वंचित वर्ग की शिक्षा अवधारणा स्पष्ट करने की दृष्टि से सबसे पहले ‘ वंचित’ शब्द का अर्थ समझन ‘चाहिए। ‘वंचित’ शब्द का अर्थ है, ‘किसी चीज से रहित होना’ या ‘किसी अधिकार का छिन जाना अथवा ‘किसी वस्तु को प्राप्त करने से रोकना।’ इसका आशय है कि जब किसी व्यक्ति की किस आवश्यकता की पूर्ति नहीं हो पाती है तो उस व्यक्ति को उस आवश्यकता से सम्बन्धित वस्तु से वंचित मान लेते हैं।
एक ही प्रकार की सुविधा या आवश्यकता से वंचित लोग यदि एक से अधिक हैं तो ऐसे लोगों को उस विशेष सुविधा या आवश्यकता से वंचित वर्ग की संज्ञा दी जाती है। उदाहरण के लिए ऐसे बहुत से लोग हैं जिनकी आर्थिक आवश्यकता से वंचित वर्ग’ की संज्ञा दी जाती है। उदाहरण के लिए ऐसे बहुत से लोग हैं जिनकी आर्थिक आवश्यकताएँ पूरी नहीं होती है तो ऐसे लोग के समूह को ‘आर्थिक दृष्टि से वंचित वर्ग’ कहा जा सकता है। वंचित वर्ग अपनी आवश्यकता की पूर्ति न हो पाने के कारण असंतुष्ट रहता है और इसका प्रभाव उसके व्यक्तिगत जीवन के साथ-साथ उसके परिवार एवं समाज पर भी पड़ता है।
सामान्य रूप से वंचित वर्ग की शिक्षा निम्नांकित प्रकार के हो सकते हैं-
- माता-पिता व परिवार के स्नेह से वंचित।
- शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य से वंचित।
- आर्थिक दृष्टि से वंचित।
- सांस्कृतिक दृष्टि से वंचित।
- सामाजिक दृष्टि से वंचित।
उपर्युक्त में प्रथम एवं द्वितीय मनोविज्ञान एवं चिकित्साशास्त्र से सम्बन्धित समस्याएँ हैं। अन्तिम सामाजिक, तीसरी एवं चौथी दोनों से सम्बन्धित है किन्तु इनके साथ ही इसका सम्बन्ध ‘पारस्परिक सम्बन्धों से भी होता है। यहाँ विशेष रूप से तीसरे-आर्थिक दृष्टि से वंचित एवं चौथे – सांस्कृतिक दृष्टि से वंचित, के विषय में और उसमें शिक्षा की भूमिका व्यवस्था पर विचार किया जायेगा।
आर्थिक दृष्टि से वंचित वर्ग
भारत में लगभग 22% आबादी गरीबी रेखा के नीचे है। यह स्थिति तब है जब ग्रामीण क्षेत्र में 27 रुपया प्रतिदिन तथा शहरी क्षेत्र में 33 रुपये प्रतिदिन से अधिक कमाने वाले गरीबी रेखा से ऊपर समझे जाते हैं। ऐसे में यह अनुमान लगाया जा सकता है कि जो लोग गरीबी रेखा के मानदण्ड से कुछ ऊपर भी हैं, उनकी आर्थिक स्थिति ठीक नहीं है। इस प्रकार आर्थिक दृष्टि से वंचित वर्ग में एक चौथाई जनसंख्या को सम्मिलित माना जा सकता है।
प्राचीन भारत में धन-धान्य एवं प्राकृतिक संसाधनों का अपार भण्डार था तथा भारत को ‘सोने की चिड़िया’ कहा जाता था। अतः यह विचारणीय है कि ऐसे क्या कारण हो सकते हैं जिसके फलस्वरूप आज भारत की लगभग एक चौथाई आबादी आर्थिक दृष्टि से वंचित वर्ग में स्वतंत्रता प्राप्त करने के 75 वर्ष से भी अधिक समय व्यतीत हो जाने के बाद भी है। इसके कुछ प्रमुख कारण निम्नवत् हैं-
- समय-समय पर हुए विदेशी (पारसीको, यूनानियों, हिन्द-यवनों, अरबों, तुर्कों, मुगलों आदि) आक्रमण,
- राजाओं तथा जमींदारों की शोषण युक्त नीतियाँ,
- ब्रिटिश राज की गलत नीतियाँ,
- स्वतंत्रता प्राप्त करने के उपरान्त विभिन्न विकास के कार्यों में धन व्यय करने, भारी उद्योगों पर बल व जनसंख्या वृद्धि के कारण आर्थिक प्रगति प्रभावित हुई। इसमें शिक्षा की भी भूमिका है।
आर्थिक रूप से वंचित वर्ग में सामान्य जातियों, पिछड़ी जातियों, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति एवं अल्पसंख्यक समुदायों के लोग समान रूप से दिखाई देते हैं। वैसे अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति में इस वर्ग के लोगों की संख्या तथा प्रतिशत अन्य की अपेक्षा अधिक है। इनमें निम्न आय वर्ग के लोग गरीबी रेखा के नीचे लोग, शहरी निर्धन वर्ग, श्रमिक वर्ग, ग्रामीण किसान वर्ग, छोटे दुकानदार, छोटे व्यवसाय (एक-दो लोग वाले) करने वाले लोग आ जाते हैं।



आर्थिक दृष्टि से वंचित वर्ग की शिक्षा हेतु प्रयास
आर्थिक दृष्टि से वंचित वर्ग की शिक्षा की व्यवस्था के मूल में ‘आर्थिक न्याय’ है, जिसका संकल्प भारतीय संविधान में है। इसका आशय है कि राष्ट्रीय धन और धन के स्त्रोतों में वृद्धि करके, उन सभी लोगों में जो उत्पादन में अपना योगदान देते हैं, समानता के साथ वितरित करना। इस प्रकार आर्थिक दृष्टि से वंचित वर्ग, जो उत्पादन में सहयोग दे रहा है, का आर्थिक विकास करना अभीष्ट है।
विभिन्न शिक्षा आयोगों द्वारा गरीब बच्चों के शिक्षा में आर्थिक समस्याओं के समाधान किए जाने को आवश्यक माना है तथा शासन व समाज से इस सम्बन्ध में आवश्यक व्यवस्थाओं की अपेक्षा की है। भारत सरकार की राष्ट्रीय शिक्षा नीति- 1968 में सभी बच्चों के लिए 14 वर्ष की आयु तक अनिवार्य एवं निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था इस प्रकार करने को कहा है जिससे इस अवधि में वर्तमान के अनुसार होने वाले अपव्यय एवं अवरोधन में कमी हो। इसके साथ ही बालिकाओं, पिछड़े वर्गों एवं कबीलों के लोगों की शिक्षा हेतु विशेष प्रयासों की आवश्यकता पर भी बल दिया है।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 में वंचित लोगों की विशेष आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए शिक्षा के समान अवसर मुहय्या कराने की बात कही गयी है। इसमें आर्थिक पक्ष का भी विचार करते हुए शिक्षा व्यवस्था करने पर बल दिया गया है। समानता के लिए शिक्षा के संदर्भ में शिक्षा नीति 1986 में अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों, अल्पसंख्यकों, शिक्षा की दृष्टि से पिछड़े दूसरे वर्ग और क्षेत्र के लोगों, महिलाओं, विकलांग एवं प्रौढ़ शिक्षा के संदर्भ में संकल्प व्यक्त किया गया है।
आर्थिक दृष्टि से वंचित वर्ग की शिक्षा के लिए सरकार ने कई प्रयत्न किए हैं जिनमें से कुछ निम्नलिखित हैं-
निःशुल्क तथा अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा की व्यवस्था
भारतीय संविधान के नीति निर्देशक तत्त्व के अन्तर्गत अनुच्छेद 45 में 6 से 14 वर्ष तक के सभी बच्चों के लिए निःशुल्क तथा अनिवार्य शिक्षा का संकल्प व्यक्त किया गया है। 1976 में भारतीय संविधान के ‘मौलिक कर्त्तव्य’ के अन्तर्गत अनुच्छेद-51 क जोड़ दिया गया है, जिसके अनुसार प्रत्येक अभिभावक/संरक्षक अपने 6 से 14 आयु वर्ग के बच्चे के लिए शिक्षा का अवसर उपलब्ध करायेगा।
बच्चों के निःशुल्क तथा अनिवार्य शिक्षा को और अधिक प्रभावी बनाने के उद्देश्य से 2002 में भारतीय संविधान में 86वाँ संशोधन करते हुए अनुच्छेद-21क का किया गया। इसके साथ ही निःशुल्क तथा अनिवार्य शिक्षा बच्चों का मौलिक अधिकार बन गया। इस अधिकार को प्रभावी बनाने के लिए संसद में 4 अगस्त, 2009 को निःशुल्क एवं अनिवार्य बाल शिक्षा का अधिकार अधिनियम-2009 पारित किया गया।
इस प्रकार वर्तमान में निःशुल्क एवं अनिवार्य प्रारम्भिक शिक्षा (कक्षा 1 से 8) प्राप्त करना, 6 से 14 वर्ष के बच्चों का मौलिक अधिकार है और उनके उस अधिकार से उन्हें कोई भी वंचित नहीं कर सकता है। यदि किसी ने ऐसा किया तो उसे अपराध मानते हुए दण्डित करने का भी प्रावधान है।
छात्रवृत्ति
सरकार द्वारा प्राथमिक विद्यालयों (कक्षा 1 से 5) में अध्ययनरत सभी छात्र/छात्राओं को 300 रुपया वार्षिक तथा उच्च प्राथमिक (कक्षा 6 से 8) के छात्र/छात्राओं को 480 रुपया वार्षिक की दर से छात्रवृत्ति प्रदान की जाती है।
निःशुल्क पाठ्य पुस्तक की व्यवस्था
निर्धन वर्ग के बच्चों को विद्यालय में निःशुल्क प्रवेश देना ही पर्याप्त नहीं है क्योंकि यह वर्ग अपने बच्चों के लिए पाठ्य पुस्तकों को खरीदने में प्रायः सक्षम नहीं है। इसी कारण से सरकार द्वारा परिषदीय विद्यालयों में पढ़ने वाले (कक्षा 1 से 8 तक) सभी छात्र/छात्राओं को निःशुल्क पाठ्य-पुस्तक वितरण करने का प्रबन्ध किया गया है।
निःशुल्क गणवेश की व्यवस्था
सरकार ने आर्थिक रूप से वंचित वर्ग की शिक्षा की समस्याओं को देखते हुए परिषदीय विद्यालयों (कक्षा 1 से कक्षा 8) में अध्ययनरत सभी छात्र/छात्राओं को दो-दो सेट गणवेश वितरित किए जाने का प्रबन्ध किया है। इससे निर्धन परिवारों के बच्चों में अपने वेश-भूषा को लेकर कोई हीनभावना पैदा नहीं होने पाती है। वह सम्मानपूर्वक शिक्षा ग्रहण करते हैं।
मध्याह्न भोजन की व्यवस्था
मध्याह्न भोजन योजना के अन्तर्गत प्राथमिक तथा उच्च प्राथमिक विद्यालयों के अध्ययनरत बच्चों को प्रतिदिन दोपहर का भोजन दिया जाता है। इस योजना से वर्तमान में लगभग साढ़े दस करोड़ बच्चे लाभान्वित हो रहे हैं। इस योजना ने निर्धन परिवारों की उस चिन्ता को दूर करने में कुछ सफलता प्राप्त की है जिसके कारण वे अपने बच्चों को विद्यालय में न भेजकर धनोपार्जन के कार्यों में लगा देते थे।
उपर्युक्त के अतिरिक्त सरकार द्वारा स्थापित नवोदय विद्यालयों तथा कस्तूरबा गाँधी बालिका विद्यालयों में भी निर्धन वर्ग के बच्चों को उच्च गुणवत्ता की शिक्षा निःशुल्क प्रदान की जाती है। इन विद्यालयों में निःशुल्क आवास एवं भोजन व्यवस्था के साथ-साथ गणवेश, पाठ्य-पुस्तकें, लेखन सामग्री इत्यादि प्रदान की जाती है।
इन विद्यालयों में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, पिछड़े वा तथा अल्पसंख्यक वर्ग के लिए 75% तथा गरीबी रेखा के नीचे जीवन-यापन करने वाले परिवारों की बालिकाओं के लिए 25% आरक्षण प्रदान किया गया है। इस प्रकार आर्थिक दृष्टि से वंचित वर्ग की शिक्षा हेतु सरकार निरन्तर प्रयत्नशील है।
सांस्कृतिक दृष्टि से वंचित वर्ग की शिक्षा हेतु प्रयास
संस्कृति किसी समाज के सदस्यों द्वारा निर्मित एवं विकसित कार्यों, व्यवहारों, मूल्यों, संस्थाओं आदि की परिचायक है जिसे समाज के सदस्यों ने अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति की दृष्टि से एक लम्बे समय में विकसित किया है। अतः सांस्कृतिक दृष्टि से वंचित वर्ग वह है जो संस्कृति विशेष के किन्हीं विशेष तत्त्वों (कार्यों, सुविधाओं आदि) से वंचित हो गये हैं या कर दिए गए हैं। भारतीय समाज में ऐसे वर्ग, विशेष रूप से अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जन जातियों के हैं। इस दृष्टि से वंचित वर्ग प्रायः आर्थिक दृष्टि से भी वंचित पाया जाता है।
प्राचीन भारतीय समाज प्रमुख कार्यक्षेत्रों अथवा उत्तरदायित्वों के आधार पर चार वर्णों-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र में विभक्त था। इन वर्णों का अपना महत्त्व था तथा प्रत्येक वर्ण का कार्य सामाजिक व्यवस्था को सामान्य बनाए रखने और समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु अत्यन्त महत्त्वपूर्ण था। समाज का यह चतुवर्णीय विभाजन किसी भी प्रकार के ऊँच-नीच के भाव से प्रेरित नहीं था अपितु इसका आधार पूर्णतः वैज्ञानिक था।
इस बात को इस प्रकार समझा जा सकता है कि किसी भी समाज के अस्तित्व को बनाए राने तथा उसके विकास के लिए उस समाज के लोगों की चार मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति आवश्यक है जो इस प्रकार हैं-शिक्षण, रक्षण, उत्पादन और स्वास्थ्य एवं सफाई जैसी सामान्य आवश्यकताएँ। इन आवश्यकताओं की पूर्ति करने का उत्तरदायित्व समाज का ही होता है।
समाज के इन्हीं कर्त्तव्यों को दृष्टिगत रखते हुए प्राचीन भारतीय समाज को चार वर्णों में विभाजित किया गया था। इनमें से ब्राह्मण का कर्त्तव्य शिक्षण का, क्षत्रिय का कर्त्तव्य रक्षण, वैश्य का कर्त्तव्य उत्पादन तथा शूद्र का कर्त्तव्य स्वास्थ्य, सफाई जैसी सामान्य सेवाओं को प्रदान करना था। इनमें से किसी वर्ण के कार्य को छोटा अथवा बड़ा नहीं माना जाता था।
कालान्तर में वर्ण व्यवस्था में कठोरता आने लगी। अनेकों प्रकार की रुढ़ियों ने वर्ण व्यवस्था को विकृत कर दिया। शिक्षण एवं रक्षण के कार्य को अधिक महत्त्वपूर्ण माना जाने लगा तथा स्वास्थ्य एवं सफाई को निम्न स्तर का कार्य समझा जाने लगा। समाज में ऊँच-नीच का भाव उत्पन्न हो गया। इसी पृष्ठभूमि में कर्म पर आधारित वर्ण व्यवस्था का स्थान शनैः-शनै जन्म पर आधारित जाति व्यवस्था ने ले लिया।
जाति व्यवस्था के उदय ने समाज की संचारशीलता तथा गतिशीलता को रुद्ध कर दिया। समाज के नियम अत्यन्त कठोर हो गए और प्रत्येक जाति का एक सामाजिक स्तर निर्धारित हो गया। इस नवीन सामाजिक व्यवस्था में ऊँची जाति, नीति जाति, अस्पृश्यता, निम्न स्तर का कार्य, सम्मानजनक कार्य आदि का भाव तेजी से लोगों में उत्पन्न होने लगा।
ऐसी दशा में अनेकों जातियों को उनके मूलभूत अधिकारों, सुख-सुविधाओं, शिक्षा, सामाजिक सम्मान, स्वतंत्रता, समानता आदि से वंचित कर दिया गया। साथ ही उन्हें समाज में रहने, लोगों के साथ उठने-बैठने, खाने-पीने, यहाँतक कि स्पर्श करने तक से वंचित कर दिया गया। इस प्रकार सामाजिक सत्ता कुछ विशेष वर्ग तक सीमित हो गयी तथा एक बड़ा वर्ग अनेकों सुविधाओं से वंचित होकर संस्कृति से कट गया।
इस प्रकार नगरीय एवं ग्रामीण बस्तियों से दूर दुर्गम स्थानों, जंगलों, पहाड़ों में भी जो लोग निवास करते थे, वे धीरे-धीरे समाज की संस्कृति से कटते गये। वे अपने में सीमित रहकर जीवन निर्वाह करते थे। ये कबीलों के रूप में विकसित हो गये। इनकी अपनी रहन-सहन की आदतों, मूल्यों, विश्वासों, उपकरणों आदि का विकास तो हुआ किन्तु समाज जिसके वे अंग थे उसके विकास के साथ कबीलों में परिवर्तन नहीं हुआ।
धीरे-धीरे ये लोग भारतीय समाज की संस्कृति की मुख्यधारा से अलग-थलग पड़ते गये। इनकी अपनी परम्पराएँ तो विकसित हुईं जो उनकी आवश्यकताओं के अनुरूप थी किन्तु वे समाज की ज्ञान-विज्ञान पर आधारित विचारों, कौशलों आदि के संदर्भ में दकियानूसी एवं पिछड़ी रह गयीं। स्वतंत्रता प्राप्त करने के उपरान्त भारत के निवासियों को सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक न्याय की दृष्टि से अग्रांकित वर्गों में विभक्त कर दिया गया-सामान्य वर्ग, पिछड़ा वर्ग, अनुसूचित जाति वर्ग, अनुसूचित जनजाति वर्ग एवं अल्पसंख्यक समुदाय सामान्य वर्ग में ब्राहाण, ठाकुर, वैश्य, कायस्थ आदि हैं।
पिछड़े वर्ग में वे जातियाँ हैं जो सामाजिक दृष्टि से पिछड़ी जाति मानी जाती थी; जैसे-कुमी, अहिर, तेली आदि। अनुसूचित जाति वर्ग में चमार, धोबी, मुसहर, पासी आदि हैं। अनुसूचित जनजाति वर्ग में विभिन्न कबीले एवं दुर्गम स्थानों के निवासी हैं जिनकी अपनी भाषा, तौर-तरीका, संस्कृति आदि हैं। अल्पसंख्यक समाज में मुसलमान, ईसाई आदि हैं। उपर्युक्त समूहों में अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति विशेष रूप से सांस्कृतिक दृष्टि से वंचित वर्ग में रखे जाते हैं।



सांस्कृतिक दृष्टि से वंचित वर्ग की शिक्षा हेतु प्रयास
सांस्कृतिक-सामाजिक दृष्टि से वंचित वर्ग की शिक्षा जो प्रायः आर्थिक दृष्टि से भी पिछड़ा है के विकास के लिए शिक्षा एक महत्त्वपूर्ण साधन है। शिक्षा हेतु किए जाने वाले प्रयासों को संविधान की व्यवस्थाओं और शिक्षा नीति के संकल्पों के आलोक में अच्छी तरह समझा जा सकता है। आगे इसी दृष्टि से विवरण प्रस्तुत किया गया —
भारतीय संविधान में वंचित वर्ग की शिक्षा हेतु प्रयास
भारतीय संविधान के ‘मूल अधिकारों’ के अन्तर्गत अनुच्छेद-15, 17, 25, 29 ( 1 एवं 2), 30 में समानता, धर्म की स्वतंत्रता, सांस्कृतिक एवं शैक्षिक अधिकारों को सुनिश्चित किया गया है। इन अनुछेदों में अनुच्छेद-17 विशेष महत्त्व का है। इसका सम्बन्ध अस्पृश्यता निवारण से है। इसके अनुसार – “अस्पृश्यता का अन्त किया जाता है और इसका किसी भी रूप में आचरण निषिद्ध किया जाता है।” इसे दण्डनीय अपराध माना गया है।
वंचितों, विशेष रूप से सांस्कृतिक दृष्टि से वंचित वर्ग के विकास में इसकी महत्त्वपूर्ण भूमिका सिद्ध हुई है। यह कृत्य असामाजिक होने के साथ ही अमानवीय भी है। अतः इसका निवारण समाज में समानता लाने के संविधान के संकल्प को पूरा करने में अवश्य सहायक है। इसी प्रकार ‘राज्य की नीति के निर्देशक तत्वों’ के अन्तर्गत अनुच्छेद 46 में ‘अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों तथा अन्य कमजोर वर्गों के शैक्षिक एवं आर्थिक हितों एवं उन्हें अन्याय एवं सभी प्रकार के शोषण से सुरक्षित रखने का दायित्व’ राज्य का माना गया है।
इन विशिष्ट अनुच्छेदों के अतिरिक्त संविधान की मूल भावना भारत के सभी नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय; विचार अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता; प्रतिष्ठा और अवसर की समता; उपलब्ध कराने और व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखण्डता सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने की है। इस प्रकार संविधान के माध्यम से सभी नागरिकों को एक समान स्तर पर रखे जाने की प्रत्याशा संविधान निर्माताओं ने की थी।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 में वंचित वर्ग की शिक्षा हेतु प्रयास
भारतीय राष्ट्रीय शिक्षा नीति – 1968 के चौदह वर्ष की आयु तक के अनिवार्य एवं निःशुल्क शिक्षा एवं बालिकाओं, पिछड़े वर्गों तथा कबीलों की शिक्षा के संकल्प के साथ ही राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 में विषमताओं को दूर करने पर बल के साथ ही वंचित रहे लोगों की विशेष आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए शिक्षा के समान अवसर उपलब्ध कराने की बात कही गयी है। यहाँ अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों आदि के लिए विशिष्ट कार्यों का संकेत भी किया गया है। इनका संक्षिप्त विवरण यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है-
अनुसूचित जातियों की शिक्षा
अनुसूचित जातियों के शैक्षिक विकास पर बल, जिससे वे गैर-अनुसूचित जाति के लोगों के बराबर आ सकें। यह बराबरी सभी क्षेत्रों और स्तरों पर, ग्रामीण पुरुष एवं महिला तथा शहरी क्षेत्र के पुरुष एवं महिला हेतु आवश्यक है। वंचित वर्ग की शिक्षा से नई नीति में यह उपाय सोचे गये हैं-
- निर्धन परिवारों को प्रोत्साहन कि वे बच्चों को 14 वर्ष की आयु तक नियमित रूप से स्कूल भेजें ।
- सफाई कार्य, पशुओं की चमड़ी उतारने तथा चर्म शोधन जैसे व्यवसायों में लगे परिवार के बच्चों के लिए मैट्रिक पूर्व छात्रवृत्ति योजना कक्षा एक से शुरू की जायेगी। ऐसे परिवारों की आय पर ध्यान नहीं दिया जायेगा और उनके लिए समयबद्ध कार्यक्रम शुरू किए जायेंगे।
- ऐसी सुनियोजित व्यवस्थाएँ करना और जाँच-पड़ताल की विधि स्थापित करना कि जिससे पता चलता रहे कि अनुसूचित जाति के बच्चों के नामांकन होने, नियमित रूप से अध्ययन जारी रखने और पढ़ाई पूरी करने की प्रक्रिया में कहीं गिरावट तो नहीं आ रही है। इन बच्चों को आगे की शिक्षा और रोजगार पाने की सम्भावना बढ़ाने के उद्देश्य से उपचारात्मक पाठ्यचर्या की व्यवस्था करना।
- अनुसूचित जाति के शिक्षकों की नियुक्ति पर विशेष ध्यान देना
- जिला केन्द्रों पर अनुसूचित जातियों के छात्रों के लिए छात्रावास की सुविधा क्रमिक रूप से बढ़ाना।
- स्कूल भवनों, बालवाड़ियों और प्रौढ़ शिक्षा केन्द्रों का स्थान चुनते समय अनुसूचित जाति के व्यक्तियों के सहूलियत पर विशेष ध्यान देना
- इनके शैक्षिक सुविधाओं का विस्तार करने के लिए राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार कार्यक्रम तथा ग्रामीण भूमिहीन रोजगार गारण्टी कार्य क्रम के साधनों का उपयोग करना ।
- अनुसूचित जातियों का शिक्षा प्रक्रिया में समावेश बढ़ाने के लिए लगातार नये तरीकों की खोज जारी रखना।
अनुसूचित जनजातियों की शिक्षा
अनुसूचित जनजातियों को अन्य लोगों की बराबरी पर लाने के लिए निम्नलिखित कदम तत्काल उठाए जायेंगे-
- आदिवासी इलाके में प्राथमिक शालाएँ खोलने को प्राथमिकता। इन क्षेत्रों में स्कूल भवनों के निर्माण का कार्य शिक्षा के बजट, राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार कार्यक्रम, ग्रामीण भूमिहीन रोजगार गारण्टी कार्यक्रम, जनजातीय कल्याण योजनाओं आदि के अन्तर्गत प्राथमिकता के आधार पर हाथ में लिया जायेगा।
- आदिवासियों की अपनी सांस्कृतिक एवं सामाजिक विशिष्टता होती है और बहुधा उनकी अपनी बोलचाल की भाषाएँ होती हैं। पाठ्यक्रम निर्माण में तथा शिक्षण सामग्री तैयार करने में यह जरूरी है कि शुरुआत की अवस्था में आदिवासी भाषा का उपयोग किया जाए तथा ऐसा इन्तजाम किया जाए कि आदिवासी बच्चे शुरू के कुछ वर्षों के बाद क्षेत्रीय भाषा के माध्यम से शिक्षा प्राप्त कर सकें।
- पढ़े-लिखे प्रतिभाशाली आदिवासी युवकों को प्रशिक्षण देकर अपने क्षेत्र में ही शिक्षक बनने के लिए प्रोत्साहन दिया जायेगा।
- बड़ी संख्या में आश्रय शालाएँ और आवासीय विद्यालय खोले जायेंगे।
- अनुसूचित जनजातियों के लिए उसकी जिन्दगी के तौर-तरीकों और उनकी खास जरूरतों को ध्यान में रखते हुए ऐसी प्रोत्साहन योजनाएँ तैयार की जायेंगी जिससे शिक्षा प्राप्ति में आने वाली बाधाएँ दूर हों। उच्च शिक्षा के लिए दी जाने वाली छात्रवृत्तियों में तकनीकी और व्यावसायिक पढ़ाई को ज्यादा महत्त्व दिया जायेगा। सामाजिक तथा मानसिक अवरोधों को दूर करने के लिए विशेष उपचारात्मक पाठ्यचर्या और अन्य कार्यक्रम चलाए जायेंगे ताकि आदिवासी विद्यार्थी सफलता से अपनी पढ़ाई पूरी कर सकें।
आर्थिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से वंचित लोगों के तात्कालिक कल्याण एवं उनकी दशा में सुधार की दृष्टि से सरकार (केन्द्र व राज्य) अपने स्तर से तो प्रयास करती ही है, साथ ही व्यक्तिगत एवं संस्थाओं के प्रयास से स्थापित ट्रस्ट एवं एन.जी.ओ. भी इस कार्य में सहयोग कर रहे हैं। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि यद्यपि आर्थिक वंचित एवं सांस्कृतिक वंचित लोगों की शिक्षा हेतु प्रयासों का अलग-अलग उल्लेख किया गया है किन्तु दोनों के कार्यक्रम एक-दूसरे से पृथक् नहीं हैं।
साथ ही उनके प्रयास भी एक-दूसरे से अलग नहीं हैं। यदि आर्थिक वंचना में कमी आती है तो सांस्कृतिक वंचना भी प्रभावित होगी। इसी प्रकार इसका उल्टा भी सत्य है। अतः आवश्यक है कि व्यक्ति या उसके समूह की विभिन्न क्षेत्रों की वंचनाओं का समग्र रूप में विचार किया जाए और उसे वंचित श्रेणी से ऊपर उठने में सहायता दी जाए। इस प्रकार व्यक्ति की समृद्धि राष्ट्र की समृद्धि होगी इसमें सन्देह नहीं है।