शिक्षण अर्थ विशेषताएँ प्रकृति व स्वरूप

शिक्षण कार्यों के विषय में ज्ञान प्राप्त करने से पूर्व शिक्षण का अर्थ समझना अधिक युक्तिपूर्ण होगा। शिक्षण अंग्रेजी के शब्द Teaching का हिन्दी पर्याय है। शिक्षण एक सामाजिक प्रक्रिया है। अतः इस पर प्रत्येक देश की शासन-प्रणाली सामाजिक दर्शन, सामाजिक परिस्थितियों तथा मूल्यों आदि का प्रभाव पड़ता है। जिस देश में जैसी शासन प्रणाली या सामाजिक तथा दार्शनिक परिस्थितियाँ होंगी – वहाँ उसी प्रकार की ‘शिक्षण’ प्रक्रिया होगी। विभिन्न दर्शनों, संस्कृतियों तथा देश के सामाजिक स्वरूप के आधार पर शिक्षण के अर्थ को तीन भागों में वर्गीकृत किया जा सकता है।

  1. एकतन्त्र में शिक्षण का अर्थ
  2. लोकतन्त्र में शिक्षण का अर्थ
  3. हस्तक्षेप रहित शासन में शिक्षण का अर्थ

एकतन्त्र में शिक्षण का अर्थ

एकतन्त्र शासन में तानाशाही की इच्छा प्रमुख होती है। इस प्रकार के वातावरण में शिक्षण प्रक्रिया शिक्षक-प्रधान मानी जाती है। शिक्षक कक्षा में आदर्श माना जाता है। वह छात्रों पर अपना रौव दवाब रखता है और उन पर अपने आदेशों तथा विचारों को बलपूर्वक हँसता रहता है। इस शिक्षण प्रक्रिया में छात्र शान्तिपूर्वक शिक्षक को सुनने के लिए बाध्य है।

शिक्षक की प्रत्येक बात को बिना किसी तर्क के उन्हें स्वीकार करना होता है। शिक्षक सक्रिय रहते हैं और छात्र भयभीत श्रोता बने बैठे रहते हैं। इस प्रकार के शिक्षण में वार्तालाप, तर्क तथा शिक्षक की आलोचना करने का अधिकार छात्रों को नहीं है। दूसरे शब्दों में कक्षा में शिक्षक अपना राज्य तानाशाह के रूप में चलाता है।

This teaching is an intimate contact between a more mature personality and a less mature one which is designed to further the education of the later.

मॉरीसन

मॉरीसन ने इस प्रकार के शिक्षण का वर्णन करते हुए लिखा है-

शिक्षण वह प्रक्रिया है जिसमें अधिक विकसित (परिपक्व ) व्यक्तित्व कम विकसित व्यक्तित्व के सम्पर्क में आता है और कम विकसित व्यक्तित्व (अपरिपक्व) की भावी शिक्षा के लिये विकसित व्यक्तित्व प्राप्त कराने के लिये व्यवस्था करता है। इस प्रकार की शिक्षण व्यवस्था ‘शिक्षण-केन्द्रित होती है। शिक्षण व्यवस्था अधिकतर स्मृति स्तर तक सीमित रहती है। इस प्रकार के शिक्षण में आलोचना करने के लिए या छात्रों की क्षमताओं के विकास के लिये अवसर नहीं दिये जाते। ऐसी शिक्षा एकतन्त्रीय शिक्षा कहलाती है।

लोकतन्त्र में शिक्षण का अर्थ

लोकतन्त्र में शासन प्रणाली मानवीय सम्बन्धों पर आधारित रहती है तथा सामान्य जनता की इच्छा सर्वोत्तम मानी जाती है। इस प्रकार की प्रणाली में शिक्षण भी लोकतन्त्रीय आधार लिए रहता है। यहाँ पर शिक्षक और छात्र दोनों ही सक्रिय रहते हैं और उनके मध्य शाब्दिक एवं अशाब्दिक अन्तःक्रिया चलती रहती है। कक्षा में शिक्षक के साथ छात्रों को तर्क करने, प्रश्न करने, उत्तर पाने तथा अन्य प्रकार के वार्तालाप करने के अनेक अवसर रहते हैं। यहाँ पर छात्र एवं शिक्षक दोनों ही एक-दूसरे के व्यक्तित्व को प्रभावित करने का प्रयत्न करते हैं। गेज ने इस प्रकार के शिक्षण के विषय में लिखा है-

“(This) teaching is a form of inter personal influence aimed at changing the behaviour potential of another person.”

गेज

शिक्षक केवल पथ-प्रदर्शक या निर्देशक के रूप में कार्य करता है और स्व-अनुशासन पर बल देता है।

एडमन्ड एमीडोन ने लोकतन्त्र या जनतन्त्र शासन प्रणाली की शिक्षा की परिभाषा इस प्रकार दी है-“शिक्षण को एक अन्तःप्रक्रिया के रूप में परिभाषित किया जाता है जिसके अन्तर्गत कक्षा कथनों को समावेशित किया जाता है जो शिक्षक और छात्रों में कक्षा में होते हैं।”

Teaching is defined as an interactive process, primarily involving classroom talk which takes place between teacher and pupil and occurs during certain definable activity.

Edmund Amidon, 1967

जनतन्त्रीय शिक्षण में शिक्षण को अन्तःप्रक्रिया के रूप में लिया जाता है। इस प्रकार का शिक्षण मानवीय सम्बन्ध केन्द्रित अथवा छात्र केन्द्रित होता है तथा छात्र एवं शिक्षक परस्पर सम्मान देते हैं और बिना किसी भय के अपने-अपने विचारों को प्रस्तुत करते हैं। इस प्रकार के शिक्षण में ‘स्व-अनुशासन’ या स्वतन्त्र अनुशासन पर विशेष बल दिया जाता है। जनतन्त्र के स्वतन्त्रता, समानता तथा अभिव्यक्ति प्रदर्शन के मूल्यों का पूर्ण सम्मान जनतन्त्रीय शिक्षण में किया जाता है।

हस्तक्षेप रहित शासन में शिक्षण का अर्थ

इस प्रकार के शिक्षण में शिक्षक एक मित्र के रूप में कार्य करता है और छात्रों को अधिक सक्रिय बनाते हुए, उन्हें अधिक से अधिक अवसर विभिन्न समस्याओं को सुलझाने के लिए प्रदान करता है। इस प्रकार वह छात्रों की क्रियाओं में हस्तक्षेप न करके उनकी सृजनात्मक क्षमताओं के विकास की ओर अपना ध्यान केन्द्रित करता है। ब्रूबेकर ने हस्तक्षेप रहित शासन में शिक्षण का विवेचन अग्र शब्दों में किया है-

“बूबेकर के अनुसार शिक्षण में ऐसी व्यवस्था अथवा परिस्थिति उत्पन्न की जाती हैं जिनमें छात्रों के समक्ष कठिनाइयाँ एवं समस्यायें उत्पन्न की जाती हैं तथा छात्र इन कठिनाइयों एवं समस्याओं के समाधान के लिये अधिक सक्रिय होकर कार्य करते हैं और विषय-वस्तु सीख जाते हैं।

डॉ. एस. पी. कुलश्रेष्ठ (1999) के शब्दों में कहा जा सकता है कि शिक्षण, प्रक्रियाओं की एक ऐसी व्यवस्था है जिसमें एक व्यक्ति दूसरे को ज्ञान प्रदान करने के लिये शिक्षण के कार्य को सम्पन्न करने के लिए अनेक प्रकार की क्रियायें करता है और छात्रों के व्यवहार में आत्मीयता के साथ वांछित परिवर्तन लाने का प्रयास करता है।

शिक्षण की विशेषताएँ

योकम व सिम्पसन ने अच्छे शिक्षण के आधारभूत सिद्धान्तों का सविस्तार वर्णन किया है। इन्हीं सिद्धान्तों को कुछ शिक्षकों ने सफल शिक्षण की विशेषतायें कहा है। हम इसका वर्णन नीचे की पंक्तियों में कर रहे हैं-

  1. अच्छा शिक्षण सीखने में पथ-प्रदर्शन की योग्यता होती है।
  2. अच्छा शिक्षण दया व सहानुभूतिपूर्ण होता है।
  3. अच्छा शिक्षण सहयोगी होता है।
  4. अच्छा शिक्षण सुझावात्मक होता है।
  5. अच्छा शिक्षण जनतन्त्रीय होता है।
  6. अच्छा शिक्षण प्रेरणादायक होता है।
  7. अच्छा शिक्षण सुनियोजित होता है।
  8. अच्छा शिक्षण बालक के अनुभवों को मान्यता देता है।
  9. अच्छा शिक्षण शिक्षक के अनुभवों को मान्यता देता है।
  10. अच्छा शिक्षण प्रगतिशील होता है।
  11. अच्छा शिक्षण कठिनाइयों का निदान करता है।
  12. अच्छा शिक्षण उपचारपूर्ण होता है।
  13. अच्छा शिक्षण आत्मविश्वास उत्पन्न करता है।
  14. अच्छा शिक्षण का मूल्यांकन करता है।
  15. अच्छा शिक्षण रुचियों व मूलप्रवृत्तियों का विकास करता है।
शैक्षिक तकनीकीशैक्षिक तकनीकी के उपागमशैक्षिक तकनीकी के रूप
व्यवहार तकनीकीअनुदेशन तकनीकीकंप्यूटर सहायक अनुदेशन
ई लर्निंगशिक्षण अर्थ विशेषताएँशिक्षण के स्तर
स्मृति स्तर शिक्षणबोध स्तर शिक्षणचिंतन स्तर शिक्षण
शिक्षण के सिद्धान्तशिक्षण सूत्रशिक्षण नीतियाँ
व्याख्यान नीतिप्रदर्शन नीतिवाद विवाद विधि
श्रव्य दृश्य सामग्रीअनुरूपित शिक्षण विशेषताएँसूचना सम्प्रेषण तकनीकी महत्व
जनसंचारश्यामपट

अच्छा शिक्षण सीखने में पथ-प्रदर्शन की योग्यता होती है-

अच्छा शिक्षण वह नहीं है, जो बालक को अधिक-से-अधिक ज्ञान प्रदान करता है, उसे अनुचित कार्य करने से रोकता है। यह उसकी दूषित प्रवृत्तियों का दमन करता है। इसके विपरीत अच्छा शिक्षण वह है जो बालक को ऐसे मार्ग की ओर अग्रसर करता है, जिसका अनुसरण करने पर ज्ञान प्राप्त कर सकता है, अपने व्यक्तित्व का विकास कर सकता है।

योकम व सिम्पसन का कथन है” अच्छे शिक्षण का मुख्य कार्य है— बालक को पथ-प्रदर्शित और निर्देशित करना और उसे सीखने का प्रयास करने के लिए प्रोत्साहित करना। अच्छा शिक्षण बालक के समक्ष अनुसन्धान के नये क्षेत्र प्रस्तुत करता है, उसे नई बातों से अवगत कराता है, कार्य करने की विधि बताता है और अपनी प्रगति का मूल्यांकन करने में सहायता देता है।”

अच्छा शिक्षण दया व सहानुभूतिपूर्ण होता है-

अच्छा शिक्षण प्रदान करने के लिए दया और सहानुभूति की परम आवश्यकता है। इन गुणों के अभाव में शिक्षण कला का मर्मज्ञ होने पर भी शिक्षक अपने कार्य में अंशमात्र भी सफलता प्राप्त नहीं कर सकता है। योकम व सिम्पसन ने ठीक ही लिखा है” अच्छा शिक्षक ऐसे वातावरण में सम्भव नहीं है, जिसमें छात्रों की रुचियों और आवश्यकताओं के प्रति दया और सहानुभूति का अभाव है।”

अच्छा शिक्षण सहयोगी होता है-

अच्छा शिक्षण अध्यापक और छात्रों के बीच एक सहयोगी कार्य है। अतः अच्छा शिक्षक अपने शिक्षण कार्य को इस प्रकार नियोजित करता है कि उसे तर्क, वाद-विवाद आदि के द्वारा अपने छात्रों का सहयोग प्राप्त हो सके। ऐसा न होने से उसका शिक्षण असफल होता है। जो शिक्षक सारे समय बोलता रहता है और छात्रों को बोलने का अवसर नहीं देता है, उसकी कक्षा में सजगता और सजीवता का अभाव होता है।

अच्छा शिक्षण सुझावात्मक होता है-

अच्छे शिक्षण का आधार सुझाव है, न कि आदेश। अतः शिक्षक को चाहिए कि वह अपने छात्रों को विभिन्न कार्यों, उनके उद्देश्यों और उनमें प्रयोग की जाने वाली सामग्री का सुझाव दे योकम व सिम्पसन ने ठीक ही लिखा है— अच्छा शिक्षण आदेश के बजाय सुझाव के आधार पर आगे बढ़ता है।”

अच्छा शिक्षण जनतन्त्रीय होता है-

अच्छे शिक्षण में जनतन्त्रीय वातावरण का निर्माण करने का प्रयास किया जाता है। इस वातावरण में शिक्षक यह मान लेता है कि सभी छात्रों के समान अधिकार हैं, सभी के लिए समान नियम हैं और सभी में सामाजिक समानता है। वह धनी और निर्धन, उच्च और निम्न परिवार के छात्रों में किसी प्रकार का भेदभाव नहीं करता है। अतः उनमें यह विश्वास उत्पन्न हो जाता है कि वे सामाजिक दृष्टि से समान स्तर पर हैं। परिणामस्वरूप उनमें जनतन्त्रीय भावनाओं का विकास होता है और वे अपने कर्तव्यों का पालन एवं दूसरों के अधिकारों का सम्मान करना सीख जाते हैं।’

अच्छा शिक्षण प्रेरणादायक होता है-

अच्छा शिक्षण बालक को सीखने के लिए प्रेरणा देता है। अच्छा शिक्षक अपने व्यक्तित्व और कार्यों से छात्रों के व्यक्तित्व और कार्यों को प्रेरित करता है। योकम व सिम्पसन के अनुसार योग्य शिक्षक के प्रेरणादायक व्यक्तित्व के अभाव में कक्षाकक्ष बचपन की शिक्षा के लिए शीघ्र ही अव्यवस्थित और प्रभावहीन साधन हो जाता है।”

अच्छा शिक्षण सुनियोजित होता है-

अच्छे शिक्षण की एक सुनियोजित योजना होती है और यह पाठ्यक्रम प्रारम्भ करने से पहले ही बना ली जाती है। योजना बनाने के कारण अध्यापक को इस बात की पूरी जानकारी हो जाती है कि उसे शिक्षण के समय किन तथ्यों, विधियों और उपकरणों का प्रयोग करना पड़ेगा और उनके सामने कौन-सी कठिनाइयाँ तथा समस्यायें आयेंगी।

वह इस बात का पूर्ण अनुमान लगा लेता है कि कक्षा में उसे किन परिस्थितियों का सामना करना पड़ेगा। अतः वह अपनी पूर्व योजना की सहायता से अपने उद्देश्य को प्राप्त करने में सफल होता है। पर योजना लचीली होनी चाहिए, ताकि इसमें समय और आवश्यकता के अनुसार परिवर्तन किया जा सके।

अच्छा शिक्षण बालक के अनुभवों को मान्यता देता है –

अच्छे शिक्षण में बालक के पूर्व अनुभवों को मान्यता प्रदान की जाती है। अतः शिक्षण के समय उसकी रुचियों, मनोवृत्तियों, योग्यताओं और आदतों को ध्यान में रखा जाता है। इसके अनुसार ही शिक्षण की नई सामग्री और नई क्रियाओं को चुना जाता है। दूसरे शब्दों में, शिक्षण का मुख्य आधार बालक के पूर्व अनुभवों का पुनर्संगठन है। उसको दिया जाने वाला नया ज्ञान उसके पूर्व ज्ञान से सम्बन्धित किया जाता है।

अच्छा शिक्षण शिक्षक के अनुभवों को मान्यता देता है –

शिक्षण अच्छा तभी समझा जाता है, जब शिक्षक अपने पूर्व अनुभवों को मान्यता देकर उनसे लाभ उठाता है। शिक्षण के समय वह बालकों के सम्पर्क में आता है, विभिन्न शिक्षण विधियों का प्रयोग करता है और विभिन्न परिणामों पर पहुँचता है। अपने अगले शिक्षण में वह इन – अनुभवों से लाभ उठाता है, अपनी पिछली त्रुटियों को सुधारता है और परिणामों को अधिक प्रभावपूर्ण बनाता है। परिणामतः उसके शिक्षण में दिन-प्रतिदिन सुधार होता चला जाता है।

अच्छा शिक्षण प्रगतिशील होता है –

शिक्षण अच्छा तभी समझा जाता है, जब बालक की मनोवृत्तियों, रुचियों, विचारों, कुशलताओं, योग्यताओं, ज्ञान के अर्जन और विचार तथा कार्य की आदतों के विकास में उचित सामाजिक लक्ष्यों की ओर प्रगति होती है। बालक की प्रगति के साथ-साथ शिक्षण की प्रगति भी आवश्यक है। उसे अपनी शिक्षण विधियों में निरन्तर प्रगति करते रहना चाहिए। इस प्रकार शिक्षण प्रगतिशील तभी कहा जाता है, जब बालक और शिक्षक दोनों प्रगति के पथ पर आगे बढ़ते हैं।

अच्छा शिक्षण कठिनाइयों का निदान करता है –

अच्छे शिक्षण में बालक की कठिनाइयों के निदान का स्थान अति महत्वपूर्ण है। वह किसी बात को सीखने में रुचि क्यों नहीं लेता है ? वह सीखने में त्रुटियाँ क्यों करता है ? वह दूसरों की अपेक्षा देर से क्यों सीखता है ? अच्छा शिक्षक इन और इसी प्रकार की अन्य कठिनाइयों के कारणों को जानने का सफल प्रयास करता है।

अच्छा शिक्षण उपचारपूर्ण होता है –

अच्छे शिक्षण में बालकों की वैयक्तिक और सामूहिक कठिनाइयों को दूर करने का प्रयास किया जाता है। कठिनाइयाँ ऐसी होती हैं जिनको शिक्षण स्वयं सरलता से दूर कर देता है। पर कुछ ऐसी होती हैं जिनको दूर करने के लिए उसे विशेषज्ञ की सहायता लेनी पड़ती है। फिर भी यदि शिक्षक को सीखने की समस्याओं और विभिन्न विषयों के शिक्षण की विधियों की पूर्ण जानकारी है, तो वह बालकों की प्रायः सभी कठिनाइयों का निवारण कर सकता है। आधुनिक शिक्षण कला और मापन विधियाँ इतनी प्रगति कर चुकी हैं कि बालकों की सभी कठिनाइयों के लिए प्रभावशाली उपचार विद्यमान हैं।

अच्छा शिक्षण आत्मविश्वास उत्पन्न करता है –

अच्छे शिक्षण का उद्देश्य है बालक में आत्मविश्वास का विकास करना, जिससे कि वह स्वतन्त्र चिन्तन कर सके और अपनी बुद्धि का प्रयोग करके अपनी समस्याओं का समाधान कर सके। यदि शिक्षण बालक में आत्मविश्वास का विकास नहीं करता है तो सन्तुलित ज्ञान का संचय करने के बाद भी उसमें मौलिक और साहसी कार्यों को करने की क्षमता नहीं होती है। ऐसी दशा में उसका कठोर परिश्रम से अर्जित ज्ञान व्यर्थ हो जाता है।

अच्छा शिक्षण का मूल्यांकन करता है –

अच्छे शिक्षक का एक महत्वपूर्ण कार्य है बालक के ज्ञान का मूल्यांकन करना। मूल्यांकन में जितने ही अधिक अच्छे परिणाम प्राप्त होते हैं, शिक्षण उतना ही अधिक सफल समझा जाता है। मरसेल ने ठीक ही लिखा है “शिक्षण की अन्तिम कसौटी परिणाम है।”

परिणाम को जाँचने वाली प्रचलित विधि है— निबन्धात्मक प्रकार की परीक्षा, जिसकी सभी शिक्षाविदों द्वारा कटु आलोचना की गई है। यह विधि न तो बालकों के मानसिक विकास को और न उनके विचार तथा कार्य को प्रभावित करती है। यही कारण है कि संसार के प्रगतिशील देशों में इस विधि का परित्याग करके अर्जित ज्ञान के मूल्यांकन के लिए नवीन विधियों का प्रयोग किया जाता है।

अच्छा शिक्षण रुचियों व मूलप्रवृत्तियों का विकास करता है–

अच्छा शिक्षण बालक की रुचियों और मूलप्रवृत्तियों का विकास करता है। बालक में शिक्षण द्वारा जितनी ही अधिक रुचियों का विकास कर दिया जाता है, वह उतना ही अधिक सुखी, कुशल एवं सन्तुलित जीवन व्यतीत करने में सफल होता है। इसके अतिरिक्त उसकी मूलप्रवृत्तियों को शिक्षण द्वारा उस प्रकार विकसित किया जाता है कि वह उनको स्वतन्त्र रूप से समाजीकृत ढंग से व्यक्त कर सकता है।

अन्त में, हम योकम व सिम्पसन के शब्दों में कह सकते हैं” अच्छे शिक्षण का आदर्श है—छात्रों में पहलकदमी, विचार और कार्यविधि में स्वतन्त्रता, आत्मनिर्भरता और आत्मविश्वास का विकास करना, जिससे कि वे अन्ततः स्वतन्त्र रूप से अपनी समस्याओं में संलग्न हो सकें और उनका समाधान कर सकें।”

शिक्षण विज्ञान के रूप में

आज के युग में शिक्षण को विज्ञान के रूप में पहचाना जाता है। शिक्षण को कला की संज्ञा भी दी जाती रही है। विज्ञान इसलिये कहा जाता है कि शिक्षण की सभी क्रियाओं का निरीक्षण तथा विश्लेषण किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त शिक्षण क्रियाओं का अध्ययन वस्तुनिष्ठ ढंग से किया जा सकता है। वस्तुनिष्ठ ढंग से इन क्रियाओं के अध्ययन के साथ-साथ इन्हें प्रयोग भी किया जा सकता है।

संक्षेप में कह सकते हैं कि शिक्षकों को प्रशिक्षण द्वारा तैयार किया जा सकता है। पृष्ठ-पोषण द्वारा विद्यार्थियों में आवश्यक परिवर्तन लाया जा सकता है। दूसरी ओर, शिक्षण को कला के रूप में मानने वालों का विश्वास है कि शिक्षक जन्मजात होते हैं तथा उन्हें किसी भी प्रकार के प्रशिक्षण द्वारा तैयार नहीं किया जा सकता।

शिक्षण सम्बन्धी कुछ धारणाएँ

  1. शिक्षक व्यावसायिक है या होना चाहिये जो कि शिक्षण कार्य के बारे में सभी प्रकार के निर्णय लेने योग्य हो।
  2. शिक्षक का प्राथमिक उद्देश्य विद्यार्थी अधिगम को प्रोत्साहित करना है।
  3. विद्यार्थियों में अधिगम और उनके व्यवहार में आये परिवर्तनों को प्रेक्षण द्वारा मापा जा सकता है।
  4. शिक्षण एक कठिन प्रक्रिया है जो उन शक्तियों से, जिनसे शिक्षक आंशिक रूप से अवगत होते और वे आंशिक रूप से ही नियंत्रित कर सकते, से प्रभावित होती हैं।
  5. शिक्षण वह क्रिया है जिसकी व्याख्या और विश्लेषण हो सके।
  6. शिक्षकों को अपने शिक्षण के बारे में वस्तुनिष्ठ प्रमाण प्रयोग करने चाहिये और इसी प्रकार विद्यार्थी के अधिगम पर प्रभाव और अपने शिक्षण का मूल्यांकन करने के लिये वस्तुनिष्ठ प्रमाणों का प्रयोग करें।

शिक्षण की प्रकृति या स्वरूप

‘शिक्षण’ के अर्थ से पूर्णतया अवगत होने के लिये उसके स्वरूप से परिचित होना आवश्यक है। इस स्वरूप के अग्रांकित पहलू है-

शिक्षण सम्बन्ध स्थापित करना है-

हम ‘शिक्षण की प्रक्रिया’ में बता चुके हैं कि ‘शिक्षण’ का अर्थ है— शिक्षक, बालक और विषय में सम्बन्ध स्थापित करना। इस सम्बन्ध को स्थापित करने का दायित्व शिक्षक पर है। रायबर्न के अनुसार, इस कार्य में सफलता प्राप्त करने के लिये शिक्षक को निम्नलिखित बातों का निश्चित ज्ञान होना चाहिये-

  • बाल-प्रकृति का ज्ञान — रायवर्न ने लिखा है कि शिक्षक की बाल-प्रकृति का सामान्य ज्ञान और जिन बालकों को वह शिक्षा देता है, उनकी प्रकृति का विशेष ज्ञान होना चाहिये । उसे यह निश्चय रूप से समझ लेना चाहिये कि बालकों के शारीरिक स्वास्थ्य, शारीरिक शक्तियों, योग्यताओं, रुचियों, संवेगों, बुद्धि, स्वभाव आदि में विभिन्नता होती है। उसकी सफलता उन विभिन्नताओं को समझने और इनको व्यावहारिक रूप प्रदान करने पर निर्भर होती है।
  • अपने आपका ज्ञान — रायबर्न का कथन है— “शिक्षक को अपने आपका पूर्ण ज्ञान होना चाहिये, जिससे कि वह अपनी स्वयं की भावनाओं और बालकों के प्रति अपने स्वयं के व्यवहार को समझ सके।”
  • विषय व रुचि का ज्ञान — शिक्षक को उस विषय का ज्ञान होना चाहिये जिसे वह अपने छात्रों को पढ़ाने का प्रयास करता है। उसे इस बात का भी ज्ञान होना चाहिये कि वह बालक और विषय में किस प्रकार सम्बन्ध स्थापित करे। दूसरे शब्दों में, उसे शिक्षण विधि का ज्ञान होना चाहिये।
  • प्रभाव का ज्ञान – शिक्षक को इस बात का ज्ञान होना चाहिये कि बालक के ऊपर उसका स्वयं का, उसके व्यक्तित्व, आदतों और कार्यों का एवं जो वह कहता और करता है का क्या प्रभाव पड़ता है। बालक पर पड़ने वाले इन प्रभावों का ज्ञान उसके लिये अति आवश्यक है। क्योंकि इनको जानकर ही शिक्षण की उचित विधियों का प्रयोग कर सकता है। इससे उसको अपने शिक्षण को सुधारने में सहायता मिलती है।
  • जीवन-दर्शन का ज्ञान – रायबर्न के अनुसार, शिक्षक का जीवन के प्रति एक निश्चित दृष्टिकोण होना चाहिये, जिसे हम जीवन-दर्शन कहते हैं। उसकी निश्चित धारणाएँ और उच्च आदर्श होने चाहिये। उसे ईश्वर और मनुष्यों में आस्था होनी चाहिये। उसमें सत्य और उसके प्रसार के प्रति प्रेम होना चाहिये। उसे अपने देश और संसार की सेवा में संलग्न रहना चाहिये उसे ‘सत्यम् शिवम् सुन्दरम्’ का मार्ग प्रशस्त करना चाहिये।
  • विषय के प्रस्तुतीकरण का ज्ञान – शिक्षक को इस बात का ज्ञान होना चाहिये कि वह शिक्षण की विषय-सामग्री बालक के समक्ष किस प्रकार से प्रस्तुत करे। इस सम्बन्ध में वेल्टन का कथन है— शिक्षण को ज्ञान की सामग्री इस प्रकार प्रस्तुत करनी चाहिये कि उसमें निहित वास्तविक सम्बन्धों को भली प्रकार समझा जा सके।”

शिक्षण सूचना देना है-

शिक्षण के समय अध्यापक अपने छात्रों को प्रायः नई सूचना देता है। ऐसी बहुत-सी बातें होती हैं. जिन्हें वे बिना बताये नहीं जान सकते हैं, अतः उनको उन बातों का बताया जाना आवश्यक है। प्रारम्भिक कक्षाओं में तो शिक्षक का अधिकांश समय अपने छात्रों को सूचनाएँ देने और विभिन्न प्रकार की बातें बताने में व्यतीत होता है। इस दृष्टिकोण से शिक्षण का अर्थ सूचना देना है।

सूचना देने में कहानी कहने की कला बहुत सहायक होती है। जो शिक्षक इस कला में निपुण होता है, उसके लिये सूचना द्वारा ज्ञान प्रदान करने का कार्य सरल हो जाता है। इस कार्य को खेल का रूप देकर भी रोचक और आकर्षक बनाया जा सकता है। इसके अतिरिक्त यदि शिक्षक अपनी सूचना का सम्बन्ध उस बात से स्थापित कर दे, जिसे बालक जानता है, तो बालक उस सूचना को सरलता से समझ जाता है।

शिक्षण सिखाना है-

शिक्षण को तभी सफल माना जा सकता है, जब वह बालक को सीखने और स्वयं कुछ कार्य करने में सहायता देता है। इस दृष्टिकोण से शिक्षक केवल एक साधन है। शिक्षण द्वारा उनका कार्य है बालक को सिखाना, सीखने के लिये उसे प्रेरित करना और इस प्रकार उसकी प्रगति में योग देना। ह्यूजेज व ह्यूजेज का कथन है- “शिक्षण का अर्थ है सिखाना। तब तक कुछ नहीं दिया गया है, जब तक कुछ ग्रहण नहीं किया गया है; तब तक कुछ नहीं पढ़ाया गया है, जब तक कुछ सीखा नहीं गया है।”

व्यक्ति को इस सामाजिक चेतना में भाग लेने के योग्य बनाना शिक्षण का एक महत्त्वपूर्ण कार्य है। बालक अपने वातावरण के प्रति बुरी प्रतिक्रिया न करके केवल अच्छी प्रतिक्रिया ही करे, यह केवल शिक्षण द्वारा ही सम्भव है। अच्छी प्रतिक्रिया करके ही उसका शारीरिक, सामाजिक और आध्यात्मिक विकास हो सकता है। सिम्पसन का कथन है- “शिक्षण वह साधन है, जिसके द्वारा समाज अपने बालकों को चुने हुए वातावरण से, जिसमें कि उनको रहना है, शीघ्रातिशीघ्र अनुकूलन करने की क्रिया में प्रशिक्षित करता है।”

“Teaching is the means by which the society trains its children as early as pos- sible in the act of adjusting themselves to the selected environment in which they have to live.”

Simpson

शिक्षण मार्ग-प्रदर्शन है –

जिस समय पुस्तकों, पुस्तकालयों और प्रयोगशालाओं का अभाव था, उस समय शिक्षण का मुख्य उद्देश्य सूचना देना समझा जाता था, पर आज जब इन वस्तुओं का बाहुल्य है, तब शिक्षण का अर्थ मार्ग-प्रदर्शन माना जाता है। बालकों के मस्तिष्क अपरिपक्व होते हैं। अतः यह आवश्यक है कि न केवल उनके कार्यों, वरन् उनकी आदतों, रुचियों और प्रवृत्तियों को शिक्षण द्वारा उचित दिशा में निर्देशित किया जाये।

रायबर्न ने मार्ग-प्रदर्शन को शिक्षण का सबसे महत्त्वपूर्ण पहलू माना है। उसका कथन है कि शिक्षक को बालकों को पढ़ने, सीखने, कार्य करने और विचार करने की उचित विधियाँ सिखाकर उनका मार्ग-प्रदर्शन करना चाहिये। रिस्क के अनुसार “शिक्षण को सीखने के निर्देशन या पथ-प्रदर्शन के रूप में परिभाषित किया जा सकता है।”

शिक्षण प्रेरित करना है –

प्रेरित करने का अर्थ है-बालक की किसी कार्य में रुचि उत्पन्न करना, जिससे कि वह उसे सफलतापूर्वक कर सके। प्रेरित न करने से या तो बालक उस कार्य को करेगा ही नहीं या अधूरा करके छोड़ देगा। अतः शिक्षण का तात्पर्य है बालक को किसी कार्य को करने या सीखने के लिये प्रेरित या उत्साहित करना। यह तभी सम्भव है, जब शिक्षक बालक को विभिन्न कार्य को करने के अवसर प्रदान करके उसकी रुचियों, रुझानों और कुशलताओं की पूरी जानकारी प्राप्त कर ले। ऐसा करने के बाद ही वह अपने छात्रों को प्रेरित या उत्साहित करने में सफल हो सकेगा।

शिक्षण के इस पहलू पर बल देते हुए रायबर्न ने लिखा है— शिक्षा की परिभाषा प्रोत्साहन के रूप में दी गई है। इससे बच्चों को सिखाया जाता है। उनको सिखाने के लिये हमें उनके उत्साहों, इच्छाओं और रुचियों को जाग्रत करना पड़ता है और उन उत्साहों, इच्छाओं और रुचियों को उचित प्रकार से पथ-प्रदर्शित करना पड़ता है।”

शिक्षण का अभिप्राय केवल बालक का शारीरिक और मानसिक विकास करना ही नहीं है, वरन् उसके संवेगों को भी प्रशिक्षित करना है। यदि हम चाहते हैं कि बालक उचित कार्य करे, तो हमें उसमें उचित भावना उत्पन्न करना आवश्यक है। हमारा शिक्षण तभी सफल कहा जा सकता है, जब वह बालक में संवेगात्मक स्थिरता का विकास करे। रायबर्न ने ठीक ही लिखा है-“यदि हम बालक को स्थायी संवेगात्मक जीवन का विकास करने में सहायता देने की आवश्यकता पर ध्यान नहीं देंगे, तो हमारा शिक्षण अत्यधिक एकांगी और विकृत हो जायेगा।”

Our teaching will be very one-sided and distorted unless we take into account the necessity for helping the child to develop a stable emotional life.

W. M. Ryburn

शिक्षण क्रियाशीलता के लिये अवसर प्रदान करना है-

प्रत्येक बालक में क्रियाशीलता की जन्मजात प्रवृत्ति होती है। शिक्षक को बालक की इस प्रवृत्ति से लाभ उठाना चाहिये और उसे बालक को ऐसे अवसर देने चाहिये, जिससे कि वह क्रियाशीलता की अपनी प्रवृत्ति को सन्तुष्ट कर सके। अतः शिक्षण का एक कार्य यह है कि वह बालक को क्रियाशीलता की अपनी इच्छा को पूर्ण करने का अवसर दे। इस सम्बन्ध में रायबर्न का कथन है- “प्रत्येक बालक में क्रियाशील शिक्षण – क्रियाओं की योजना शिक्षण की प्राप्ति के लिए शिक्षण क्रियाओं की एक योजना बनाने के लिए शिक्षण को जानना बहुत लाभदायक है। पाठ-योजना में छात्र – अध्यापक इसका लाभ उठा सकते है।

शिक्षण अनुदेशन अनुबन्धन एवं प्रशिक्षण में अन्तर

शिक्षणशिक्षण एक व्यवस्थित क्रियाओं का ऐसा समन्वय है जिसके अन्तर्गत शिक्षक एक योजनाबद्ध तरीके से छात्रों से पारस्परिक क्रियाओं द्वारा उनके ज्ञान एवं व्यवहार में परिवर्तन लाता है तथा निर्धारित लक्ष्यों की प्राप्ति में सफलता का प्रयास करता है। यह एक त्रिधुवी प्रक्रिया है जिसे इस चित्र के द्वारा स्पष्ट कर सकते हैं।
अनुदेशनअनुदेशन का सामान्य अर्थ है ‘निर्देश देना’ या सूचना प्रदान करता। कक्षा शिक्षण के मध्य शिक्षक छात्रों को विभिन्न प्रकार के निर्देश देकर तथा ज्ञानात्मक सूचनाएँ प्रदान करता है। जिसे हम अनुदेशन के अन्तर्गत रख सकते हैं। अनुदेशन केवल छात्रों के ज्ञान को स्मृति स्तर तक ही प्रभावित करता है, उनके व्यवहार में परिवर्तन नहीं लाता है। यह ज्ञानात्मक पक्ष पर ही ध्यान देता है। अनुदेशन में शिक्षण सामग्री को अधिक महत्व दिया जाता है तथा इसमें शिक्षक अधिक क्रियाशील रहता है। यह एक संकुचित प्रत्यय है तथा शिक्षण प्रक्रिया का एक अंग मात्र है।
अनुबन्धनअनुबन्धन शब्द मनोविज्ञान से आया हुआ शब्द है जिसमें उद्दीपक (S) तथा अनुक्रिया (R) के मध्य सम्बन्ध के बारे में बात की जाती है। शिक्षा में अनुबन्धन का प्रयोग उस समय किया जाता है जब हम किसी सम्प्रत्यय के अभ्यास कार्य को अधिक महत्व देते हैं। वास्तव में अनुबन्धन का प्रयोग सर्वप्रथम जानवरों पर किए गए परीक्षण में हुआ जिसमें उन्हें एक उद्दीपक देने पर वह उस पर अनुक्रिया करते हैं।
प्रशिक्षणप्रशिक्षण द्वारा व्यक्ति को किसी कार्य विशेष में दक्ष बनाया जाता है। इसमें प्रायः मांसपेशियों के कौशल के विकास पर बल दिया जाता है। प्रायः प्रशिक्षण का निश्चित लक्ष्य होता है जिसके अन्तर्गत व्यक्ति की क्षमताओं, उत्पादकता तथा प्रदर्शन (किसी कार्य को शीघ्रता के साथ करने की क्षमता) में वृद्धि करना है।
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