामान्यतः विभिन्न विषयों एवं क्रियाओं को सम्मिलित किया जाता है किन्तु उनमें से कुछेक अधिक महत्व के, कुठेक सामान्य महत्व के विषय एवं क्रियायें होती है, अतः पाठ्यक्रम में उन विषयों एवं क्रियाओं को स्थान देते समय उनकी उपयोगिता के आधार पर क्रमबद्ध करना चाहिए।

भविष्यदर्शिता का सिद्धांत
सामाजिक अध्ययन पाठ्यक्रम निर्माण करते समय इस तथ्य को भी ध्यान में रखना चाहिए कि शिक्षा बालक को एक अनजान भविष्य के लिए तैयार करने की प्रक्रिया है। अतः पाठ्यक्रम निर्माताओं को शिक्षा प्रक्रिया के एक मुख्य अंग के रूप में इसके निर्माण में भावी युग में उभरते नवाचारों को (दृष्टिकोणों) को संदर्भ देते हुए इसे निर्मित करना चाहिए ताकि बालक जब व्यावहारिक जीवन में प्रवेश करे तो उसे उस यातावरण में समायोजन में कोई कठिनाई न आए अर्थात् इस दृष्टिकोण से पाठ्यक्रम द्वारा बालक को अद्यतन (up to date) बनाये रखना होगा। सामाजिक अध्ययन पाठ्यक्रम
बालक की मनोवैज्ञानिक विशेषताओं में समावेश का सिद्धांत
जब से बालमनोविज्ञान ने जन्म लिया है तभी से यह तथ्य स्पष्ट हुआ है कि बालक लघु-प्रौढ़ नहीं है। उसमें उसकी उम्र के आधार पर विभिन्न मनोवैज्ञानिक विशेषताएं होती हैं, उन्हीं के आधार पर उसकी रुचियों, योग्यताएं, रुझान एवं क्षमताएं निर्धारित होती हैं। अतः सामाजिक अध्ययन पाठ्यक्रम निर्माताओं को इन मनोवैज्ञानिक विशेषताओं के समावेश के सिद्धान्त के अनुसार पाठ्यक्रम में उस पाठ्य-वस्तु एवं विभिन्न क्रियाओं को समावेशित करना चाहिए जो उस स्तर के बालकों की रुचि, योग्यता, रुझान एवं क्षमताओं के अनुरूप हो, तभी बालक उस पाठ्य-वस्तु से संबंधित ज्ञान को एवं विभिन्न क्रियाओं को सहजता के साथ सीख सकेगा और शिक्षा प्रक्रिया के अभिन्न अंग के रूप में पाठ्यक्रम की सार्थकता को यथार्थ कर सकेगा।

क्रियाशीलता का सिद्धांत
हम जानते हैं कि सक्रियता अधिगम (सीखना, learning) को तीव्रगामी बनाती है। यहाँ सक्रियता का तात्पर्य बालक की क्रियाशीलता से ही है। बालक जितना अधिक क्रियाशील होगा (अधिगम के प्रति ) शिक्षा प्रक्रिया भी उतनी ही तीव्र होगी। बालक की क्रियाशीलता उसकी रुचियों, रुझानों, योग्यताओं एवं क्षमताओं के अनुसार पाठ्यवस्तु के होने पर अधिक होती है अतः इन तथ्यों को दृष्टि में रखना ही पाठ्यक्रम का निर्माण करना चाहिए। आप सामाजिक अध्ययन पाठ्यक्रम Hindibag पर पढ़ रहे हैं।
सृजनात्मकता का सिद्धांत
सृजनात्मकता का सिद्धान्त प्राथमिक एवं माध्यमिक स्तर के आयुवर्ग के बालक क्रियाशील होते हैं। तभी तो ‘करके सीखने’ के सिद्धान्त का निरूपण हुआ। यहां एक तथ्य और ध्यान देने योग्य है, यह यह कि कठोर अनुशासन के स्थान पर स्वतंत्र वातावरण मिलने पर बालकों में सृजनात्मक (creative) क्षमताओं का विकास होता है। अतः पाठ्यक्रम निर्माण में इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए उसे निर्मित करना चाहिए कि “स्वयं करके सीखने” के अवसर उन्हें स्वतंत्र वातावरण में दिये जाएं जिससे उनमें सृजनात्मक दृष्टिकोण का विकास हो सके।

वैयक्तिक विभिन्नता का सिद्धांत
बाल मनोविज्ञान ने हमें इस तथ्य से अवगत कराया है कि प्रत्येक बालक एक-दूसरे से भिन्न होता है। अतः पाठ्यक्रम की विषयवस्तु एवं क्रियाओं का विस्तारीकरण बालक की वैयक्तिक रुचि, रुझान, योग्यता एवं क्षमता को ध्यान में रखकर की जानी चाहिए। इससे पाठ्यक्रम की उपयोगिता एवं महत्ता में चार चांद लग जायेंगे। अतः पाठ्यक्रम निर्माताओं को एक विविधता (vividness) से युक्त पाठ्यक्रम का निर्माण करना चाहिए जिससे वह बालकों की वैयक्तिक आवश्यकताओं एवं रुचियों के साथ अनुकूलन कर सके।
वास्तविक जीवन में सुसम्बदृता का सिद्धांत
पाठ्यक्रम निर्माण के समय इस तथ्य को ध्यान में रखना चाहिए कि बालक को दिये जाने वाले ज्ञान एवं क्रियाओं का वास्तविक जीवन से सम्बन्ध होना चाहिए, अन्यथा बालक के लिए उस पाठ्यक्रम का कोई व्यावहारिक अर्थ नहीं रह जाएगा। आप सामाजिक अध्ययन पाठ्यक्रम Hindibag पर पढ़ रहे हैं।

समन्वय का सिद्धांत
इस सिद्धान्त का तात्पर्य यह है कि सामाजिक अध्ययन के पाठ्यक्रम की विभिन्न विषय सामग्री एवं जो भी क्रियाएं कराई जाएं उनमें आपस में सम्वन्ध होना चाहिए अर्थात् उन्हें एक इकाई के रूप में विकसित किया जाना चाहिए तथा विषय विशेष की सामग्री का अन्य विषयों से भी सह-संबंध होना चाहिए। इससे विषय विशेष की पाठ्य सामग्री की उपयोगिता अत्यधिक बढ़ जाएगी।
लचीलेपन का सिद्धांत
यह तो स्वाभाविक ही है कि पाठ्यक्रम को वाल केन्द्रित रखना चाहिए, साथ ही एक बालक की दूसरे बालक से भिन्नता के आधार पर पाठ्यवस्तु एवं उसकी संबंधित क्रियाओं में विस्तार करते हुए अधिक से अधिक सम्भावित क्रियाओं को उसमें स्थान देना चाहिए। जिससे सभी वर्गों एवं इच्छाओं तथा क्षमताओं वाले बालक उससे अपने विकल्पानुसार लाभान्वित हो सकें। आप सामाजिक अध्ययन पाठ्यक्रम Hindibag पर पढ़ रहे हैं।

इसके अतिरिक्त, एक तथ्य और ध्यान में रखा जाए कि पाठ्यक्रम निर्माताओं को विभिन्न क्षेत्रीय एवं स्थानीय आवश्यकताओं के सापेक्ष तथा विभिन्न रुचियों, योग्यताओं एवं क्षमताओं के संदर्भ में एक अत्यन्त लचीला पाठ्यक्रम उपलब्ध कराया जाए जिससे सभी प्रकार की रुचि, रुझान, योग्यता एवं क्षमता वाले बालक अपनी रुचियों आदि के आधार पर विषय-वस्तु एवं क्रियाओं आदि का चयन कर सकने में समर्थ हो सके। यहाँ यह तथ्य अपेक्षित एवं स्मरणीय है कि पाठ्यक्रम बालक के लिए है, न कि बालक पाठ्यक्रम के लिए। अतः बालकों के ऊपर पाठ्यक्रम थोपने का कार्य न किया जाना चाहिए।