सरोज स्मृति सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का एक शोक गीत है। जिसमें कवि ने अपनी युवा कन्या सरोज की अकाल मृत्युपर अपने शोक संतप्त हृदय के उद्गार व्यक्त किए हैं। इस प्रसिद्ध लोकगीत में जीवन की पीड़ा और संघर्षों के हलाहल का पान करने वाले कविवर निराला के निजी जीवन के कुछ अंशों का उद्घाटन भी है। छायावादी कवि होने के कारण निराला ने अपनी बात को प्रतीकात्मक शैली में अभिव्यक्त किया है। किंतु अपवाद रूप में लिखी गई सरोज स्मृति जैसे कतिपय रचनाओं में उनकी आत्मचरित्र आत्मक शैली परिलक्षित होती है।

सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' हिन्दी कविता के छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभों में से एक माने जाते हैं। वे जयशंकर प्रसाद, सुमित्रानंदन पंत और महादेवी वर्मा के साथ हिन्दी साहित्य में छायावाद के प्रमुख स्तंभ माने जाते हैं। उन्होंने कई कहानियाँ, उपन्यास और निबंध भी लिखे हैं किन्तु उनकी ख्याति विशेषरुप से कविता के कारण ही है।
21 फरवरी, 1896
बंगाल की महिषादल जिला मेदिनीपुर
15 अक्टूबर, 1961
पंडित रामसहाय तिवारी
सरोज स्मृति
कवि का विद्रोह और क्रांति दर्शी समभाव पुत्री सरोज के प्रति उसका जीवन की ठोकर दर्शाई गई हैं। सरोज स्मृति कविता सरोज की मृत्यु के 2 वर्ष बाद सन 1935 ईस्वी में लिखी गई थी। अपनी पुत्री को संबोधित करते हुए इसमें कभी कहता है।मैं आज पूर्ण विकास का वर्णन कर रही हूं या मेरी मित्र नहीं है अपितु ज्योति की शरण में जाना है।यह सोचकर इस धरती से चली गई कि जब मेरे पिता समर्थ और असहाय अवस्था में जीवन रूपी मार्ग को पार करने का प्रयत्न करेंगे तो सामंतवाद में उन्हें संसार से पार उतार दूंगी इसके अलावा तेरे यहां से जाने का कोई कारण नहीं था।

सरोज जब सवा साल की थी। निराला जी की पत्नी की मृत्यु हो गई उनकी सास ने बहुत चाहा कि वह दूसरा विवाह कर ले कुंडली देखकर ज्योतिष ने भी बताया कि उनके भाग्य में विवाह का योग है। निराला ने आदमी उसका साहस दृढ़ निश्चय और पुरुषार्थ के साथ आज हुई जन्मपत्री अपनी 2 वर्षीय पुत्री सरोज को खेलने के लिए दे दी और स्वयं को मंगली बताते हुए विवाद से इंकार कर दिया।
जब सरोजी हुई और उसके विवाह का समय निकट आया और वर की तलाश शुरू हुई तो निराला का विद्रोही व्यक्तित्व प्राचीन दूरी और परंपराओं को तोड़ने के लिए व्यग्र हो उठा नियमों का बंधन तोड़ कर नवीन पद्धत से उन्होंने एक साहित्य विचारों वाले युवक से सरोज का विवाह किया। स्वयं लग्न के मंत्र पढ़े दहेज देकर मूर्ख नहीं बने शकुंतला की पुत्री को विदा किया।
कुछ दिन बाद इसी पुत्री ने लिया भाग कितने का दम भरने वाले से आहत होकर टूट गया है। निराला की सरोज स्मृति कविता करुणा व्यंग तथा दिव्य सौंदर्य का एक गीत है। जिसके शब्द में निराला की है इसमें का महत्व महान व्यक्तित्व प्रकट हुआ है।

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की रचनाएँ
वे मूल रूप से उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले के गढ़ाकोला नामक गाँव के निवासी थे, निराला की शिक्षा हाई स्कूल तक हुई। बाद में हिन्दी संस्कृत और बाङ्ला का स्वतंत्र अध्ययन किया। पिता की छोटी-सी नौकरी की असुविधाओं और मान-अपमान का परिचय निराला को आरम्भ में ही प्राप्त हुआ। उन्होंने दलित-शोषित किसान के साथ हमदर्दी का संस्कार अपने अबोध मन से ही अर्जित किया। तीन वर्ष की अवस्था में माता का और बीस वर्ष का होते-होते पिता का देहांत हो गया। अपने बच्चों के अलावा संयुक्त परिवार का भी बोझ निराला पर पड़ा। पहले महायुद्ध के बाद जो महामारी फैली उसमें न सिर्फ पत्नी मनोहरा देवी का, बल्कि चाचा, भाई और भाभी का भी देहांत हो गया। शेष कुनबे का बोझ उठाने में महिषादल की नौकरी अपर्याप्त थी। इसके बाद का उनका सारा जीवन आर्थिक-संघर्ष में बीता। निराला के जीवन की सबसे विशेष बात यह है कि कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी उन्होंने सिद्धांत त्यागकर समझौते का रास्ता नहीं अपनाया, संघर्ष का साहस नहीं गंवाया। जीवन का उत्तरार्द्ध इलाहाबाद में बीता। वहीं दारागंज मुहल्ले में स्थित रायसाहब की विशाल कोठी के ठीक पीछे बने एक कमरे में 15 अक्टूबर 1961 को उन्होंने अपनी इहलीला समाप्त की।
सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' की पहली नियुक्ति महिषादल राज्य में ही हुई। उन्होंने 1918 से 1922 तक यह नौकरी की। उसके बाद संपादन, स्वतंत्र लेखन और अनुवाद कार्य की ओर प्रवृत्त हुए। 1922 से 1923 के दौरान कोलकाता से प्रकाशित 'समन्वय' का संपादन किया, 1923 के अगस्त से मतवाला के संपादक मंडल में कार्य किया। इसके बाद लखनऊ में गंगा पुस्तक माला कार्यालय में उनकी नियुक्ति हुई जहाँ वे संस्था की मासिक पत्रिका सुधा से 1935 के मध्य तक संबद्ध रहे। 1935 से 1940 तक का कुछ समय उन्होंने लखनऊ में भी बिताया। इसके बाद 1942 से मृत्यु पर्यन्त इलाहाबाद में रह कर स्वतंत्र लेखन और अनुवाद कार्य किया। उनकी पहली कविता जन्मभूमि प्रभा नामक मासिक पत्र में जून 1920 में, पहला कविता संग्रह 1923 में अनामिका नाम से, तथा पहला निबंध बंग भाषा का उच्चारण अक्टूबर 1920 में मासिक पत्रिका सरस्वती में प्रकाशित हुआ।
- अनामिका
- परिमल
- गीतिका
- अनामिका (द्वितीय)
- तुलसीदास
- कुकुरमुत्ता
- अणिमा
- बेला
- नये पत्ते
- अर्चना
- आराधना
- गीत कुंज
- सांध्य काकली
- अपरा
- अप्सरा
- अलका
- प्रभावती
- निरुपमा
- कुल्ली भाट
- बिल्लेसुर बकरिहा
- चमेली
- लिली
- सखी
- चतुरी चमार
- देवी
- सुकुल की बीवी
- रवीन्द्र कविता कानन
- प्रबंध पद्म
- प्रबंध प्रतिमा
- चाबुक
- चयन
- संग्रह
- महाभारत
- रामायण की अन्तर्कथाएँ
- रामचरितमानस (विनय-भाग)-1948 (खड़ीबोली हिन्दी में पद्यानुवाद)
- आनंद मठ (बाङ्ला से गद्यानुवाद)
- विष वृक्ष
- कृष्णकांत का वसीयतनामा
- कपालकुंडला
- दुर्गेश नन्दिनी
- राज सिंह
- राजरानी
- देवी चौधरानी
- युगलांगुलीय
- चन्द्रशेखर
- रजनी
- श्रीरामकृष्णवचनामृत (तीन खण्डों में)
- परिव्राजक
- भारत में विवेकानंद
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