व्यवहारवाद परिभाषा व्यवहारवाद की आलोचना

व्यवहारवाद – द्वितीय महायुद्ध के बाद परम्परागत राजनीति विज्ञान के विरुद्ध एक विस्तृत क्रान्ति प्रारम्भ हुई, जिसके फलस्वरूप सभी विज्ञान प्रभावित हुए इसी क्रान्ति को व्यवहारवाद के नाम से जाना जाता है। व्यवहारवाद राजनीतिक तथ्यों की व्यवस्था तथा विश्लेषण की एक विशिष्ट विधि है जिसे द्वितीय महायुद्ध के बाद अमेरिका के राजवैज्ञानिकों द्वारा इसका विकास किया गया।

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व्यवहारवाद

व्यवहारवाद वास्तविक व्यक्ति पर अपना समस्त ध्यान केन्द्रित करता है। व्यवहारवाद के अध्ययन की इकाई मानव का ऐसा व्यवहार है जिसका प्रत्येक व्यक्ति द्वारा पर्यवेक्षण मापन और सत्यापन किया जा सकता है। व्यवहारवाद राजनीतिक व्यवहार के अध्ययन से राजनीतिक की संरचनाओं, प्रक्रियाओं,आदि के बारे में वैज्ञानिक व्याख्याएँ विकसित करना चाहता है।

डेविड ईस्टन

“व्यवहारवाद का प्रयोग अनिवार्यतः मूल्य सम्बन्धी नीतियों के संदर्भ में ही किया जा सकेगा, मलफोर्ड जी. सिवली जिसका समर्थक, केवल व्यवहारवादी तकनीकों के द्वारा सम्भव नहीं है।”

मलफोर्ड जी शिवली

“अमेरिका राजवैज्ञानिक व्यवहारवाद के संदर्भ में परीक्षण योग्य वैज्ञानिक सिद्धान्त तथा उनकी सत्यापन, प्रक्रिया दोनों को अपनाने पर जोर देते हैं, ताकि प्राकृतिक विज्ञानों की भांति राजनीति भी एक विज्ञान बन जाये। इस संदर्भ में उनकी दृढ़ धारणा है कि अवधारणाएँ, पद्धतियों, सिद्धान्त आदि सभी प्राकृतिक विज्ञानों के स्तर पर लाये जा सकते हैं। इसका मुख्य आयोजन यह है कि राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में व्यक्ति के व्यवहार की समग्रता का अध्ययन हो।”

सिवली
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व्यवहारवाद की आलोचना

सिवली व्यवहारवाद की आलोचना के मुख्य आधार निम्नलिखित हैं-

  1. व्यवहारवादी तथ्यों एवं आकंड़ों को एकत्रित करना इतना भ्रमपूर्ण है कि वे व्यवहारिक एवं महत्वपूर्ण तथ्यों को ही भुला देते हैं। उनका सबसे बड़ा दोष केवल पद्धतियों पर बल देना है। साक्षात्कारों एवं प्रश्नावलियों की प्रविधियों से राजनीतिक घटनाओं तथा समस्याओं के आन्तरिक तत्वों का पता नहीं लगाया जा सकता है।
  2. व्यवहारवाद पद्धति अत्यन्त खर्चीली है। अमेरिका ने व्यवहारवाद पद्धति पर करोड़ों डॉलर खर्च किये व्यवहारवाद के सम्बन्ध में बार-बार सर्वेक्षण किये जाते हैं, आंकड़े एकत्रित किये जाते हैं तथा इसका विश्लेषण करने के लिए विभिन्न पद्धतियों का प्रयोग किया जाता है जिससे अधिक मात्रा में धन व्यय किया जाता है इसलिए यह पद्धति अत्यधिक खर्चीली है।
  3. व्यवहारवाद के द्वारा जो अपरिचित शब्दावली अपनायी गई है तथा जो वाक्य रचना की गई है, उसकी बहुत अधिक आलोचना की जाती है। व्यवहारवाद के विचारकों द्वारा जिस अपरिचित शब्दावली का प्रयोग किया गया है उससे यह सिद्ध होता है कि यह केवल एक शब्दाडम्बर है इसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं। डॉ. एस. पी. वर्मा के अनुसार,” तटस्थता और निष्पक्षता प्राप्त करने के लिए अनुभववादी सिद्धान्तवादियों ने एक नया उलझाने वाला और फूहड़ शब्द जाल अविष्कृत कर लिया है।”
  4. व्यवहारवादी सिद्धान्तकार राजनीति विज्ञान को विज्ञान बनाने के विचार में है जब ऐसा किसी भी दशा में सम्भव नहीं है। क्योंकि प्राकृतिक विज्ञान और राजनीतिक विज्ञान में बहुत अन्तर है। राजनीति विज्ञान के तथ्य प्राकृतिक विज्ञान के तथ्यों की अपेक्षा अत्यधिक जटिल एवं परिवर्तनशील है। इसलिए इनकी धारणाओं का सत्यापन तथा मापन नहीं किया जा सकता है। इन्हीं कारणों से राजनीति विज्ञान को विज्ञान बनाना असम्भव है। इस संबंध में कार्ल पॉपर ने कहा है, “राजनीति वैज्ञानिकों की भविष्यवाणियों अगर-मगर की स्थिति से आगे नहीं जा सकती।’
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  1. व्यवहारवादक के विचारकों का यह मानना है कि राजनीति विज्ञान में संस्थागत अध्ययन के बजाय मनुष्य के राजनीतिक व्यवहार का अध्ययन करना चाहिए। लेकिन व्यवहारवादी मानव व्यवहार का विज्ञान प्रस्तुत करने में सक्षम नहीं है। वे मनुष्य के व्यवहार केवल सामान्य तथा नियमित गुणों का ही अध्ययन करते हैं। व्यवहारवादी शोध में अद्वितीय घटनाओं की अपेक्षा की जाती है।
  2. मूल्य निरपेक्षता असम्भव होने के बावजूद भी व्यवहारवादी उस पर अत्यधिक विश्वास रखते हैं। शोधकर्ता के व्यक्तिगत मूल्य कहीं न कहीं पर उसके निष्कर्षों को प्रभावित करते ही हैं। कोई भी शोधकर्ता जब अपने शोध का प्रारम्भ करता है तो शोध सम्बन्धी तथ्यों के चुनाव में वह अपने हित, मूल्य व जिज्ञासाओं से प्रभावित होता है।
  3. जब हम व्यवहारवाद के निष्कर्षो को नीति निर्धारण के समक्ष रखते हैं तो उसके दोष भी स्पष्ट हो जाते हैं। नीति निर्धारण में अनेक तत्व सहायक सिद्ध होते हैं केवल तथ्य नहीं सहायक होते हैं, उसमें नैतिक तत्वों तथा राजनीति का भी प्रभाव रहता है। केवल तथ्यों के आधार पर नीति का निर्धारण नहीं किया जा सकता।
  4. व्यवहारवादी अन्य पद्धतियों के महत्व को अस्वीकार करते हैं।
  5. व्यवहारवाद की एक आलोचना यह भी की गई है कि यह संख्यात्मक प्रणाली के माध्यम से मानवीय स्वभाव के गुणात्मक पहलुओं का अध्ययन करता है। माध्यम से मानवीय स्वभाव इतना जटिल होता है कि उसके अन्तर्तम की गहराइयों, जटिलताओं तथा सूक्ष्मताओं का विश्वसनीय ढंग से मापन नहीं किया जा सकता है।
  6. व्यवहारवाद की एक बड़ी समस्या सूक्ष्म-बृहत् विश्लेषण के पारस्परिक सम्बन्धों का सन्तोषप्रद उत्तर देने की है। सूक्ष्म अध्ययन करके उसके निष्कर्षो को बृहत् आकार इकाइयों पर लागू करने का प्रयास कितना तर्कपूर्ण होगा। एक समूह के व्यक्तियों के व्यवहार एवं विचारों का अध्ययन करके जो निष्कर्ष प्राप्त हो उन्हें संपूर्ण समाज में लागू करना कितना वैज्ञानिक है।
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