संस्कृति अर्थ परिभाषाएँ आवश्यकता संस्कृति की विशेषताएँ

संस्कृति शब्द का जन्म संस्कार शब्द से हुआ है जो संस्कार व्यक्ति को संस्कृत बनाते हैं उसे संस्कृति नाम से संबोधित किया जाता है। भारतीय संविधान के अंतर्गत संस्कारों का बहुत महत्व है। गर्भाधान से लेकर मानव के पुनर्जन्म तक विवेक संस्कार किए जाते हैं, जिससे मानव सुसंस्कृत बनता है। जन्म होने पर नामकरण संस्कार, वेदारंभ संस्कार, उपनयन संस्कार, विवाह संस्कार तथा मृत्यु संस्कार इत्यादि विविध संस्कार होते हैं। जो विकासशील बालक को उसके सदाचार पूर्ण कर्तव्यों का स्मरण दिलाते रहते हैं और एक आदर्श मानव बनने के लिए प्रेरित करते हैं।

सही अर्थ में संस्कारों द्वारा सुसंस्कृत होकर जीवन के सभी दृश्य कोणों का व्यवहारिक प्रदर्शन ही संस्कृत में इसके आधार व्यवहार की भाषा का उल्लेख जीवन सर्वशक्तिमान सत्ता में विश्वास, आर्थिक व्यवस्था, नियंत्रण साधन, ऐश्वर्य, मान्यताएं, परंपराएं, प्रथाएं और मनोवृतिया होती है। जीवन के आदर्श और लक्ष्य की सांस्कृतिक प्रक्रियाओं की दिशा निर्धारित किया करते हैं।

संस्कृति का अर्थ

सामान्य बोलचाल की भाषा में संस्कृति का तात्पर्य केवल शिष्टाचार, संगीत, कला, मानवीय गुणों तथा चरित्र आदि से समझ लिया जाता है। अनेक विद्वान यह मानते हैं कि संस्कृति शब्द की उत्पत्ति ‘संस्कृत’ शब्द से हुई है। संस्कृत का अर्थ है-‘परिष्कार’ अथवा ‘शुद्धि की क्रिया’। इससे स्पष्ट होता है कि व्यक्ति के जीवन का परिष्कार करने अथवा उसे एक सामाजिक प्राणी बनाने के लिए जितनी भी परम्पराओं, नियमों, सामाजिक मूल्यों तथा तरह-तरह की प्रविधियों का विकास हुआ है, वे सभी संस्कृति के अंग हैं।

वास्तव में, ऐसे सभी विचार संस्कृति की अवधारणा को वैज्ञानिक रूप से स्पष्ट नहीं करते। संस्कृति की वैज्ञानिक अवधारणा अनेक मानवशास्त्रियों तथा समाजशास्त्रियों द्वारा प्रस्तुत की गयी है। ऐसे विद्वानों में टायलर, पिडिंगटन, हॉबेल, हर्सकोविट्ज, लिण्टन, मैक्स वेबर, समनर, सॉरोकिन, बीरस्टीड, बोगार्डस तथा पारसन्स आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। प्रस्तुत विवेचन में हम इन्हीं में से कुछ विद्वानों के विचारों के आधार पर संस्कृति के अर्थ और विशेषताओं की विवेचना करेंगे।

संस्कृति की परिभाषाएं

प्रसिद्ध मानवशास्त्री टायलर (E. B. Tylor) ने संस्कृति को परिभाषित करते हुए लिखा है, “संस्कृति वह जटिल सम्पूर्णता है जिसमें ज्ञान, विश्वास, कला, आचार, कानून, प्रथा तथा इसी प्रकार की ऐसी सभी क्षमताओं और आदतों का समावेश रहता है जिन्हें मनुष्य समाज का सदस्य होने के नाते प्राप्त करता है।

इकोसि (Herskovits) ने संस्कृति की बहुत संक्षिप्त परिभाषा देते हुए संस्कृति प का मानव-निर्मित भाग है। इससे स्पष्ट होता है कि मनुष्य को चारों ओर से जितनी भी दशाएं प्रभावित करती हैं, उनमें से यदि हम मनुष्य द्वारा अप्रभावित प्राकृतिक और जैविकीय दशाओं को निकाल दे तो जो कुछ भी शेष बचेगा, उसी को हम संस्कृति कहते हैं।

समाजशास्त्रीय आधार पर संस्कृति की अत्यधिक स्पष्ट परिभाषा देते हुए रॉबर्ट बीरस्टीड (Robert Fiestedt) ने लिखा है, “संस्कृति एक जटिल सम्पूर्णता है जिसमें उन सभी विशेषताओं का समावेश होता है जिन पर हम विचार करते हैं, कार्य करते हैं तथा समाज का सदस्य होने के नाते उन्हें अपने पास रखते हैं। इस प्रकार संस्कृति में जहां एक ओर विचारों और व्यवहारों के रूप में कुछ अभीतिक विशेषताओं का समावेश होता है, वहीं बहुत-सी वस्तुओं के रूप में संस्कृति की प्रकृति भौतिक भी होती है।

संस्कृति एक ऐसी व्यवस्था है जिसमें सामाजिक रूप से प्राप्त और आगामी पीढ़ियों को हस्तान्तरित कर दिये जाने वाले निर्णयों, विश्वासों, आचरणों और व्यवहार के परम्परागत प्रतिमानों से उत्पन्न होने वाले प्रतीकात्मक तथा भौतिक तत्वों को सम्मिलित किया जाता है।

लुण्डबर्ग

संस्कृति की आवश्यकता

संस्कृति की आवश्यकता निम्न कारणों से होती है-

  1. संस्कृत सामाजीकरण में सहायक होती है- शिक्षा का एक प्रमुख कार्य बालक का सामाजिक करण करना भी है। एक समाज की संस्कृति उसकी मान्यताओं परंपराओं तथा विश्वासों में होती है, यही सामाजीकरण के आधार भी होते हैं। जब बालक संस्कृत का अध्ययन करता है तो उसे सामाजीकरण के आधार प्राप्त हो जाते हैं। उन सामाजिक आधारों को ग्रहण करके वह सामाजिक व्यवहार करना सीख जाता है।
  2. संस्कृति व्यक्तित्व निर्माण में सहायक है- जैसे-जैसे बालक की आयु बढ़ती है वैसे ही उसके अनुभव में भी वृद्धि होती है। पहले व कुटुंब से संपर्क में आता है फिर कई कुटुंब ओके संपर्क में आता है और इस प्रकार वह अपने नगर जिले प्रदेश देश और विश्व के संपर्क में आता है। उसे संपर्क पड़ने के साथ ही विशिष्ट स्वभाव प्राप्त होते हैं जिसमें वह अपने जीवन का अंग बना लेता है। उसके जीवन में आए अनुभव का उसे व्यक्तित्व पर गहरा प्रभाव पड़ता है इस प्रकार उसके व्यक्तित्व का निर्माण होता है।
  3. संस्कृति के माध्यम से बालक जीवन यापन करना सीखता है- शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति को इस योग्य बनाना है कि वह सुख पूर्वक अपना जीवन व्यतीत कर सके व्यक्ति ऐसा जीवन तभी व्यतीत करता है जब उसके जीवन में संघर्ष कमाए और उसमें अनुकूल शक्ति विद्यमान हो संस्कृति व्यक्ति के जीवन में संघर्षों को कम करती है और उसे वातावरण के प्रति अनुकूलित होने की क्षमता प्रदान करती हैं।
  4. संस्कृति सामाजिक व्यवहार की दिशा निर्धारित करती है- जब बालक अपनी संस्कृति से परिचित होता है तो वह उसके अनुकूल सामाजिक आदर्शों मान्यताओं विश्वासों तथा परंपराओं के अनुकूल कार्य करना प्रारंभ कर देता है। इस प्रकार बालक संस्कृत के माध्यम से सामाजिक व्यवहार की दिशा प्राप्त करता है।
  5. संस्कृत पारस्परिक प्रेम और एकता में बांधती है- सभी देशों की अपनी संस्कृति होती है जो व्यक्ति अपने देश और समाज की संस्कृत से प्रेम करता है वह सभी संबंधित संस्कृतियों में विश्वास रखने वाले व्यक्तियों के प्रति प्रेम का भाव रखने लगता है। इससे एकता की भावना का विकास होता है।
  6. संस्कृति राष्ट्रीय भाषा का स्वरूप निर्धारित करती है- संस्कृत का आधार प्रचलित भाषा होती है आज भारत में हिंदी भाषा को पराया सभी क्षेत्रों के लोग समझते हैं। इसलिए हिंदी भाषा को भारतीय संस्कृत का वाहक मानकर राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार किया गया है।
  1. संस्कृत के द्वारा व्यक्ति प्रकृतिक से अनुकूलन करना सीखता है- एक विकसित संस्कृत का पोषक व्यक्ति प्रकृति को अपने अनुकूल ढालने का प्रयास करता है। वह दुर्गम स्थानों पर अपने आवागमन के मार्ग प्रशस्त करता है, रहने के समुचित आवास बनाता है। सिंचाई के साधन ना होने पर उसकी व्यवस्था करता है और समुद्र पर विजय पाने के लिए जलयान बनाता है। इस प्रकार व्यक्ति प्राकृतिक वातावरण से संघर्ष करके उसे अपने अनुकूल बनाने का प्रयास करता है।
  2. संस्कृति का भौतिक तथा अभौतिक स्वरूप — प्रत्येक संस्कृति के दो पक्ष होते हैं— एक, भौतिक और दूसरा, अभौतिक अभौतिक संस्कृति का तात्पर्य व्यवहार के उन तरीकों, नियमों, परम्पराओं, विश्वासों और आदर्शों से हैं जिनका कोई स्थूल रूप नहीं होता। दूसरी ओर, विभिन्न प्रकार की मशीनों, उपकरणों और वस्तुओं के रूप में मनुष्य ने जितने भी आविष्कार किए हैं, वे संस्कृति के भौतिक पक्ष को स्पष्ट करते हैं। इन भौतिक और अभौतिक तत्वों की सम्पूर्णता से ही संस्कृति का निर्माण होता है।
  3. संस्कृति का ईडॉस तथा ईथॉस पक्ष — संस्कृति के पक्षों को इन दो भागों में क्रोबर ने विभाजित किया। संस्कृति के जिन तत्वों से इसके बाहरी स्वरूप का निर्माण होता है, उसे संस्कृति का ईडॉस पक्ष कहा जाता है। दूसरी ओर, संस्कृति में कुछ ऐसे भी गुण होते हैं, जो उस संस्कृति से सम्बन्धित लोगों की मनोवृत्तियों और व्यवहारों को प्रभावित करते हैं। इसे क्रोबर ने संस्कृति का ईयॉस पक्ष कहा।
  4. संस्कृति के प्रकट तथा निहित तत्व — क्लूखोन ने संस्कृति की प्रकृति को प्रकट और निहित जैसे दो भागों में विभाजित किया है। आपका विचार है कि संस्कृति के कुछ तत्व ऐसे होते हैं जिनका हम प्रत्यक्ष रूप से अवलोकन करके उन्हें समझ सकते हैं। यह संस्कृति के ‘प्रकट तत्व’ हैं। दूसरी ओर, संस्कृति में कुछ तत्व ऐसे होते हैं जिनका सम्बन्ध अनेक प्रेरणाओं और मनोभावों से होता है। साधारणतया व्यक्ति को स्वयं इनकी कोई जानकारी नहीं होती। इन्हीं को क्लूखोन ने संस्कृति के निहित अथवा अप्रकट तत्व’ कहा है।
  5. संस्कृति अधि-वैयक्तिक है — क्रोबर ने यह स्पष्ट किया कि व्यक्ति द्वारा संस्कृति का निर्माण होने के बाद भी संस्कृति व्यक्ति से अधिक महत्वपूर्ण है। इसक तात्पर्य यह है कि व्यक्ति संस्कृति के बिना एक सामाजिक प्राणी नहीं बन सकता, लेकिन व्यक्ति के बिना संस्कृति का अस्तित्व बना रह सकता है।

संस्कृति की विशेषताएं

संस्कृति की प्रकृति को केवल कुछ परिभाषाओं के आधार पर ही नहीं समझा जा सकता। इस दृष्टिकोण से है कि संस्कृति की प्रमुख विशेषताओं के सन्दर्भ में इसकी प्रकृति को स्पष्ट किया जाए।

  1. संस्कृति मनुष्य द्वारा निर्मित है – संस्कृति का तात्पर्य उन सभी तत्वों से होता है जिनका निर्माण स्वयं मनुष्य ने किया है। उदाहरण के लिए, हमारा जीवन जिन विश्वासों, विचारों, व्यवहार के तरीकों और तरह-तरह के उपकरणों से प्रभावित होता है, वे सभी मनुष्य द्वारा निर्मित हैं। इसलिए यह संस्कृति के अंग है।
  2. संस्कृति सीखा हुआ व्यवहार है – संस्कृति की एक प्रमुख विशेषता यह है कि यह सीख और स्वयं व्यक्ति के अनुभवों का परिणाम होती है। संस्कृति में जिन व्यवहारों, नियमों और उपकरणों का समावेश होता है, उन सभी को हम सीखकर प्राप्त करते हैं। इसी आधार पर प्रसिद्ध मानवशास्त्री हॉल ने लिखा है, “संस्कृति सीखे हुए सभी व्यवहारों की सम्पूर्णता है।
  3. संस्कृति मे हस्तान्तरित होने का गुण है – संस्कृति किसी एक पीढ़ी को नहीं होती। एक बार जो विशेषताएं संस्कृति का अंग बन जाती है, उन्हें सीख की प्रक्रिया के द्वारा एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तान्तरित कर दिया जाता है। इस प्रक्रिया में प्रत्येक पीढ़ी के अनुभवों होते रहने के कारण संस्कृति का रूप अधिक व्यावहारिक बनता जाता है। का समावेश
  4. संस्कृति में सामाजिकता का तत्व है – संस्कृति किसी एक व्यक्ति की सम्पत्ति नहीं होती बल्कि यह पूरे समूह की विशेषता होती है।
  5. संस्कृति में आवश्यकता पूर्ति का गुण है – संस्कृति का कोई भी तत्व बेकार नहीं होता। एक समय, स्थान अथवा परिस्थिति में संस्कृति की प्रत्येक इकाई मनुष्य की किसी-न-किसी आवश्यकता को अवश्य पूरा करती है। मनुष्य की प्रमुख आवश्यकताएं शरीर के पोषण सुरक्षा, पुनरुत्पादन, गतिशीलता, आजीविका और स्वास्थ्य से सम्बन्धित होती हैं। एक संस्कृति के अन्द जितने भी विचारों, विश्वासों, व्यवहार के तरीकों तथा भौतिक वस्तुओं का समावेश होता है, वे सभी इनमें से किसी-न-किसी आवश्यकता को अवश्य पूरा करती हैं।
  6. संस्कृति में अनुकूलन का गुण है — एक संस्कृति में जिन तत्वों का समावेश होता है, वे सभी व्यक्ति को अपनी सामाजिक, सांस्कृतिक तथा भौगोलिक विशेषताओं से अनुकूलन करने की क्षमता प्रदान करते हैं। वैदिक काल की संस्कृति उस समय की दशाओं से अनुकूलन करने के लिए निर्मित हुई थी, जबकि आज की दशाएं बदल जाने के कारण वर्तमान संस्कृति में व्यापक परिवर्तन हो गए।
  7. संस्कृति समूह के लिए आदर्श होती है — यह सच है कि किसी भी संस्कृति को दूसरे की तुलना में उच्च अथवा निम्न नहीं कहा जा सकता लेकिन व्यावहारिक रूप से प्रत्येक समूह अपनी संस्कृति को अपने लिए आदर्श मानता है। इसी के फलस्वरूप सांस्कृतिक आधार पर विभिन्न समूह एक-दूसरे से संघर्ष भी करने लगते हैं।
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