विश्वविद्यालय संप्रभुता से अभिप्राय विश्वविद्यालयों को कार्य प्रवेश अनुसंधान तथा प्रशासन संबंधी स्वाधीनता से है। वर्तमान समय में विश्वविद्यालयों की प्रभुसत्ता पर अनेक राजनीतिक नियंत्रण है। आयोग ने विश्वविद्यालय की प्रभुसत्ता के तीन क्षेत्र बताए हैं-
- विद्यार्थियों का चयन
- अध्यापकों की नियुक्ति और पदोन्नति
- पाठ्यक्रमों तथा शिक्षण विधियों का निर्धारण और अनुसंधान के क्षेत्र तथा समस्याओं का चयन।
विश्वविद्यालय संप्रभुता
वर्तमान समय में भारत में विश्वविद्यालयों की प्रभुसत्ता पर राजनीति छा गई है। इसके परिणाम स्वरूप विद्यालय अखाड़े बन गए हैं। जातिवाद तथा क्षेत्रवाद आज विद्यालयों की पहचान बन गया है और अध्यापक तथा छात्र दोनों ही आतंकित हो गए।
विश्वविद्यालय संप्रभुता तीन स्तरों पर है-
- विश्वविद्यालय की आंतरिक स्वायत्तता अर्थात समग्र रूप से विश्वविद्यालय के संदर्भ में विभागों कालेजों अध्यापकों और छात्र की स्वायत्तता।
- समग्रत: विश्वविद्यालय तंत्र के संदर्भ में विश्वविद्यालय विशेष की स्वायत्तता अर्थात किसी अन्य विश्वविद्यालय, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग तथा अंतर विश्वविद्यालय बोर्ड के संदर्भ में विश्वविद्यालय विशेष की स्वायत्तता।
- विश्व विद्यालय तंत्र से बाहर की एजेंसियों और प्रभाव जिनमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण है केंद्रीय और राज्य सरकारों के संदर्भ समग्रत: विश्वविद्यालय तंत्र की स्वायत्तता।
प्रायः यह दिखाई देता है कि विश्वविद्यालयों पर प्रशासकों का प्रभुत्व है और यहीं पर स्वायत्तता समाप्त हो जाती है। आयोग ने यह स्वीकार किया है कि अच्छे विचार पराया छोटे अधिकारियों के मस्तिष्क की उपज होते हैं और उन्हें मान मिलना ही चाहिए।



विश्वविद्यालय संप्रभुता पर कुछ विचार
मैं संप्रभुता नहीं चाहता कि जैसा वह कही जाती है। यदि सत्य कहा जाए, जूते पहनने वाला भी जानता है कि वह कहां काट रहा है। यह किसी भी रूप में संप्रभुता नहीं है।
डॉक्टर लक्ष्मणस्वामी मुदालियर
भारतीय विश्वविद्यालय राज्यों की देन है पर राज्य विधानसभा या संघीय सभा द्वारा अस्तित्व में आया है। इसकी रचना एवं कार्यों को विस्तार के साथ स्वरूप प्रदान करती है। यद्यपि वह सचित्र संस्था के रूप में गठित की जाती है। राज्य सरकार यद्यपि आश्वासन के वर्षों में अनेक उदाहरण ऐसे आए हैं कि सरकार विश्वविद्यालय की प्रभुसत्ता का हनन करने में एक्ट में संशोधन करने में भी नहीं चूकी है।
एस पी अय्यर
हाल ही के कार्यों में विश्वविद्यालयों में संप्रभुता पर काफी चर्चा रही है। सरकार ने शैक्षणिक मामलों में हस्तक्षेप करने की प्रवृत्ति विकसित कर ली है, ऐसा अनुभव किया जाने लगा है। इस प्रकार के भी प्रमाण हैं कि राजनीतिक प्रभाव का प्रयोग किया जाता है।
एस एन मुखर्जी
अनेक अवसरों पर शिक्षा मंत्रालय से निर्देश प्राप्त होते हैं सेक्रेटरी हमें यह बताते हैं कि हमें यह लागू करना चाहिए, वह लागू करना चाहिए। ऐसे संदेश हमें प्राप्त होते हैं। यदि हम पालन करें तो हम अपने मूलभूत विचारों को सही आकार ना दे पाएंगे तथा एक सरकारी कर्मचारी के समान केवल आदेशों का पालन ही करते रहेंगे।
आज आवश्यक है कि विश्वविद्यालय संप्रभुता बनाने के लिए समुदाय का सहयोग लिया जाए। विश्वविद्यालय द्वारा प्रदान की जाने वाली डिग्री मनुष्य को बौद्धिक नेतृत्व एवं रचनात्मक कार्यों के लिए तैयार करें। विश्वविद्यालयों को परिवर्तनशील समाज की आवश्यकता पूर्ति के लिए समाज की चुनौती को स्वीकार करना चाहिए तभी इसकी प्रभुसत्ता अक्षुण रह सकती है।