समाजशास्त्र समाज का व्यवस्थित और वैज्ञानिक अध्ययन है। इसके बाद भी समाजशास्त्र में हम जिस समाज का अध्ययन करते हैं, उसके बारे में हमें ऐसा लगता है कि समाज हमारे लिए कोई नया तथ्य नहीं है, क्योंकि हम सभी समाज में रहते हैं और समाज के बारे में पहले से ही कुछ-न-कुछ जानते हैं। वास्तविकता यह है कि अपने समाज से सम्बन्धित तरह-तरह के समूहों, सामाजिक सम्बन्धों तथा व्यक्तियों द्वारा एक-दूसरे से किए जाने वाले व्यवहारों के विषय में हमारी जो जानकारी होती है।


वह केवल सामान्य समझ पर आधारित जानकारी है जिसका समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से कुछ विशेष लेना-देना नहीं होता। अपने समाज के प्रति सामान्य लोगों की जो जानकारी अथवा धारणाएं होती हैं, वह व्यक्तियों का केवल एक ‘सामान्य बोध’ होता है।
समाजशास्त्र की परिभाषा
समाजशास्त्री समाजशास्त्र को परिभाषित करते हुए लिखते हैं –
समाजशास्त्र वह विज्ञान है जो सामाजिक क्रियाओं का व्याख्यात्मक बोध कराने का प्रयत्न करता है।
मैक्स वेबर (Max Weber)
समाजशास्त्र मानवीय अन्तर्क्रियाओं के स्वरूपों (Forms of social interactions) का अध्ययन करने वाला विज्ञान है।
जार्ज सिमेल (George Simmel)
समाजशास्त्र सामूहिक प्रतिनिधानों का विज्ञान है।
दुखीम (Durkheim)
समाजशास्त्र समग्र रूप में समाज का व्यवस्थित वर्णन और व्याख्या है।
गिडिंग्स (Giddings)
व्यापक अर्थ में, समाजशास्त्र को विभिन्न लोगों के सम्पर्क में आने से उत्पन्न अन्तर्क्रियाओं का अध्ययन कहा जा सकता है।
गिलिन तथा गिलिन (Gillin and Gillin)
समाजशास्त्र सामाजिक सम्बन्धों के विषय में है, सम्बन्धों के इसी जाल को हम समाज कहते हैं।
मैकाइवर (Maclver)
समाजशास्त्र सामाजिक समूहों का विज्ञान है जो सामाजिक समूह सामाजिक अन्तर्क्रियाओं की ही एक व्यवस्था है।
जॉन्सन (H. Johnson)
समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण का सम्बन्ध केवल सामाजिक व्यवस्था और सामाजिक संगठन का अध्ययन करना ही नहीं है बल्कि समाज में अपव्यवस्था पैदा करने वाले तत्वों का तार्किक विशेषण करना भी समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से सम्बन्धित है।
एलेक्स इंकेल्स (Alex Inkeles)
समाजशास्त्र – व्यावहारिक पक्ष
व्यावहारिक रूप से हमारा सामाजिक जीवन एक छोटे से घेरे से बंधा रहता है। हम जिस गांव, कस्बे, नगर या क्षेत्र में रहते हैं, साधारणतया उसी से सम्बन्धित कुछ लोगों के व्यवहार की सामान्य विशेषताओं के आधार पर हमारे मन में तरह तरह की धारणाएं बन जाती है। उदाहरण के लिए गांव के लोगों की यह आम धारणा होती है कि नगर के लोग बहुत स्वार्थी और चालाक होते हैं। दूसरी ओर नगर के लोग ग्रामीणों को बहुत सरल और एक-दूसरे की सहायता करने वाले लोगों के रूप में देखते हैं।
इसी तरह एक सामान्य धारणा यह है कि निर्धन व्यक्ति अधिक अन्धविश्वासी होते हैं जबकि सम्पन्न लोगों के व्यवहार के प्रति धारणा यह है। कि निर्धन व्यक्ति से कम अन्धविश्वासी होते हैं एवं उनके व्यवहार अधिक तार्किक होते हैं। यदि समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से देखा जाए तो इस तरह की धारणाओं का सच होना हमेशा जरूरी नहीं होता। गांवों में बढ़ती हुई शिक्षा और राजनीतिक सहभागिता के कारण यह सम्भव है कि गांव और नगर के निवासियों की मानसिकता में अधिक अन्तर न रह गया हो।
इसी तरह आज आर्थिक रूप से सम्पन्न वर्ग में जिस तरह मानसिक तनाव बढ़ रहे हैं, उसके कारण धार्मिक आयोजनों में उनकी सहभागिता बढ़ने के साथ ही उनमें भी ऐसे विश्वास बढ़ते जा रहे हैं। आय धारणा है कि हिन्दुओं की अधिकांश जनसंख्या शाकाहारी है। इसके विपरीत, जब हम लोगों की भोजन सम्बन्धी रूचियों का आनुभविक आधार पर अध्ययन करते हैं तो स्पष्ट होता है कि हिन्दुओं में आज 70% से भी अधिक व्यक्ति किसी-न-किसी रूप में मांसाहारी हैं।


एक आम धारणा अथवा समझ यह भी है कि वर्तमान समाज में नैतिकता का बहुत तेजी से पतन हो रहा है। दूसरी ओर जब हम नैतिकता के विभिन्न मानदण्डों के आधार पर इसका मूल्यांकन करते हैं तब कोई ऐसा निष्कर्ष सामने आ सकता है कि मानवीय मूल्यों, समाज सेवा के प्रति बढ़ती हुई चेतना तथा नागरिक कर्तव्यों में होने वाली वृद्धि के आधार पर वर्तमान समाजों को पहले की तुलना में अनैतिक नहीं कहा जा सकता।
समाजशास्त्र – वैज्ञानिक पक्ष
समाजशास्त्र वह विज्ञान है जो समाज के विभिन्न पक्षों से सम्बन्धित सामान्य बोध पर निर्भर नहीं होता बल्कि व्यवस्थित रूप से यह जानने में हमारी सहायता करता है कि विभिन्न व्यक्ति किन आधारों पर एक-दूसरे से सम्बन्धों की स्थापना करते हैं तथा लोगों की मनोवृत्तियों और व्यवहारों को प्रभावित करने वाली वास्तविक दशाएं क्या हैं। समाजशास्त्र पर आधारित ज्ञान के आधार पर सामान्य बोध से सम्बन्धित कुछ मान्यताएं सही भी हो सकती हैं लेकिन समाजशास्त्रीय अध्ययन के द्वारा उन्हें तभी स्वीकार किया जाता है जब वे यथार्थ अनुभव और तर्क पर आधारित हो।
एन्थोनी गिडेन्स (A. Giddens) ने अपनी पुस्तक ‘Introduction to Sociology’ (समाजशास्त्र का परिचय) में विभिन्न प्रकार की सामाजिक दशाओं से सम्बन्धित सामान्य बोध के अनेक ऐसे उदाहरण दिए हैं। जिनसे यह समझना आसान हो जाता है कि लोगों का सामान्य बोध किस तरह समाजशास्त्रीय बोध से भिन्न होता है। लोगों की एक सामान्य धारणा यह है कि विभिन्न समूहों की आर्थिक असमानताएं उनके स्वास्थ्य के स्तर को प्रभावित नहीं करती। दूसरी ओर समाजशास्त्रीय अध्ययन यह स्पष्ट करते हैं कि किसी समूह के लोगों की सामाजिक दशाओं का उनके स्वास्थ्य के स्तर पर गहरा प्रभाव पड़ता है।
मलिन बस्तियों की सामाजिक दशाएं व्यक्ति के स्वास्थ्य के स्तर को उसकी आर्थिक स्थिति की तुलना में कहीं अधिक प्रभावित करती हैं। गिडेन्स के अनुसार एक सामान्य समझ यह है कि दुनिया के सभी समाजों में रोमांस पर आधारित। व्यवहार मनुष्य की एक सहज प्रवृत्ति है। इसके बाद भी ऐसा बोध सभी समाजों के लिए सही होना जरूरी नहीं है। इसका उदाहरण भारत सहित संसार के अनेक वे देश हैं जहां विवाह सम्बन्धों का निर्धारण परिवार द्वारा किया जाता है तथा जिस दशा को हम रोमांस की सहज प्रवृत्ति कहते हैं, वह पति पत्नी के बीच तक ही सीमित रहती है।
भारत में कुछ समय पहले तक यह आम समझ थी एक स्वस्थ पारिवारिक जीवन के लिए संयुक्त परिवार व्यवस्था अनिवार्य है। वर्तमान दशाओं में जब संयुक्त परिवारों की जगह एकाकी परिवारों की संख्या तेजी से बढ़ने लगी तो इस सामान्य समझ का कोई समाजशास्त्रीय महत्व नहीं रहा। गिडेन्स ने आत्महत्या जैसे व्यवहार का उदाहरण देते हुए लिखा है कि लोगों की सामान्य धारणा यह होती है कि व्यक्ति जीवन की असफलताओं और व्यक्तिगत कष्टों के कारण ही आत्महत्या करता है।
इस तरह की दशाएं दुनिया के सभी समाजों में होने के कारण सभी जगह आत्महत्या की घटनाओं का प्रतिशत लगभग एक जैसा होता है। इसके विपरीत, समाजशास्त्रीय अध्ययनों से यह स्पष्ट हुआ कि पिछले कुछ समय से उन ग्रामीणों और जनजातीय समुदायों में भी आत्महत्या की घटनाएं तेजी से बढ़ती जा रही हैं जो इसके बारे में सोचते भी नहीं थे। इसका कारण लोगों पर बैंकिंग सुविधाओं के कारण ऋण का बढ़ता हुआ बोझ, सामाजिक संरचना से सम्बन्धित वर्तमान तनाव और जीवन की असफलताओं के प्रति अधिक संवेदनशील होना है।
हारलम्बोस (M. Haralambcs) ने सामान्य बोध तथा समाजशास्त्रीय बोध के अन्तर को स्पष्ट करने के साथ ही इनकी पारस्परिक निर्भरता पर भी प्रकाश डाला है। उनके अनुसार एक सामान्य समझ यह है कि अपने अस्तित्व के लिए व्यक्ति उन व्यवहारों पर निर्भर रहता है जो सीखे हुए होते हैं तथा जिनका सम्बन्ध मानव की सांस्कृतिक विशेषताओं से होता है।
वास्तव में मनुष्य के न तो सभी व्यवहार अपनी ही संस्कृति से प्रभावित होते हैं और न ही उन सभी का उद्देश्य सामाजिक व्यवस्था को सुदृढ़ बनाना होता है। इसके बाद भी जब हम एक सामान्य बोध के रूप में संस्कृति और मानव व्यवहारों के सम्बन्ध की बात करते हैं तो मानव और उसकी संस्कृति को समझने के प्रति हमारी जागरूकता बढ़ने लगती है।
इस सम्पूर्ण विवेचन से स्पष्ट होता है कि विभिन्न सामाजिक तथ्यों और घटनाओं से सम्बन्धित सामान्य बोध तथा समाजशास्त्रीय बोध में एक स्पष्ट अन्तर है। इसके बाद भी गिडेन्स, हारलम्बोस तथा अनेक दूसरे लेखकों ने यह स्पष्ट किया है कि सामाजिक घटनाओं से सम्बन्धित सामान्य बोध को पूरी तरह बेकार और अनुपयोगी नहीं कहा जा सकता। अनेक दशाओं में सामान्य बोध से हमें एक ऐसा आधार मिल जाता है जो किसी समाजशास्त्रीय अध्ययन के लिए बहुत उपयोगी सिद्ध होता है।
आज परिवार, विवाह, धर्म तथा भ्रष्टाचार के बारे में लोगों की सामान्य समझ के आधार पर जब हम इनसे सम्बन्धित विभिन्न विषयों पर समाजशास्त्रीय अध्ययन करते हैं तो यह स्पष्ट होने लगता है कि वैयक्तिक स्वतन्त्रता, टी. वी. से प्रसारित धारावाहिक तथा नए सामाजिक – सांस्कृतिक मूल्य किस तरह हमारी सामाजिक संस्थाओं और व्यवहार के तरीकों को प्रभावित कर रहे हैं। इसका तात्पर्य है कि लोगों के सामान्य बोध का जब हम अनुसन्धान की वैज्ञानिक पद्धतियों की सहायता से परीक्षण करते हैं, तब वही बोध अनुभवसिद्ध और वैज्ञानिक बन जाता है। स्पष्ट है कि सामाजिक घटनाओं की सामान्य समझ जब आनुभविक अथवा तार्किक ज्ञान में बदल जाती है तब इसी को हम समाजशास्त्रीय ज्ञान कहते हैं।