समाज अर्थ परिभाषा विशेषताएँ तथा समाज तथा समुदाय में 9 अंतर

समाजशास्त्र समाज का वैज्ञानिक अध्ययन है। इसके बाद भी सभी सामाजिक विज्ञानों में ‘समाज’ शब्द का उपयोग एक-दूसरे से बहुत भिन्न अर्थ में किया जाता रहा है। बोलचाल की सामान्य भाषा में हम ‘समाज’ शब्द का उपयोग जिस अर्थ में करते हैं, समाज का समाजशास्त्रीय अर्थ उससे बहुत भिन्न है। साधारणतया हम यह समझते हैं कि समाज का तात्पर्य व्यक्तियों के किसी भी समूह अथवा संगठन से है। जब हम हिन्दू समाज, ईसाई समाज अथवा मुस्लिम समाज जैसे शब्दों का प्रयोग करते हैं, तब यहां पर समाज से हमारा अभिप्राय व्यक्तियों के एक संगठन से ही होता है।

समाज का अर्थ

कभी-कभी समान विशेषताओं अथवा समान व्यवसाय से सम्बन्धित लोगों को भी समाज के रूप में स्पष्ट कर दिया जाता है। इसी कारण हम अक्सर शिक्षक समाज, विद्यार्थी समाज, मजदूर समाज तथा दलित समाज जैसे शब्दों का प्रयोग कर लेते हैं। विभिन्न सामाजिक विज्ञानों में भी समाज का अर्थ एक-दूसरे से भिन्न देखने को मिलता है। उदाहरण के लिए, राजनीतिशास्त्र में समाज को एक राजनीतिक समूह के रूप में स्पष्ट किया जाता है।

अर्थशास्त्र में समाज का तात्पर्य कुछ विशेष तरह की आर्थिक क्रियाएं करने वाले लोगों के समूह’ से समझा जाता है। मानवशास्त्र में आदिवासी समुदायों को एक विशेष समाज के रूप में देखा जाता है, जबकि मनोविज्ञान में मानसिक अन्तक्रियाएं करने वाले लोगों के समूह को समाज कह दिया जाता है। इनमें से कोई भी अर्थ समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से सही नहीं है।

समाज की परिभाषा

समाजशास्त्र में समाज का तात्पर्य व्यक्तियों के किसी समूह अथवा संगठन से नहीं होता बल्कि व्यक्तियों के बीच पाये जाने वाले सम्बन्धों की व्यवस्था को ही हम समाज कहते हैं। इस दृष्टिकोण से यह आवश्यक है कि विभिन्न समाजशास्त्रियों द्वारा दी गयी समाज की कुछ मुख्य परिभाषाओं को समझा जाय।

समाज रीतियों, कार्यनिधियों, अधिकार और पारस्परिक सहायता, अनेक समूहों और उप-विभागों, मानव व्यवहा के नियन्त्रणों तथा स्वतन्त्रता की व्यवस्था है। यह सामाजिक सम्बन्धों का जाल है तथा सदैव परिवर्तित होता रहता है।

मैकाइवर तथा पेज

समाज स्वयं में एक संघ अथवा संगठन है अथवा औपचारिक सम्बन्धों का ऐसा योग है जिसमें सहयोग देने वाले लोग पारस्परिक सम्बन्धों द्वारा जुड़े रहते हैं।

गिडिंग्स

समाज एक अमूर्त धारणा है जो एक समूह के सदस्यों के बीच पाये जाने वाले पारस्परिक सम्बन्धों की सम्पूर्णता का बोध कराती है।

इयूटर

समाज ऐसे व्यक्तियों का संग्रह है जो अनेक संबंधो और व्यवहार की विधियो द्वारा संगठित है तथा उन व्यक्तियों से भिन्न है जो इस प्रकार के सम्बन्धों द्वारा बंधे हुए नहीं जिनके व्यवहार से उनसे भिन्न हैं।

गिन्सबर्ग

समाज को उन मानवीय सम्बन्धों की जटिलता के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जो साधन और साध्य के रूप में की गधी क्रिया के फलस्वरूप उत्पन्न होते हैं, चाहे वे यथार्थ हो या केवल प्रतीकात्मक।

पारसन्स

बाह्य रूप से उपर्युक्त सभी परिभाषाएं एक-दूसरे से भिन्न प्रतीत होती हैं, लेकिन भाषा में कुछ भिन्नता होने के बाद भी सभी परिभाषाएं तीन प्रमुख तथ्यों को ही स्पष्ट करती हैं। पहला तथ्य यह है कि समाज का समाज से होता है सामाजिक सम्वन्ध क्योंकि अमूर्त जटिल और परिवर्तनशील होते हैं. इसीलिए समाज को भी एक अमूर्त जटिल और परिवर्तनशील व्यवस्था कहा जाता है।

दूसरी बात यह है कि समाज का निर्माण करने वाले सामाजिक सम्बन्ध मनमाने न होकर बहुत-से सांस्कृतिक नियमों से बंधे रहते हैं। यही कारण है कि समाजशास्त्र के प्रकार्यात्मक अर्थ के अनुसार समाज को अन्तर-सम्बन्धित इकाइयों की भूमिकाओं से बनने वाली संरचना अथवा व्यवस्था के रूप में स्पष्ट किया गया है। तीसरा तथ्य यह है कि इसमें व्यक्ति का महत्व केवल इसी अर्थ में है कि व्यक्तियों द्वारा ही सामाजिक सम्बन्धों की स्थापना की जाती है। स्वयं व्यक्तियों के एकत्रीकरण को ही समाज नहीं कहा जा सकता ।

मानव समाज की विशेषताएं

वास्तविक यह है कि केवल कुछ परिभाषाओं के आधार पर ही समाज की अवधारणा को समुचित रूप से समझ सकना बहुत कठिन है। ‘सामाजिक सम्बन्धों की व्यवस्था’ के रूप में भी समाज को तभी समझा जा सकता है जब इसकी प्रमुख विशेषताओं को ध्यान में रखा जाए। मैकाइबर तथा किंग्सले डेविस ने समाज की अवधारणा को जिन विशेषताओं के आधार पर स्पष्ट किया है, उन्हें संक्षेप में निम्नांकित रूप से स्पष्ट किया जा सकता है:

  1. समाज अमूर्त है
  2. समाज सामाजिक सम्बन्धों का जाल है
  3. पारस्परिक जागरूकता
  4. समाज में समानता तथा भिन्नता का समावेश
  5. समाज में सहयोग और संघर्ष का समावेश
  6. पारस्परिक निर्भरता
  7. समाज परिवर्तनशील है
  8. समाज केवल मनुष्यों तक ही सीमित नहीं है।

1. समाज अमूर्त है

समाज की सबसे पहली विशेषता यह है कि यह एक अमूर्त व्यवस्था है। समाज का निर्माण जिन पारस्परिक सम्बन्धों और अन्तर्क्रियाओं से होता है, उन्हें न तो हम देख सकते हैं और न ही भौतिक वस्तुओं की तरह उनका स्पर्श किया जा सकता है। इन सम्बन्धों से हम केवल प्रभावित होते हैं। अपनी प्रत्येक क्रिया में उनका अनुभव करते हैं।

समाज व्यक्तियों का समूह नहीं है बल्कि समूह के सदस्यों के बीच स्थापित होने वाले सम्बन्धों की एक व्यवस्था है और इसी दृष्टिकोण से यह अमूर्त है।

राइट

समाज एक वास्तविकता है जो अपने प्रकार (type) में व्यक्ति की वास्तविकता से भिन्न है।

दुर्खीम
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3. समाजशास्त्र की वैज्ञानिक प्रकृति
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5. समाजशास्त्र तथा मानवशास्त्र में संबंध
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2. भारतीय सामाजिक व्यवस्था के 5 आधार

2. समाज सामाजिक सम्बन्धों का जाल है

मैकाइवर ने इसकी प्रकृति को ‘मकड़े के एक जाल के समान’ बताया है। जिस एक जाल के सभी तार परिवार, आर्थिक संघों, राजनैतिक समूहों तथा धार्मिक समितियों में विभिन्न प्रकार क्रियाएं करते हुए व्यक्ति जिन सम्बन्धों की स्थापना करते हैं, वे बहुत-कुछ व्यवस्थित तथा एक-दूसरे पर आधारित होते हैं। इसी कारण इसे एक ‘व्यवस्था’ कहा जाता है।

3. पारस्परिक जागरूकता

सामाजिक सम्बन्धों की स्थापना करने वाले लोगों की ‘पारस्परिक जागरूकता’ को डेविस ने समाज की एक प्रमुख विशेषता के रूप में स्पष्ट किया है। वास्तव में, सभी सम्बन्धों को दो भागों में वांटा जा सकता है—प्रथम तो वे जिन्हें हम देख सकते हैं, जैसे- आग और धुएं का सम्बन्ध अथवा दीवार और चित्र का सम्बन्ध। ऐसे सम्बन्धों को हम भौतिक सम्बन्ध कहते हैं क्योंकि इन्हें सरलता से देखा जो सकता है। ऐसे सम्बन्ध वे हैं जो कुछ लोगों के प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष सम्पर्क के कारण धीरे-धीरे विकसित होने रहते हैं।

इन सम्बन्धों की स्थापना व्यक्ति द्वारा जागरूकता की दशा में की जाती है। यह जागरूकता सम्भव है जब हमें दूसरे व्यक्तियों के अस्तित्व की जानकारी हो इन्हीं सम्बन्धों को सामाजिक स जाता है। यह ध्यान रखना भी आवश्यक है कि सामाजिक सम्बन्धों का निर्माण करने जागरूकता सदैव प्रत्यक्ष ही नहीं होती बल्कि अप्रत्यक्ष भी हो सकती है। उदाहरण के लिए, यदि हम टेलीविजन में किसी नेता के ओजस्वी भाषण को सुनकर उसका अनुसरण करने लगें, तब यह अप्रत्यक्ष जागरूकता की दशा होगी। यह जागरूकता चाहे प्रत्यक्ष हो अथवा अप्रत्यक्ष, समाज का निर्माण केवल उन्हीं सम्बन्धों के द्वारा होता है, जो जागरूकता की दशा में स्थापित किये जाते हैं।

4. समाज में समानता तथा भिन्नता का समावेश

समाज की एक प्रमुख विशेषता समानता और भिन्नता का समान महत्व है। समानता का तात्पर्य एक समाज के सदस्यों में लगभग समान दृष्टिकोण और समान उद्देश्यों का होना है। रिडिंग्स ने इसे ‘समानता की चेतना’ के नाम से है। दुखीम का यहां तक कहना है कि “समाज सादृश्यता की सामूहिक चेतना ही है।” भिन्नता का तात्पर्य एक समाज के सदस्यों की याग्यता, कार्यों तथा हितों में भिन्नता होना है।

इस असमानता के क कारण ही समाज में कुछ सदस्य साधारण पदों पर आसीन होते हैं, जबकि कुछ व्यक्ति अधिक अधिकार प्राप्त करके दूसरे लोगों के व्यवहारों पर नियन्त्रण रखते हैं। इसी से प्रभुत्व और अनुसरण के सम्बन्धों का विकास होता है। कार्यों की असमानता होने से सभी लोगों को अपनी-अपनी आवश्यकताएं पूरी करने का अवसर मिलता है और इसी के फलस्वरूप समाज में नये-नये आविष्कार सम्भव हो पाते हैं।

5. समाज में सहयोग और संघर्ष का समावेश

समाज के निर्माण में सहयोग और संघर्ष दो प्रमुख तत्व हैं। इसका तात्पर्य यह है कोई भी समाज ऐसा नहीं मिलेगा जिसमें सहयोग और संघर्ष की विशेषताएं साथ-साथ विद्यमान न हों। व्यक्ति विभिन्न परिस्थितियों में जहां एक ओर कुछ लोगों को तरह-तरह से सहयोग देते हैं, वहीं कुछ लोगों के प्रति उनका दृष्टिकोण संघर्ष, प्रतियोगिता, घृणा अथवा द्वेष का भी होता एक समय में जिस व्यक्ति को हम प्रेम, स्नेह और सहायता के रूप में सहयोग दे होते दूसरे समय में उसी के साथ हम संघर्षपूर्ण अथवा शत्रुता का व्यवहार करने लगते हैं।

विभिन्न दशाओं में स्थापित होने वाला सहयोग भी दो प्रकार का हो सकता है—प्रत्यक्ष सहयोग (direct co-operation) तथा अप्रत्यक्ष सहयोग (indirect co-operation)। एक टीम के खिलाड़ियों का साथ-साथ खेलना अथवा परिवार के सभी सदस्यों का मिल-जुलकर काम करना प्रत्यक्ष सहयोग के उदाहरण हैं। दूसरी ओर, एक कारखाने के श्रमिकों द्वारा श्रम विभाजन के द्वारा कार्य करना अथवा संचार साधनों के द्वारा लोगों को रचनात्मक कार्यों की ओर प्रेरित करना अप्रत्यक्ष सहयोग की दशा को स्पष्ट करता है।

इसी तरह समाज में संघर्ष भी दो प्रकार का हो सकता है— प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष पति-पत्नी के बीच विवाह विच्छेद होना, दो समूहों के बीच मार-पीट होना, साम्प्रदायिक झगड़े तथा युद्ध आदि प्रत्यक्ष संघर्ष के उदाहरण हैं। अप्रत्यक्ष संघर्ष आमने-सामने का नहीं होता बल्कि इसका तात्पर्य अप्रत्यक्ष रूप से दूसरे व्यक्तियों अथवा समूहों के हितों में बाधा उत्पन्न करना होता है। आज के युग में प्रतियोगिता (competition) और शीतयुद्ध (cold-war) अप्रत्यक्ष संघर्ष के उदाहरण है।

समाज के निर्माण में सहयोग और संघर्ष के समान महत्व को स्पष्ट करते हुए मैकाइवर ने लिखा है कि, “समाज संघर्ष मिश्रित सहयोग है।” (Society is co-operation crossed by conflict) इसका तात्पर्य यह है कि समाज एक ऐसा सहयोग है जिसकी स्थापना संघर्षो से बचने के लिए की जाती है। सहयोग और संघर्ष समान रूप से महत्वपूर्ण है। एक ओर सहयोग के द्वारा समाज में भाई-चारे और सामूहिकता को प्रोत्साहन मिलता है तो दूसरी ओर, संघर्ष की सहायता से सामाजिक शोषण, अन्याय और कुरीतियों को दूर कर पाना सम्भव हो पाता है। इसके बाद भी यह ध्यान रखना आवश्यक है कि तुलनात्मक रूप से समाज में संघर्ष की अपेक्षा सहयोग का महत्व अधिक है।

6. पारस्परिक निर्भरता

मानव समाज की एक मुख्य विशेषता यह है कि इसका निर्माण जिन सामाजिक सम्बन्धों के द्वारा होता है, वे सभी सम्बन्ध एक-दूसरे पर निर्भर तथा एक-दूसरे के पूरक होते हैं। सम्बन्धों की स्थापना करने वाले व्यक्ति भी अपनी विभिन्न आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए एक-दूसरे पर निर्भर रहते हैं। यह निर्भरता उन्हें समाज के मूल्यों के अनुसार तरह-तरह के सम्बन्ध स्थापित करने की प्रेरणा देती हैं। सच तो यह है कि पारस्परिक निर्भरता की विशेषता के कारण ही समाज में सहयोग और ‘समानता की चेतना’ को प्रोत्साहन मिलता है।

7. समाज परिवर्तनशील है

समाज कभी भी स्थिर (Static) नहीं होता, बल्कि इसमें सदैव परिवर्तन होता रहता है। इसका कारण यह है कि जैसे-जैसे व्यक्तियों की आवश्यकताओं, सामाजिक मूल्यों और दृष्टिकोण में परिवर्तन होता जाता है, सामाजिक सम्बन्धों की प्रकृति भी बदलने लगती है। सम्बन्धों की प्रकृति में होने वाले परिवर्तन के अनुसार ही समाज भी एक नया रूप लेने लगता है।

8. समाज केवल मनुष्यों तक ही सीमित नहीं है।

डेविस का कथन है कि समाज की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता पारस्परिक जागरूकता के आधार पर सदस्यों के बीच सम्बन्धों की स्थापना होना, समूह में सहयोग एवं सदस्यों में समानता और भिन्नता का होना है। मनुष्य के अतिरिक्त अनेक दूसरे जीवधारियों में भी यह विशेषताएं काफी सीमा तक देखने को मिलती हैं।

उदाहरण के लिए, हाथियों, नर-वानरों और यहां तक कि दीमकों और चीटियों के समूहों में भी पारस्परिक जागरूकता, सहयोग, संघर्ष और भिन्नता की विशेषताओं को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। इस दृष्टिकोण से मनुष्य के अतिरिक्त अनेक दूसरे प्राणियों में भी एक समाज होने की कल्पना की जा सकती है। इसके बाद भी यह ध्यान रखना जरूरी है कि मनुष्य के अतिरिक्त दूसरे प्राणियों में पारस्परिक जागरूकता तथा सहयोग की दशा बहुत निम्न स्तर की होती है। इस कारण समाजशास्त्र में हम केवल मानव समाज का ही अध्ययन करते हैं।

समाज तथा समुदाय में अन्तर

समाज की प्रकृति के विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि इसकी प्रकृति समुदाय से भिन्न है। इस दृष्टिकोण से आवश्यक है कि समाज और समुदाय के बीच पाये जाने वाले अन्तर को स्पष्ट किया जाय।

समाजसमुदाय
1.समाज का निर्माण सामाजिक सम्बन्धों से होता है। इसी कारण मैकाइवर ने इसे ‘सामाजिक सम्बन्धों का जाल’ कहा है।समुदाय व्यक्तियों का एक बड़ा समूह है।
2.सामाजिक सम्बन्धों की व्यवस्था होने के कारण समाज की प्रकृति अमूर्त है।समुदाय व्यक्तियों का समूह है। इस कारण इसकी संरचना को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। इस प्रकार समुदाय मूर्त है।
3.समाज का कोई निश्चित भू-भाग नहीं होता। इसके सदस्य बहुत दूर-दूर तक बिखरे हुए सकते हैं। इस प्रकार समाज का आकार बहुत विस्तृत है।प्रत्येक समुदाय के सदस्य एक निश्चित भू-भाग हो के अन्दर रहकर जीवन व्यतीत करते हैं। इसके फलस्वरूप समुदाय का आकार समाज से छोटा रह जाता है।
4.समाज में सहयोग के साथ संघर्ष और समायोजन के साथ प्रतियोगिता के सम्बन्ध भी पाये जाते हैं।समुदाय के विकास में सहयोग पर आधारित सम्बन्धों का ही विशेष महत्व है। इसी सहयोग में सामुदायिक भावना का विकास होता है।
5.समाज में लोगों के स्वार्थ एक-दूसरे से बहुत भिन्न हो सकते हैं।समुदाय के सदस्यों के हितों में समानता देखने को मिलती है।
6.समाज के अन्तर्गत विभिन्न व्यक्तियों की स्थिति में बहुत विषमता पाई जाती है। उनकी सामाजिक आर्थिक, राजनीतिक तथा शैक्षणिक स्थिति एक- दूसरे की तुलना में बहुत उच्च अथवा निम्न हो सकती है।समुदाय की एक मुख्य विशेषता ‘सामान्य जीवन का होना है। स्पष्ट है कि एक समुदाय के सदस्यों की प्रस्थिति, विचारों तथा जीवन के ढंग में अधिक भिन्नता देखने को नहीं मिलती।
7.एक समाज के अन्दर अनेक छोटे-बड़े समुदाय विद्यमान हो सकते हैं।एक समुदाय के अन्दर एक से अधिक इसका प्रभाव नहीं हो सकता।
8.समाज का कोई विशिष्ट नाम’ नहीं होता। यह सामाजिक सम्बन्धों की एक सामान्य व्यवस्था है।प्रत्येक समुदाय का अपना एक विशिष्ट नाम होता है जिसे समुदाय की पहचान कहा जा सकता है।
9.समाज के निर्माण में विभिन्न संस्कृतियों वाले लोगों के पारस्परिक सम्बन्धों का योगदान होता है।एक समुदाय के अन्तर्गत सामान्यतः एक संस्कृति ही पायी जाती है।
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