शैक्षिक निदान का अर्थ विशेषताएँ व शैक्षिक निदान की प्रक्रिया

शैक्षिक निदान शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया का मुख्य उद्देश्य शिक्षार्थी के उच्च व्यक्तित्व का निर्माण करना है। शिक्षार्थी का व्यक्तित्व सामाजिक स्थिति एवं समाज की आवश्यकताओं पर निर्भर करता है। शिक्षार्थियों में व्यक्तिगत विभिन्नता होती है। इन व्यक्तिगत विभिन्नताओं के कारण सभी शिक्षार्थी एक जैसी योग्यता, क्षमता आवश्यकता, रूचि के नहीं होते हैं। सभी शिक्षार्थी अपने व्यक्तित्व को उच्च व्यक्तित्व के रूप में बनाना चाहते हैं।

परन्तु वे सभी इस उद्देश्य में सफल नहीं हो पाते। इसका मुख्य कारण शिक्षार्थी को गलत दिशा में जाने पर शिक्षार्थियों की समस्याओं एवं कमजोरियों का शिक्षक द्वारा निदान नहीं कर पाना है। यदि शिक्षक द्वारा शिक्षार्थी को गलत दिशा में जाने के कारणों का निदान नहीं होगा तो उसके निर्देश भी प्रभावी नहीं होंगे और वह शिक्षार्थियों के उच्च व्यक्तित्व की केवल कल्पना ही करेंगे।

यदि शिक्षक शिक्षार्थियों की समस्याओं व कठिनाइयों का निदान कर उचित निर्णय लेकर शिक्षण के सामान्य व विशिष्ट उद्देश्यों को प्राप्त करने का प्रयास करेगा तो वह शिक्षार्थियों के उच्च व्यक्तित्व के निर्माण में अवश्य ही सफलता प्राप्त कर सकता है।

शैक्षिक निदान का अर्थ

शिक्षार्थियों की शिक्षण के सम्बन्ध में व्यक्तिगत विभिन्नताओं के आधार पर कठिनाइयों व समस्याओं को ज्ञात करने की प्रक्रिया शैक्षिक निदान कहलाती है। अर्थात् निदान एक प्रक्रिया है, जिसका अर्थ पहचानना, निर्धारित करना, विभेद करना, ठीक पता लगाना आदि है, जिसमें व्यक्ति में विशिष्ट अथवा विलक्षण विशेषताओं को पहचाना जाता है। निदान का अर्थ है किसी जीव की प्रकृति अथवा विशिष्टताओं के वर्णन अथवा परीक्षण की प्रविधि।

शैक्षिक निदान की विशेषताएँ

शिक्षा के क्षेत्र में शैक्षिक निदान का महत्वपूर्ण स्थान है। इसकी निम्नलिखित विशेषताएँ हैं—-

  1. शिक्षण के दौरान आने वाली कठिनाइयों व समस्याओं को जानना ही शैक्षिक निदान है।
  2. इस प्रक्रिया में शिक्षक शिक्षार्थियों की उपलब्धि में कमियों के कारणों का अध्ययन उनके व्यक्तिगत स्तर पर करता है।
  3. शैक्षिक निदान का क्षेत्र अत्यन्त विस्तृत एवं जटिल है। इस प्रक्रिया द्वारा शिक्षक एवं शिक्षार्थी दोनों परिवर्तनशील वातावरण में समायोजित होकर समयानुकूल आचरण करने में सक्षम होते हैं। इसके द्वारा शिक्षार्थियों को पिछड़ने से बचाया जा सकता है।
  4. उपलब्धि परीक्षणों को निदान का आधार बनाया जाता है जो कि समय-समय पर प्रशिक्षित किये जाते हैं।
  5. शैक्षिक निदान सुधारवादी दृष्टिकोण होता है जिसके द्वारा सृजनात्मक की भावना का विकास करने का प्रयास किया जाता है, जिससे शिक्षार्थी का व्यक्तित्व उच्च श्रेणी का बन सके।
  6. शैक्षिक निदान द्वारा विभिन्न स्तर पर उत्तम पाठ्यक्रम का निर्माण किया जा सकता है।
  7. शैक्षिक निदान इसलिए भी आवश्यक है कि शिक्षा सम्बन्धी अनेक कमजोरियों का कारण शिक्षार्थी का व्यक्तिगत स्वरूप न होकर सामाजिक वातावरण होता है; जैसे- अभिभावक का अनपढ़ होना, आर्थिक रूप से पिछड़ा होना, शैक्षिक वातावरण व मिलना, सामाजिक पिछड़ेपन के कारण सुविधाओं की कमी होना आदि। ऐसी स्थिति में केस स्टडी विधा के द्वारा शैक्षिक निदान किया जा सकता है।
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शैक्षिक निदान की प्रक्रिया

  1. निदान हेतु शिक्षार्थियों का चयन – इस सोपान के अन्तर्गत उन शिक्षार्थियों का चयन किया जाता है जो विभिन्न शैक्षिक क्षेत्रों में कठिनाई का अनुभव कर रहे हैं या किसी अन्य समस्याओं के कारण पिछड़ रहे हैं। इनका चयन करने के लिए निम्न बातों का ध्यान रखना चाहिए-
    • निदान हेतु शिक्षार्थियों का चयन समय-समय पर बुद्धि परीक्षाओं के माध्यम से किया जा सकता।
    • शिक्षार्थियों द्वारा स्वयं कमजोरियों के कारणों का पता लगाने के लिए आगे आना।
    • साक्षात्कार के माध्यम से शिक्षार्थियों की समस्याओं और कमजोरियों के बारे में जानकारी कर उनका निदान हेतु चयन किया जा सकता है।
    • शिक्षक अपने अनुभव के आधार पर निदान हेतु शिक्षार्थियों का चयन कर सकता है।
    • निदान हेतु चयन में वे शिक्षार्थी होते हैं जो कक्षा शिक्षण में तो होशियार लगते हैं, लेकिन परीक्षाओं में पीछे रह जाते हैं या अन्य क्षेत्रों में उपलब्धि प्रशंसनीय होती है। लेकिन विषय-वस्तु उपलब्धि निम्न स्तर की होती है।
    • उच्च बुद्धि-लब्धि वाले शिक्षार्थी, जो साथियों में समायोजित नहीं हो पाते अथवा शैक्षिक उपलब्धि में पीछे रह जाते हैं, उन्हें निदान हेतु चुना जा सकता है।
  2. निदान हेतु विषय-वस्तु क्षेत्र का निर्धारण करना — निदान प्रक्रिया द्वारा शिक्षार्थियों की समस्याओं व कठिनाइयों के विशिष्ट क्षेत्र को जानकर अलग-अलग क्षेत्र के अनुसार वर्गीकृत किया जा सकता है। शिक्षार्थियों की समस्या के विषय-वस्तु क्षेत्र को निर्धारित करके उचित रूप से निदान किया जा सकता है क्योंकि निदानात्मक परीक्षणों का क्षेत्र संकुचित एवं सीमित होता है जिससे वे ‘उचित निदान कर सकते हैं। विषय-वस्तु के निर्धारण से निदान प्रक्रिया सरल स्पष्ट हो जाती है और वह प्रभावी परिणाम दे पाती है।
  3. विषय वस्तु क्षेत्र में कठिनाई स्थलों की खोज करना — विषय-वस्तु के क्षेत्र का निर्धारण करने के पश्चात् शिक्षार्थी का उस क्षेत्र में कठिनाई स्थल ज्ञात किया जाता है। शिक्षार्थी किसी विशेष क्षेत्र में किस प्रकार की कठिनाई का अनुभव कर रहा है अथवा समस्या का सामना कर रहा है, इसके लिए शिक्षक स्वयं निर्मित परीक्षण अथवा उपलब्धि परीक्षणों का सहारा लेता है लेकिन निदानात्मक कार्य हेतु निदानात्मक परीक्षणों को प्रशासित करता है। इनके द्वारा यही ज्ञात किया जाता है कि शिक्षार्थी विषय विशेष के मूल प्रत्ययों, प्रक्रियाओं, सिद्धान्तों, नियमों आदि के सम्बन्ध में किन स्थलों पर किस प्रकार की कठिनाई या समस्या का सामना करता है।
  4. कठिनाई स्थलों का विश्लेषण करना — शिक्षार्थी द्वारा एक ही प्रकार की गलतियों को बार-बार करना, ऐसी समस्याएँ जिससे कि किसी निश्चित स्थल पर आकर शिक्षार्थी का कठिनाई अनुभव करना आदि प्रश्नों का उत्तर पाना एक कठिन कार्य है। इसके लिए शिक्षक को कठिनाई के स्थलों का विश्लेषण करना होता है। विश्लेषण द्वारा शिक्षक इन कठिनाइयों के सम्भावित कारणों को प्राप्त करता है। ये कारण शिक्षार्थी का मन्द बुद्धि होना, शिक्षार्थी में हीन भावना होना, कोई अंगीय दोष होना, अत्यधिक भावुक होना, बुरी आदतों से मजबूर होना, पारिवारिक स्थिति ठीक न होना आदि हो सकते हैं। शिक्षक अपने अनुभव के आधार पर क्षेत्रीय सामाजिक स्थिति को ध्यान में रखते हुए साक्षात्कार द्वारा सही कारणों का पता लगा लेता है।

इस प्रकार निदान क्रिया पूर्ण होने पर शिक्षक के पास शिक्षार्थियों की समस्याओं व कठिनाइयों की सूचना व उनके कारणों की जानकारी होती है। इसका उपयोग शिक्षक उपचारात्मक परीक्षण हेतु करता है। जिसके परिणामस्वरूप शिक्षार्थियों की समस्याओं व कठिनाइयों को दूर किया जाता है।

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