विवाह का अर्थ विवाह के उद्देश्य व विवाह के 4 नियम

विवाह मानव-सभ्यता के बहुत आरम्भिक काल में ही यह अनुभव कर लिया गया था कि समाज में एक ऐसी व्यवस्था को विकसित करना आवश्यक है जिससे स्त्री-पुरुषों के सम्बन्धों को नियमबद्ध करने के साथ ही उनसे जन्म लेने वाले बच्चों को वैध रूप देकर उनके पालन-पोषण की सुचित व्यवस्था की जा सके। इसी आवश्यकता के कारण सभी समाजों में विवाह संस्था का प्रार्दुभाव हुआ। स्पष्ट है कि बहुत आदिम काल से ही विवाह पीछे परिवार से सम्बन्धित दायित्व की भावना प्रधान रही है।

इस दृष्टिकोण से विवाह को केवल यौन मनुष्टि के आधार पर अथवा एक मनोरंजक संस्था के रूप में समझना बहुत बड़ी भूल है। वास्तव में विवाह एक सामाजिक सांस्कृतिक संस्था है। विभिन्न समाजों को सांस्कृतिक विशेषताओं और सामाजिक मूल्यों में भिन्नता होने के कारण ही उनमें विवाह की प्रकृति और इससे सम्बन्धित नियमों तथा मान्यताओं में कुछ भिन्नता देखने को मिलती है।

पश्चिमी समाजों की संस्कृति के अनुसार इसको जहां एक सुविधापूर्ण पारिवारिक बन्धन अथवा ‘मित्रता के सम्बन्ध’ के रूप में देखा जाता है। वहीं हिन्दू संस्कृति के मूल्यों के अनुसार विवाह एक धार्मिक संस्कार है। इसी तरह मुसलमानों में इसकी प्रकृति जहां एक समझीते के रूप में हैं, वहीं भारत की बहुत सी जनजातियों में विवाह को नातेदारी सम्बन्धों के प्रमुख आधार के रूप में महत्वपूर्ण माना जाता है। भारत में हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई तथा जनजातीय विवाह की प्रकृति को समझने से पहले विवाह के अर्थ, उद्देश्यों तथा प्रमुख नियमों को समझना आवश्यक है।

विवाह का अर्थ

एक सामाजिक-सांस्कृतिक संस्था के रूप में विवाह की कोई सर्वमान्य और सुनिश्चित परिभाषा देना कठिन कार्य है। विभिन्न संस्कृतियों से सम्बन्धित सामाजिक मूल्य तथा व्यवहार के नियम एक-दूसरे से मिन होने के कारण अलग-अलग समाजों में विवाह की प्रकृति तथा इसके उद्देश्यों में भिन्नता होने के कारण भी विवाह की कोई निश्चित अवधारणा देना सम्भव नहीं हो पाता।

इसके बाद भी हॉवेल का यह कथन बहुत उचित प्रतीत होता है कि “विवाह सामाजिक मानदण्डों की वह सम्पूर्णता है जो विवाहित दम्पति के पारम्परिक सम्बन्धों को उनके नातेदारों, सन्तानों और समाज के प्रति स्पष्ट करती है तथा उन पर नियन्त्रण रखती है।” लगभग इसी भावना के अनुरूप वेस्टमार्क ने लिखा है, “विवाह को अधिक पुरुषों का एक या अधिक स्त्रियों के साथ होने वाला वह सम्बन्ध कहकर परिभाषित किया है जो प्रथा या कानून के द्वारा मान्य होता है तथा जिसमें विवाह से सम्बन्धित दोनों पक्षों तथा उनसे जन्म लेने वाली सन्तानों के अधिकारों और कर्तव्यों का समावेश होता है।”

उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि विवाह जा सकता परिवार का आधारभूत स्रोत है, क्योंकि इसके बिना परिवार जैसी महत्वपूर्ण संस्था की स्थापना नहीं हो सकती। एक सामाजिक-सांस्कृतिक संस्था होने के साथ विवाह का जैविकीय पक्ष भी इस दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है कि बहुत आरम्भिक काल से ही इसका मुख्य उद्देश्य कुछ नियमबद्ध तरीकों से बच्चों को जन्म देनातथा उनके पालन-पोषण की समुचित व्यवस्था करना है। इस अर्थ में इसको समाज के अस्तित्व की निरन्तरता को बनाये रखने वाले एक साधन के रूप में भी स्पष्ट किया जा सकता है।

संक्षेप में विवाह की प्रकृति को इसकी पांच मुख्य विशेषताओं के आधार पर समझा जा सकता है-

  1. यह एक सामाजिक, सांस्कृतिक तथा जैविकीय आधार पर विकसित होने वाली संस्था है।
  2. इसके सम्बन्ध का निर्धारण एक विशेष के सामाजिक मूल्यों तथा व्यवहार के संस्थागत तरीकों से होता है।
  3. यह संस्था स्त्री-पुरुष को कुछ नियमों के अन्तर्गत यौन सम्बन्ध स्थापित करने की अनुमति देती है।
  4. इसका कार्य मुख्य रूप से परिवार समूह की स्थापना करना तथा संतानों के जन्म को वैध रूप देना है।
  5. विभिन्न समाजों की सांस्कृतिक विशेषताओं में भिन्नता होने के कारण उनमें इसकी प्रकृति में भी एक भिन्नता देखने को मिलती है।

विवाह के उद्देश्य

मौलिक रूप से सभी समाजों में इसका प्रमुख उद्देश्य स्त्री-पुरुषों के बीच स्थापित होने वाले यौन सम्बन्धों की नियमबद्ध पूर्ति के द्वारा संतानों के पालन-पोषण की समुचित व्यवस्था करना तथा एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था विकसित करना है। जिससे व्यक्ति को वृद्धावस्था अथवा आकस्मिक कठिनाइयों की दशा में सुरक्षा प्राप्त हो सके। इसी कारण हिन्दू विवाह में ‘पुत्र जन्म’ को एक प्रमुख उद्देश्य के रूप में मान्यता दी गयी है।

इस अर्थ में परिवार की स्थापना, पति-पत्नी के बीच यौनिक सम्बन्धों को व्यवस्थित बनाना तथा बच्चों के जन्म और उन्के पालन-पोषण की संस्थागत व्यवस्था करना विवाह के प्रमुख उद्देश्य हैं। अनेक समाजों में धार्मिक तथा आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति करना भी इसका एक प्रमुख उद्देश्य है। उदाहरण के लिए हिन्दू जीवन में विवाह को एक ‘धर्मिक संस्कार’ का रूप देने के पीछे मुख्य मान्यता यही है कि विवाह के द्वारा पति-पत्नी उन धार्मिक दायित्वों को पूरा कर सकें जिन्हें पुरुषार्थ के अन्तर्गत धर्म, अर्थ तथा काम कहा गया है।

दूसरी ओर बहुत-सी जनजातियों में विवाह से आर्थिक उद्देश्य इसलिए जुड़े हुए है। जिससे एक या एक से अधिक जीवन साथी की सहायता से लोग अपनी कठिन प्राकृतिक दशाओं के बीच रहते हुए भी आजीविका के समुचित साधन प्राप्त कर सकें। स्पष्ट है कि केवल यौन संतुष्टि ही विवाह का एकमात्र उद्देश्य नहीं होता बल्कि इसके प्रमुख उद्देश्यों को सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक आधार पर ही स्पष्ट किया जा सकता है।

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विवाह के नियम

एक सामाजिक-सांस्कृतिक संस्था के रूप में प्रत्येक समाज में व्यवहार के कुछ ऐसे नियम निर्धारित किये जाते हैं। जिनका पालन करना वैवाहिक सम्बन्धों के लिए आवश्यक समझा जाता है। इन सभी नियमों का उद्देश्य पति-पत्नी के सम्बन्धों में विश्वास और स्थिरता विकसित करना तथा पारिवारिक जीवन को व्यवस्थित रूप देना है।

  1. अन्तर्विवाह
  2. बहिर्विवाह
  3. निकट सम्बन्धियों में वैवाहिक निषेध
  4. विवाह पूर्व एवं विवाह पश्चात् यौनिक निषेध

1. अन्तर्विवाह

अन्तर्विवाह का नियम यह स्पष्ट करता है कि प्रत्येक स्त्री तथा पुरुष समूह के अन्दर ही विवाह करना आवश्यक है। उदाहरण के लिए जनजातीय समाज में प्रत्येक व्यक्ति को एक विशेष के लिए यह आवश्यक है कि उसका विवाह अपनी ही जनजाति के अन्दर किया जाये। अनेक दशाओं में अन्तर्विवाह का सम्बन्ध एक विशेष क्षेत्र से भी होता है।

उदाहरण के लिए बहुत-सी जनजातियों जो पहाड़ी अथवा मैदानी भागों में फैली हुई हैं, उनमें पर्वतीय क्षेत्र में निवास करने वाले समूह का पुरुष उसी जनजाति से सम्बन्धित मैदानी क्षेत्र की स्त्री से विवाह नहीं करता। हिन्दुओं में जाति व्यवस्था का प्रचलन होने के कारण बहुत लम्बे समय तक इस नियम का कठोरता से पालन किया जा रहा कि प्रत्येक व्यक्ति को अपनी ही जाति और उपजाति के अन्दर विवाह करना आवश्यक है।

इस नियम का कारण सम्भवतः अपरिचित समूह के साथ सम्बन्ध स्थापित करने से सम्बन्धित अज्ञात भय है। इसका एक अन्य कारण नातेदारी सम्बन्धों की सुदृढ़ता को बनाये रखना भी है। जब किसी स्त्री या पुरुष को एक छोटे समूह या क्षेत्र के अन्दर ही विवाह करना अनिवार्य होता है तो वह अपने नातेदारों से अधिक दूर नहीं हो पाता।

2. बहिर्विवाह

वह नियम है जिसके अनुसार व्यक्ति को एक विशेष समूह के विवाह सम्बन्ध स्थापित करना आवश्यक होता है। उदाहरण के लिए हिन्दुओं में किसी भी व्यक्ति को अपने गोत्र प्रवर तथा पिण्ड से बाहर विवाह करना आवश्यक माना जाता रहा है। यह विश्वास किया जाता है कि समान गोत्र प्रवर और पिण्ड से सम्बन्धित व्यक्ति किसी-न-किसी रूप में रक्त सम्बन्धी होते हैं, इसलिए उनके बीच विवाह सम्बन्ध स्थापित होना नैतिक और जैविकीय आधार पर हानिकारक हो सकता है।

अनेक पितृसत्तामक जनजातियों में गांव बहिर्विवाह’ का प्रचलन इस कारण हुआ जिससे पति के परिवार में उसकी पत्नी-पक्ष के नातेदारों का अवांछित हस्तक्षेप न हो सके। बहुत-सी जनजातियों में ‘टोटम वहिर्विवाह’ का नियम प्रचलित है। किसी जनजाति में जिस स्थान वृक्ष, पशु या जीव को अपना टोटम मानने के कारण उसकी पूजा-आराधना की जाती है, उससे सम्बन्धित किसी स्त्री-पुरुष के बीच वैवाहिक सम्बन्धों की अनु नहीं दी जाती। जैविकीय आधार पर वहिर्विवाह के नियम को इसलिए उपयोगी माना जाता है जिससे एक विशेष समूह के जैविकीय अथवा वंशानुगत दोषों का संचरण आगामी पीढ़ियों में न हो सके।

3. निकट सम्बन्धियों में वैवाहिक निषेध

वह सामान्य नियम है जो संसार के लगभग सभी समाजों में पाया जाता है। विभिन्न संस्कृतियों में ‘निकट सम्बन्धी’ का अर्थ एक-दूसरे से बहुत भिन्न है तथा इसकी व्याख्या सामाजिक और धार्मिक मूल्यों के आधार पर की जाती है। उदाहरण के लिए उत्तर भारत के हिन्दुओं में पिता की ओर सम्पूर्ण वंश परम्परा तथा माता की और पांच पीढ़ियों तक के स्त्री-पुरुषों के बीच वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित करने पर निषेध हैं।

दूसरी ओर दक्षिण भारत के कुछ क्षेत्रों में मामा-भांजी तथा ममेरे-फुफेरे भाई-बहनों के बीच होने वाले विवाह को अधिक अच्छा माना जाता है। मुस्लिम समुदाय में निकट सम्बन्धी का तात्पर्य केवल ‘दूध के सम्बन्ध’ से होता है। इसका तात्पर्य है कि सगे अथवा बहुत निकट के भाई-बहनों को छोड़कर किसी भी व्यक्ति से वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित करने पर प्रतिबन्ध नहीं होता। इस नियम का उद्देश्य निकट सम्बन्धियों के बीच यौनिक अनैतिकता की सम्भावना को रोकना है।

4. विवाह-पूर्व एवं विवाह पश्चात् यौनिक निषेध

सभी संस्कृतियों में विवाह से पहले स्त्रियों द्वारा अपने कौमार्य को बनाये रखने तथा पुरुषों को ब्रह्मचर्य का पालन करने को एक प्रमुख नैतिक मूल्य के रूप में देखा जाता है। इसी कारण कुछ विशेष जनजातियों को छोड़कर स्त्री या पुरुष द्वारा विवाह पूर्व यौन सम्बन्ध स्थापित करने को अनैतिक मानते हुए इसके लिए सामाजिक दण्ड देने का प्रचलन रहा है।

इसी तरह विवाह के बाद भी सामाजिक तथा कानूनी पर पति या पत्नी को किसी दूसरे पुरुष या स्त्री से यौनिक सम्बन्ध स्थापित करने की अनुमति नहीं दी जाती। विवाह के इस नियम का सम्बन्ध सामाजिक और नैतिक मूल्यों से होने के कारण आज जैसे-जैसे इन मूल्यों में शिथिलता आती जा रही है, इसके इस नियम से सम्बन्धित वर्जनाएं भी कमजोर पड़ती जा रही है।

भारतीय समाज की विशेषता यह है कि यहां विभिन्न धर्मो के अनुयायी साथ-साथ रहते हैं तथा सभी धार्मिक समुदायों में विवाह से सम्बन्धित मान्यताएं एक-दूसरे से काफी भिन्न है। इसके बाद भी यह सब है कि सभी धर्मो के अनुयायियों ने एक-दूसरे की मान्यताओं के उपयोगी पक्षों को ग्रहण किया है। इस तथ्य को समझने के लिए यह आवश्यक है कि प्रस्तुत विवेचन में हम हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई तथा जनजातीय समाजों में विवाह की प्रकृति को स्पष्ट करें।

  1. हिंदू विवाह
  2. मुस्लिम विवाह
  3. ईसाई विवाह
  4. जनजातीय विवाह
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