समाजवादी अर्थव्यवस्था परिभाषाएं 8 विशेषताएं 9 लाभ 8 दोष

समाजवादी अर्थव्यवस्था का प्रारम्भ सामान्यतः पिछली शताब्दी के प्रथम चरण में रॉबर्ट ओवन द्वारा प्रतिपादित फैक्ट्री सुधारों के साथ-साथ माना जाता है किन्तु इसे व्यवस्थित एवं वैज्ञानिक रूप सन् 1848 में कार्ल मार्क्स ने दिया। वर्तमान में समाजवाद अनेक भ्रान्तियों और विवादों के घेरे में है। विभिन्न विद्वानों ने इसे अपने-अपने दृष्टिकोण से अभिव्यक्ति दी है।

समाजवादी अर्थव्यवस्था

सामान्यतः पूँजीवाद की प्रतिक्रिया के रूप में समाजवाद को व्यक्त किया जाता है। अतः पूँजीवादी अर्थव्यवस्था का विरोध करने वाला प्रत्येक विचार समाजवाद का अंग बन जाता है अथवा उसे समाजवादी विचारधारा में सम्मिलित कर लिया जाता है। इसलिए आज तक समाजवाद की कोई निश्चित परिभाषा प्रस्तुत नहीं की जा सकी है। समाजवाद विषयक भ्रान्तियों को विद्वानों ने निम्नानुसार व्यक्त किया है-

समाजवाद को बहुत-सी वस्तुएँ कहा गया है और बहुत-सी वस्तुओं को समाजवाद कहा गया है।

लुक्स के मतानुसार

समाजवाद एक ऐसी टोपी है जिसका रूप प्रत्येक व्यक्ति के पहनने के कारण बिगड़ गया है।

सी. ई. एम. जोड के अनुसार

समाजवाद का तत्व समाज के किसी भी व्यक्ति के शोषण की अनुपस्थिति में पाया जाता है। वर्तमान अर्थव्यवस्था लाभ के उद्देश्य पर आधारित है परन्तु समाजवाद के अन्तर्गत उसका उद्देश्य सबका अधिकतम कल्याण करना है।

डॉ. तुगन बारानोवस्की के मतानुसार

समाजवाद एक ऐसा आर्थिक संगठन है जिसमें उत्पत्ति के भौतिक साधनों पर सम्पूर्ण समाज का स्वामित्व होता है तथा उनका संचालन एक सामान्य योजना के अनुसार ऐसी संस्थाओं द्वारा किया जाता है जो सम्पूर्ण समाज का प्रतिनिधित्व करती हैं तथा पूरे समाज के प्रति उत्तरदायी होती हैं। समाज के सभी सदस्य समान अधिकारों के आधार पर ऐसे समाजीकृत नियोजित उत्पादन के लाभों को प्राप्त करने के अधिकारी होते हैं।

डिकिन्सन के शब्दों में

समाजवाद का सम्बन्ध एक ऐसे आन्दोलन से है जिसका उद्देश्य बड़े पैमाने के उत्पादन में प्रयोग की जाने वाली समस्त प्राकृतिक तथा मनुष्यकृत उत्पादन की वस्तुओं के स्वामित्व तथा प्रबन्ध को व्यक्तियों के स्थान पर समाज के हाथों में देना होता है जिससे बढ़ी हुई आय का इस प्रकार समान बँटवारा हो सके कि व्यक्ति की आर्थिक प्रेरणाएँ अथवा इसकी व्यवस्था तथा उपभोग सम्बन्धी चुनावों की स्वतन्त्रताओं को कोई विशेष हानि न हो।

लुक्स एवं हूट्स के अनुसार

उपर्युक्त परिभाषाओं का ध्यान से अध्ययन करने पर यह बात स्पष्ट होती है कि समाजवाद एक ऐसी आर्थिक प्रणाली है जिसमें उत्पादन के साधनों पर किसी एक व्यक्ति का स्वामित्व और नियन्त्रण नहीं होता। स्मरण रहे कि इन साधनों का प्रयोग किसी व्यक्तिगत हित के लिए नहीं बल्कि पूरे समाज के हित के लिए किया जाता है जिसमें एक व्यक्ति के द्वारा दूसरे का शोषण न हो सके।

समाजवादी अर्थव्यवस्था की विशेषताएँ

समाजवाद की परिभाषाओं के आधार पर इसकी महत्वपूर्ण विशेषताएँ निम्नांकित हैं-

  1. उत्पत्ति के साधनों पर सामाजिक नियन्त्रण एवं स्वामित्व – समाजवादी अर्थव्यवस्था में उत्पादन के साधनों पर व्यक्तिगत स्वामित्व न होकर, सरकार अथवा समाज का पूर्ण नियन्त्रण व स्वामित्व होता है। जैसे- भूमि, खदानों, वनों, यातायात व संवाद वाहन के साधनों, कारखानों, बीमा कम्पनियों, बैंकों इत्यादि पर सरकार के माध्यम से समाज का स्वामित्व पाया जाता है। इन सभी साधनों का उपयोग समाज के अधिकतम कल्याण के लिए किया जाता है।
  2. आर्थिक नियोजन – समाजवादी व्यवस्था में एक केन्द्रीय निर्देशन के अन्तर्गत आर्थिक नियोजन द्वारा देश के साधनों का अधिकतम उपयोग किया जाता है। आर्थिक नियोजन समाजवाद की एक महत्वपूर्ण कड़ी है। इसके अन्तर्गत ही सभी महत्वपूर्ण आर्थिक निर्णय लिये जाते हैं।
  3. सरकार द्वारा उत्पादन तथा वितरण – आर्थिक नियोजन के माध्यम से सरकार द्वारा धन के उत्पादन और वितरण के कार्य स्वयं किये जाते हैं। सरकार को यह निर्णय करना पड़ता है कि उत्पत्ति के किन साधनों को, किन वस्तुओं के उत्पादन में लगाया जाय और उनका किस प्रकार वितरण किया जाय ? ये सभी कार्य एक केन्द्रीय नियोजन संस्था द्वारा किये जाते हैं।
  4. आर्थिक समानता– समाजवादी अर्थव्यवस्था में धन के विवरण की समानता तथा अवसर की समानता पर सर्वाधिक बल दिया जाता है। यह प्रयत्न किया जाता है कि उत्पादन का काम करने वाले व्यक्तियों को कुल उत्पादित आय में से उनके कार्य के अनुसार पारितोषण मिले और धनी तथा निर्धनों के बीच की खाई को कम-से-कम किया जा सके।
  5. अनार्जित आय का अन्त – समाजवाद में श्रम तथा श्रमिक को ही प्रमुख स्थान प्राप्त होता है। श्रम के बदले आय की प्राप्ति होती है। कोई भी ऐसी आय जो बिना श्रम किये प्राप्त होती है, उसे अनार्जित आय कहा जाता है। जैसे- ब्याज तथा किराये की आमदनी। समाजवाद में अनार्जित आय को समाप्त कर दिया जाता है और प्रत्येक व्यक्ति को अपने द्वारा अर्जित आय पर ही निर्भर रहना पड़ता है।
  6. शोषण का अन्त – समाजवाद में उत्पत्ति के साधन सरकारी स्वामित्व तथा नियन्त्रण में आ जाते हैं, साथ-ही-साथ सभी प्रकार की अनार्जित आय को समाप्त कर दिया जाता है। परिणामस्वरूप मालिक तथा मजदूर जैसे वर्ग समाप्त हो जाते हैं और एक व्यक्ति का दूसरे व्यक्ति द्वारा शोषण करने की सम्भावना नहीं पायी जाती है।
  7. समाज कल्याण का उद्देश्य – उत्पादन और वितरण की क्रियाएँ सरकारी नियन्त्रण में होने के कारण व्यक्तिगत लाभ का उद्देश्य समाप्त हो जाता है तथा उसके स्थान पर समाज कल्याण का उद्देश्य प्रमुख रूप से स्थापित हो जाता है।
  8. उद्योगों का लोकतान्त्रिक प्रबन्ध – समाजवादी व्यवस्था में देश के उद्योगों पर श्रमिकों का नियन्त्रण तथा प्रबन्ध होता है। उन्हीं के द्वारा उत्पादन और वितरण में प्रबन्ध सम्बन्धी कार्य किये जाते हैं। उनके द्वारा प्रबन्ध का स्वरूप प्रजातान्त्रिक होता है।

समाजवाद के गुण

समाजवादी व्यवस्था में तुलनात्मक दृष्टि से अनेक गुण पाये जाते हैं जो निम्नांकित हैं-

  1. उत्पादन के आर्थिक साधनों का अधिकतम उपयोग – समाजवाद में असन्तुलन के स्थान पर सन्तुलन स्थापित करने के उद्देश्य से प्रेरित होकर देश के प्राकृतिक तथा आर्थिक साधनों का एक पूर्व-नियोजित योजना के अनुसार इस ढंग से विवेकपूर्ण उपयोग किया जाता है ताकि उनका अधिकतम सम्भव उपयोग हो सके। इसके अतिरिक्त, इन साधनों का उपयोग करते समय वर्तमान तथा भविष्य की नीतियों का तालमेल और देश के विभिन्न प्रादेशिक क्षेत्रों के बीच समान आर्थिक विकास के उद्देश्यों को पूरी तरह से ध्यान में रखा जाता है।
  2. व्यापार-चक्रों की समाप्ति तथा आर्थिक स्थिरता – समाजवाद में राष्ट्रीय साधनों का प्रयोग सामाजिक आवश्यकताओं के अनुरूप किया जाता है ताकि कुल उत्पादन कुल माँग के बराबर हो। इससे स्पष्ट है कि ऐसी स्थिति में अधिक उत्पादन या न्यून उत्पादन की समस्याएँ उत्पन्न ही नहीं होंगी और देश की अर्थव्यवस्था को एक स्थिर रूप प्राप्त होगा।
  3. बेरोजगारी का अन्त – केन्द्रीय नियोजित अर्थव्यवस्था होने के कारण राष्ट्रीय तथा उत्पादन के साधनों का उपयोग इस प्रकार किया जाता है कि सभी लोगों को उनकी योग्यता के अनुसार कार्य मिल सके। उत्पादन के साधनों और मानव जीवन के सभी महत्वपूर्ण पहलुओं पर सरकारी नियन्त्रण होता है। फलस्वरूप समाज के किसी भी वर्ग से सम्बन्धित व्यक्ति को बेरोजगार नहीं रहने दिया और उसमें काम करने की जो भी क्षमता होती है, उसके अनुरूप उसे कार्य करना होता है।
  4. शोषण का अन्त– समाजवाद में उद्योगों तथा उत्पादन कार्यों में सरकारी नियन्त्रण तथा स्वामित्व होने के कारण सभी काम करने वाले लोगों की एक ही श्रेणी होती है। उनके हित तथा अधिकार समान होते हैं। उनको सुरक्षा तथा उन्नति का समान अवसर मिलता है। यह स्वाभाविक है कि ऐसी स्थिति में श्रमिकों के किसी भी प्रकार के शोषण की कोई सम्भावना नहीं रहती है।
  5. वर्गविहीन समाज – समाजवाद की रचना का मुख्य आधार ही वर्गविहीन समाज की स्थापना है। समाजवाद में ऊँच-नीच, धनी-निर्धन, मालिक-मजदूर, जमींदार किसान इत्यादि का कोई भेद नहीं रहने दिया जाता है। समाज के सदस्यों का एक ही वर्ग होता है और वह काम करने वाले श्रमिकों का ‘सर्वहारा वर्ग’ कहलाता है। यहाँ वर्ग संघर्ष तथा उससे उत्पन्न औद्योगिक विवाद व हड़तालें इत्यादि नहीं होते हैं।
  6. धन व साधनों का समान वितरण – समाजवादी व्यवस्था में धन तथा सम्पत्ति के अधिकाधिक समान वितरण पर बल दिया जाता है। असमानताओं को समाप्त करके ऐसी व्यवस्था स्थापित की जाती है कि जिसमें सभी लोग आय तथा अवसर की समानता प्राप्त कर सकें। ध्यान रहे, समाजवाद में जनतन्त्रीय प्रणाली द्वारा धनी लोगों पर अधिक कर लगाकर तथा निर्धन वर्गों के कल्याण कार्यों पर अधिक व्यय करके वितरण की असमानता को दूर करने का प्रयत्न किया जाता है।
  7. सामाजिक कल्याण का उद्देश्य – समाजवादी व्यवस्था में उत्पादन की मात्रा और गुण लाभ के उद्देश्य से प्रेरित न होकर, जनसाधारण की आवश्यकताओं और सामाजिक कल्याण के उद्देश्य से निर्धारित किये जाते हैं। उत्पादन के विभिन्न साधनों का उपयोग’ अधिकतम सामाजिक कल्याण’ तथा ‘सामाजिक सुरक्षा’ के लिए किया जाता है। उपर्युक्त उद्देश्य के अनुसार यह प्रयत्न किया जाता है कि समाज के भौतिक कल्याण के जीवन स्तर में अधिकतम वृद्धि हो सके।
  8. सामाजिक परिजीविता की समाप्ति – इस व्यवस्था में केवल श्रम और मानव प्रयत्नों का महत्व होता है। परिश्रम का पुरस्कार ही आय के रूप में मान्यता प्राप्त करता है। अनार्जित आय, जो समाज पर भारस्वरूप होती है, इस व्यवस्था में पूर्णतः समाप्त हो जाती है। इससे केवल शोषण तथा सामाजिक परिजीविता को प्रोत्साहन मिलता है। प्रत्येक व्यक्ति परिश्रम करके ही अपनी आय प्राप्त करता है।
  9. प्रतियोगिता का अन्त – समाजवाद में पूँजीवाद की भाँति गला काट प्रतियोगिता को स्थान प्राप्त नहीं होता है और न ही वस्तु की बिक्री हेतु विज्ञापन तथा प्रचार पर भारी मात्रा में धन व्यय करना पड़ता है। इस प्रकार राष्ट्रीय साधनों का यह भारी अपव्यय है। समाजवाद में सभी बड़े उद्योग और व्यावसायिक प्रतिष्ठान सरकारी नियन्त्रण तथा प्रबन्ध में होते हैं। उनके मध्य कोई गला काट प्रतियोगिता नहीं पाई जाती है, अतः विज्ञापन व प्रचार पर साधनों के व्यय करने की आवश्यकता नहीं होती है।

समाजवाद के दोष

अपनी अनेक कमियों के कारण समाजवाद की आलोचना की जाती है। इन आलोचनाओं का आधार इस व्यवस्था में पाये जाने वाले अग्रांकित दोष हैं-

  1. प्रबन्ध तथा प्रशासन की कठिनाइयाँ – समाजवादी अर्थव्यवस्था में समस्त आर्थिक क्रियाओं का संचालन एक केन्द्रीय नियोजित संस्था द्वारा किया जाता है। चूँकि यह कार्य पूँजीवाद की भाँति लाभ-मूल्य-तन्त्र द्वारा संचालित नहीं होता है, अतः केन्द्रीय कर्मचारियों का जो समूह होता है, उनमें सही समय पर सही निर्णय लेने की क्षमता नहीं पायी जाती है। कुछ थोड़े से अधिकारियों को प्रबन्ध तथा प्रशासन का पूरा बोझ उठाना पड़ता है, फलस्वरूप अर्थव्यवस्था के संचालन में प्रशासन और प्रबन्ध की भारी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है।
  2. पूँजी संचय का अभाव – समाजवाद में व्यक्तिगत लाभ जैसी कोई चीज नहीं होती है। इसलिए व्यक्तिगत पूँजी का संचय और उसके विनियोग के लिए इस व्यवस्था के अन्तर्गत कोई अनुमति नहीं दी जाती है। बचत तथा पूँजी निर्माण का सारा कार्य राज्य द्वारा किया जाता है। लेकिन राज्य की आय के साधन सीमित होते हैं, इस कारण से समाजवादी व्यवस्था में आर्थिक तथा औद्योगिक विकास की गति बहुत धीमी पायी जाती है।
  3. कुशलता तथा उत्पादकता में कमी – समाजवाद में नौकरशाही का बोलवाला होता है। सभी बड़े उद्योग और व्यावसायिक प्रतिष्ठान सरकारी प्रबन्ध व नियन्त्रण में होने के कारण उनमें कार्य के प्रति व्यक्तिगत रुचि व प्रेरणा नहीं पायी जाती है। कभी-कभी महत्वपूर्ण निर्णयों के लिए जाने में अनावश्यक विलम्ब हो जाता है। लालफीताशाही तथा भ्रष्टाचार के कारण व्यापारिक हितों का बलिदान कर दिया जाता है। अनेक बार जन-आलोचना से बचने के कारण, सरकारी कर्मचारियों को जो साहसपूर्ण निर्णय लेने चाहिए, उनसे वे कतरा जाते हैं। परिणाम यह होता है कि उत्पादन कार्यों में-कुशलता तथा उत्पादकता-दोनों में कमी आने लगती है।
  4. उपभोक्ता की सार्वभौमिकता का अन्त – पूँजीवाद में उपभोक्ता को सम्राट माना गया है क्योंकि उसकी पसन्द व चुनाव के अनुसार ही उत्पादन सम्बन्धी निर्णय लिये जाते हैं। समाजवाद में उपभोक्ता की रुचि, स्वभाव, इच्छा, फैशन इत्यादि का कोई महत्व नहीं होता है। उपभोक्ता को वही वस्तुएँ खरीदनी पड़ती हैं जिनका उत्पादन राज्य द्वारा किया जाता है तथा उन्हीं मूल्यों पर जो राज्य निर्धारित करता है। उसकी स्वयं की इच्छा का कोई स्थान नहीं होता है। एक प्रकार से उसे राज्य की दासता स्वीकार करनी पड़ती है।
  5. राज्य शोषण का साधन – समाजवाद का एक बड़ा दोष कभी-कभी इस रूप में भी देखने को मिलता है कि जब राज्य द्वारा ही उत्पादन के साधनों पर स्वामित्व और नियन्त्रण स्थापित कर लिया जाता है तो यह व्यवस्था राज्य के हाथों उपभोक्ताओं के शोषण को जन्म देती है। राज्य के माध्यम से समाजवादी व्यवस्था को लाने में केवल अन्तर यह होता है कि इस व्यवस्था में पूँजीपति का स्थान राज्य द्वारा ले लिया जाता है। शेष उपभोक्ताओं का शोषण यथावत् चलता रहता है। यह दोष इस प्रकार के समाजवाद के विरुद्ध आलोचना का गम्भीर विषय है।
  6. व्यक्तिगत स्वतन्त्रता तथा प्रेरणा का अभाव – समाजवाद में व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के नाम पर व्यक्ति का स्तर केवल सरकारी वेतनभोगी कर्मचारी तक सीमित रह जाता है। व्यवसाय व उपक्रम को कोई स्वतन्त्रता नहीं दी जाती है। इस प्रकार निजी सम्पत्ति का अधिकार न होने से व्यक्तियों में कार्य के प्रति कोई प्रेरणा नहीं रहती है। यही कारण है कि समाजवाद में निजी लाभ न होने से खोजकर्ताओं व वैज्ञानिक अनुसन्धान करने वालों में कोई उत्साह तथा इच्छा नहीं रह पाती है।
  7. मूल्य निर्धारण में कठिनाई – पूँजीवाद में मूल्य का निर्धारण स्वसंचालित प्रक्रिया के अन्तर्गत होता है और वस्तु के मूल्य निर्धारण में माँग और पूर्ति की शक्तियाँ मुख्य रूप से कार्य करती हैं। समाजवाद में यह सम्पूर्ण कार्य एक केन्द्रीय सत्ता द्वारा किया जाता है और मूल्य निर्धारण में वस्तुओं की माँग तथा पूर्ति का कोई हाथ नहीं होता। सत्ता द्वारा निर्धारित मूल्य ही उपभोक्ताओं को स्वीकार करना पड़ता है जो प्रायः सामान्य मूल्य से थोड़ा अधिक होता है। स्पष्ट है कि इसमें उपभोक्ताओं को मूल्य की हानि ही होती है।
  8. साधनों का अविवेकपूर्ण वितरण – पूँजीवाद में कीमत-तन्त्र स्वसंचालित होता है जिसके द्वारा उत्पादन व वितरण के क्षेत्र में आर्थिक निर्णय स्वयं लिए जाते हैं। उत्पादन के साधनों का विभिन्न उपयोगों में बँटवारा कीमत-तन्त्र द्वारा आर्थिक आधार पर कर दिया जाता है। ध्यान रहे, समाज में ऐसा कोई स्वसंचालित तन्त्र नहीं पाया जाता है। यहाँ पर साधनों के वितरण का आधार विवेकपूर्ण न होकर एक तरह से मनमाना होता है। समाजवादियों द्वारा यह तर्क दिया जाता है कि यहाँ भी साधनों के बँटवारे के लिए मूल्य की प्रक्रिया हो सकती है और ‘भूल तथा जाँच की रीति’ द्वारा साधनों का विवेकपूर्ण वितरण हो सकता है।

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