समाजशास्त्र की वैज्ञानिक प्रकृति

समाजशास्त्र की वैज्ञानिक प्रकृति – समाजशास्त्रियों में इस बारे में मतभेद हैं कि समाजशास्त्र की प्रकृति वैज्ञानिक है या नहीं अथवा यह कि क्या इसे एक विज्ञान के रूप में विकसित किया जा सकता है? बहस का एक मुद्दा यह भी है कि क्या समाजशास्त्र में प्राकृतिक विज्ञानों की तरह सिद्धान्तों का निर्माण करना सम्भव है या दूसरे शब्दों में, समाजशास्त्र को मानवीय मूल्यों से पृथक् करके विकसित किया जा सकता है? समाजशास्त्र के विकास के आरम्भिक स्तर पर इसे प्राकृतिक विज्ञानों की तरह ही एक विज्ञान का रूप देने का प्रयत्न किया गया। समाजशास्त्र के जनक कॉम्ट ने समाजशास्त्र को एक विज्ञान के रूप में ही देखा।

इसके बाद दुर्खीम, वेवर, सिमेल तथा अनेक दूसरे समाजशास्त्रियों ने इस तरह के सिद्धान्तों की रचना करना आरम्भ की जिससे समाजशास्त्र की वैज्ञानिक प्रकृति के रूप में स्थापित किया जा सके। इसके बाद भी सी. राइट मिल्स (C.W. Mills) ने इस बात पर जोर दिया कि समाजशास्त्र को विज्ञान की तुलना में एक कौशल या शिल्प (Craft) कहना अधिक उचित है। सन् 1960 में रॉबर्ट बीरस्टीड ने अपने अध्यक्षीय भाषण में यह कहा कि “समाजशास्त्र का सही स्थान प्राकृतिक विज्ञानों में नहीं बल्कि उन कलाओं में हैं जो मानव के मस्तिष्क को स्वतन्त्र रूप से काम करने की छूट देता है।”

समाजशास्त्र की वैज्ञानिक प्रकृति

इस प्रकार अनेक समाजशास्त्री यह मानने लगे कि प्राकृतिक नियमों की तरह सामाजिक घटनाओं पर आधारित किन्हीं निश्चित नियमों को स्थापित नहीं किया जा सकता। इस बहस के सन्दर्भ में यह आवश्यक है कि विज्ञान की आधारभूत विशेषताओं को ध्यान में रखते हुए इस बात का मूल्यांकन किया जाये कि समाजशास्त्र को किस सीमा तक एक विज्ञान कहा जा सकता है।

  1. पहला मुद्दा यह है कि क्या समाजशास्त्र वैज्ञानिक अध्ययन पद्धतियों पर आधारित है? सामान्य रूप से यह दावा किया जाता है कि समाजशास्त्रीय अध्ययन जिन पद्धतियों के द्वारा किये जाते हैं वे पूर्णतया वैज्ञानिक हैं। समाजशास्त्र को एक विज्ञान के रूप में स्थापित करने के लिए दुर्खीम ने तुलनात्मक पद्धति तथा ने वेवर ने ‘व्याख्यात्मक बोध’ की पद्धति को विकसित किया। यह भी माना जाता है कि ऐतिहासिक पद्धति तथा संरचनात्मक प्रकार्यात्मक पद्धति के प्रयोग के कारण भी समाजशास्त्र की प्रकृति वैज्ञानिक है। इन अध्ययन पद्धतियों से सामाजिक घटनाओं का निष्पक्ष रूप से अध्ययन करना सम्भव हो जाता है। इस प्रकार समाजशास्त्रीय ज्ञान को विज्ञान की श्रेणी में रखना उचित है। ऐसी धारणा कुछ सीमा तक सही हो सकती है, लेकिन समाजशास्त्रीय अध्ययन के लिए उस तरह के परीक्षण या प्रयोग नहीं किये जा सकते जो प्राकृतिक विज्ञानों की एक महत्वपूर्ण विशेषता है।
  2. विज्ञान का सम्बन्ध उन नियमों को ज्ञात करने से है जो बार-बार घटित होने वाली घटनाओं पर लागू होते हैं। प्रश्न यह है कि क्या विभिन्न सामाजिक घटनाएं किसी विशेष क्रम में बार-बार घटित होती हैं? यदि नहीं, तो क्या कुछ विशेष घटनाओं से सम्बन्धित नियमों को वैज्ञानिक माना जा सकता है? इस सम्बन्ध में सोरोकिन ने लिखा है कि मानव इतिहास में अधिकांश महत्वपूर्ण घटनाएं एक ही बार घटित होती हैं तथा उनकी पुनरावृत्ति नहीं होती। इसके बाद भी समाजशास्त्र में ऐसी घटनाओं का अध्ययन होने के कारण समाजशास्त्र को विज्ञान की श्रेणी में रखना उचित नहीं है। एलेक्स इंकेल्स ने अपनी पुस्तक ‘समाजशास्त्र क्या है’ में लिखा है कि केवल कुछ विशिष्ट घटनाओं को छोड़कर अधिकांश सामाजिक सम्बन्ध इस तरह के होते हैं जिनकी पुनरावृत्ति होती रहती है। परिवार, नातेदारी, प्रभुत्व अधीनता, शिक्षण और सामाजिक जीवन के विभिन्न पक्षों में घटनाओं की पुनरावृत्ति सदैव पाई जाती है। इसका तात्पर्य है कि सामाजिक नियमों की प्रकृति भी वैज्ञानिक हो सकती है। इस सम्बन्ध में दुर्खीम द्वारा प्रस्तुत यह नियम बहुत वैज्ञानिक है कि “सामाजिक एकीकरण में कमी होने से आत्महत्या की दर बढ़ने लगती है।’
  3. तीसरा प्रश्न यह है समाजशास्त्रीय नियम किस सीमा तक सार्वभौमिक हैं? इस सम्बन्ध में अब तक का एक सामान्य अनुभव यह है कि जिस तरह प्राकृतिक विज्ञानों के अधिकांश नियम (जैसे आकर्षण, विकिरण तथा घनत्व का नियम) सभी स्थानों पर समान रूप से लागू होते हैं, वैसी सार्वभौमिकता समाजशास्त्र से सम्बन्धित नियमों में देखने को नहीं मिलती। उदाहरण के लिए, किसी विशेष समूह का अध्ययन करके यह नियम दिया जा सकता है कि लोगों के व्यवहार अपने आर्थिक हितों से प्रभावित होते हैं। इसके बाद भी किसी दूसरे अध्ययनकर्ता का निष्कर्ष यह हो सकता है कि समूह के व्यवहार अपने धर्म से अधिक प्रभावित होते हैं। कुछ दूसरे लोग शिक्षा या आयु को व्यवहारों को प्रभावित करने वाले सबसे महत्वपूर्ण कारक के रूप में स्थापित कर सकते हैं। प्रोफेसर रॉबिन विलियम्स ने ‘अमेरिकन सोशियालॉजिकल एसोसिएशन’ में दिये गये अपने भाषण में स्पष्ट किया कि अतीत में हम जिन महत्वपूर्ण परिकल्पनाओं को प्रमाणित कर चुके थे, आज हम उनमें से बहुत सी परिकल्पनाओं को मानने के लिए तैयार नहीं है। तात्पर्य यह है कि समाजशास्त्र के नियमों को सार्वभौमिक कहना संदेहपूर्ण है।
  4. विज्ञान का एक अन्य प्रमुख आधार आनुभविक अध्ययनों के द्वारा सिद्धान्तों का निर्माण करना है। नये अध्ययनों से जो जानकारियां मिलती हैं, उनका सिद्धान्त में समावेश होता है तथा सिद्धान्तों की सहायता से एक-दूसरे से जुड़े हुए तथ्यों को समझना सम्भव हो जाता है। समाजशास्त्र के विकास के आरम्भिक समय से लेकर लगभग 1960 के दशक तक अनेक समाजशास्त्रियों का यह प्रयत्न रहा कि कुछ व्यापक सिद्धान्तों का निर्माण करके समाजशास्त्र को विज्ञान का रूप दिया जाये। दुर्खीम द्वारा प्रस्तुत आत्महत्या का सिद्धान्त, वेबर द्वारा दिया गया धर्म का सिद्धान्त तथा पारसन्स द्वारा विकसित सामाजिक व्यवस्था का सिद्धान्त इनके कुछ प्रमुख उदाहरण हैं। सी. राइट मिल्स का कथन है कि समाजशास्त्र जिन सामाजिक घटनाओं के अध्ययन से सम्बन्धित है, उनके आनुभविक अध्ययन और सिद्धान्त निर्माण के बीच कोई व्यावहारिक सम्बन्ध नहीं है। इस दशा में समाजशास्त्र को सही अर्थों में एक विज्ञान मान सकना बहुत कठिन है।
  5. एलेक्स इंकेल्स ने मर्टन का हवाला देते हुए लिखा है कि किसी भी वैज्ञानिक अध्ययन के लिए अवधारणाएं उपयोगी उपकरण हैं। उदाहरण के लिए, ऐसा माना जाता है कि दुर्खीम, मार्क्स, वेबर, सिमेल तथा पारसन्स आदि ने अनेक ऐसी अवधारणाएं दीं जिनके सन्दर्भ में समाजशास्त्र को एक विज्ञान का दर्जा देना गलत नहीं है। दूसरी ओर जार्ज होमन्स (George Homans) ने लिखा है कि अधिकांश समाजशास्त्रीय सिद्धान्तों की प्रकृति एकपक्षीय और सुविधा पर आधारित होती है। अधिकांश सिद्धान्तों का निर्माण इस तरह किया गया है जिससे मानव व्यवहार के विभिन्न पक्षों की सुविधानुसार व्याख्या की जा सके। समाजशास्त्र की वैज्ञानिक प्रकृति
  6. किसी विषय की प्रकृति वैज्ञानिक होने के लिए यह आवश्यक है कि तथ्यों के आधार पर आनुभविक सामान्यीकरण दिये जाएं। सामान्यीकरण की सहायता से विभिन्न सामाजिक घटनाओं के सह-सम्बन्ध को समझना सम्भव हो पाता है। समाजशास्त्रीय अध्ययनों से सम्बन्धित एक प्रमुख कठिनाई यह है कि किसी एक समुदाय या समूह से सम्बन्धित सामान्यीकरण दूसरे पर कठिनता से लागू होते हैं। मर्टन ने इस सम्बन्ध में लिखा है कि हॉलबाच (Halbwach) ने यह सामान्यीकरण दिया कि श्रमिक वर्ग में भोजन पर किया जाने 4 वाला प्रति व्यक्ति व्यय उसी आर्थिक स्तर के दफ्तर में काम करने वाले कर्मचारियों की तुलना में अधिक होता है।’ यह सामान्यीकरण इतना एकपक्षीय है कि इससे घटनाओं के वास्तविक सह-सम्बन्धों को नहीं समझा जा सकता। तात्पर्य यह है कि समाजशास्त्रीय अध्ययनों से सम्बन्धित सामान्य निष्कर्षो का वास्तविक ज्ञान अथवा घटनाओं के पूर्वानुमान से अधिक सम्बन्ध नहीं होता।

वास्तविकता यह है कि एक विज्ञान के रूप में समाजशास्त्र के पक्ष और विपक्ष में बहुत से तथ्य दिये जा सकते हैं, लेकिन यह ध्यान रखना जरूरी है कि विज्ञान का मुख्य सम्बन्ध एक व्यवस्थित या वैज्ञानिक पद्धति का उपयोग करके किसी विषय से सम्बन्धित वास्तविकता को ज्ञात करना है। इस दृष्टिकोण से समाजशास्त्र की प्रकृति को वैज्ञानिक मानने में कोई आपत्ति नहीं हो सकती। (समाजशास्त्र की वैज्ञानिक प्रकृति)

जहां तक नियमों की खोज, सिद्धान्तों के निर्माण और पूर्वानुमान की क्षमता का प्रश्न है, समाजशास्त्र को प्राकृतिक विज्ञानों की तरह एक विशुद्ध विज्ञान नहीं माना जा सकता। प्रयोगात्मक पद्धति का प्रयोग कभी भी विज्ञान की जरूरी शर्त नहीं होती। उदाहरण के लिए, न्यूटन, गैलीलियो तथा मार्कोनी ने अपने विश्वविख्यात वैज्ञानिक सिद्धान्तों का प्रतिपादन बन्द प्रयोगशाला में नहीं किया था। भविष्यवाणी की क्षमता का भी विज्ञान से कोई प्रत्यक्ष सम्बन्ध नहीं है।

वास्तव में प्राकृतिक और सामाजिक सभी विज्ञानों से सम्बन्धित नियम कुछ विशेष मान्यताओं से बंधे रहते हैं। कोई भी प्राकृतिक विज्ञान पूरी तरह निश्चित भविष्यवाणी नहीं कर सकता। मुख्य बात यह है कि समाजशास्त्र में अब ऐसी व्यावहारिक पद्धतियों और प्रविधियों का विकास हो रहा है जिनकी सहायता से सामाजिक घटनाओं को अधिक यथार्थ रूप में समझना सम्भव होता जा रहा है। तथ्यों को पक्षपातरहित होकर उनके वास्तविक रूप में देखने की एक प्रणाली है। इस रूप में निश्चय ही समाजशास्त्र की प्रकृति को वैज्ञानिक कहा जा सकता है।

समाजशास्त्र की वैज्ञानिक प्रकृति – बीरस्टीड द्वारा प्रस्तुत निष्कर्ष

समाजशास्त्र की वैज्ञानिक प्रकृति से सम्बन्धित शंकाओं का समाधान करते हुए रॉबर्ट बीरस्टीड ने अनेक महत्त्वपूर्ण निष्कर्ष दिये हैं-

  1. समाजशास्त्र सामाजिक विज्ञान है, प्राकृतिक विज्ञान नहीं। इस दृष्टिकोण से समाजशास्त्र की प्रकृति को प्राकृतिक विज्ञानों के समान नहीं माना जा सकता।
  2. समाजशास्त्र एक वास्तविक विज्ञान है, आदर्शात्मक विज्ञान नहीं। इसका कार्य समाज की केवल वास्तविक दशाओं का अध्ययन करना है, किन्हीं आदर्श नीतियों का निर्माण करना नहीं।
  3. समाजशास्त्र एक विशुद्ध विज्ञान है, व्यावहारिक विज्ञान नहीं। इस रूप में समाजशास्त्र केवल सामाजिक नियमों को स्पष्ट करने में रुचि लेता है, यह उन नियमों को व्यावहारिक जीवन में लागू नहीं करता।
  4. समाजशास्त्र एक अमूर्त विज्ञान है, मूर्त विज्ञान नहीं । समाजशास्त्र में विभिन्न सामाजिक सम्बन्धों तथा सामाजिक प्रक्रियाओं जैसे अमूर्त विषयों का अध्ययन किया जाता है, अतः इसे भौतिक विज्ञानों के समकक्ष नहीं रखा जा सकता।
  5. समाजशास्त्र सामान्य विज्ञान है, विशेष विज्ञान नहीं। एक सामान्य विज्ञान के रूप में यह उन सभी सामान्य सामाजिक घटनाओं का अध्ययन करता है जो दूसरे सभी सामाजिक विज्ञानों को एक-दूसरे से जोड़ती हैं। (समाजशास्त्र की वैज्ञानिक प्रकृति)
  6. समाजशास्त्र तार्किक तथा अनुभवसिद्ध विज्ञान है। इस रूप में समाजशास्त्र उन सभी सामाजिक घटनाओं का अध्ययन करता है जो तर्क पर आधारित होती हैं अथवा जिनकी वास्तविकता को अनुभव के द्वारा समझा जा सकता है।

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि समाजशास्त्र की वैज्ञानिक प्रकृति अवश्य है, लेकिन इसे प्राकृतिक विज्ञानों की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। सामाजिक अध्ययन की अपनी कुछ कठिनाइयां अवश्य हैं, लेकिन समाजशास्त्र की वैज्ञानिक प्रकृति के द्वारा तथ्यों के संग्रह, वर्गीकरण, सत्यापन तथा विवेचनात्मक सिद्धान्तों के प्रतिपादन से सम्बन्धित है। बाटोमोर ने लिखा है कि वर्तमान दशाओं में वर्णनात्मक समाजशास्त्र (Descriptive Sociology) हमारे लिए कहीं अधिक उपयोगी है।

यह न तो प्राकृतिक विज्ञानों की तरह पूरी तरह विशुद्ध है और न ही आदर्शात्मक है। इसका सम्बन्ध एक ओर ऐसे उपयोगी तथ्य और सूचनाएं प्राप्त करने से हैं जिनकी सहायता से तार्किक नीतियों का निर्माण किया जा सके तथा दूसरी ओर इससे उन छोटे-छोटे समुदायों और समूहों की उपयोगी जानकारी मिलती है जो मानव समाज को समझने के लिए आवश्यक हैं। इस तरह समाजशास्त्रीय अध्ययन विज्ञान और मानविकी के बीच एक पुल (Bridge) का काम करते हैं।

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