वंचित बालकों की समस्याएँ सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक रूप से वंचित बालकों की अपने ही विशेषताएँ होती हैं। अनेकों सैद्धान्तिक एवं आनुभाविक अध्ययनों के आधार पर यह पाया गया कि वंचित बालकों की संज्ञानात्मक, अभिप्रेरणात्मक एवं परिवेशीय विशेषताएँ उनके व्यवहार में परिलक्षित होती हैं। यहाँ इन्हीं का संक्षिप्त रूप से वर्णन किया जायेगा।
वंचित बालकों की समस्याएँ – संज्ञानात्मक
- वंचित बालकों पर किये गये अनेकों अध्ययनों के आधार पर यह पाया गया कि वंचन बौद्धिकस्तर से ऋणात्मक रूप से सम्बन्धित है। सामाजिक-आर्थिक स्थिति, आवासीय पृष्ठभूमि, सामाजिक वर्ग जैसे कारकों को लेकर किये गये अध्ययन यह व्यक्त करते हैं कि समृद्ध समूहों की अपेक्षा वंचित व्यक्तियों का बौद्धिक स्तर निम्न होता है। यही नहीं, यह भी पाया गया कि दीर्घकाल तक विपन्न अवस्था में रहने के कारण बौद्धिक स्तर का क्रमशः ह्रास होने लगता है।
- वाचिक क्षमता, समस्या समाधान के व्यपदेश तथा स्मरण प्रक्रम के अध्ययन भी वंचन का स्पष्ट ऋणात्मक प्रभाव प्रदर्शित करते हैं। मध्यस्थताकारी प्रक्रम के अध्ययन भी इस प्रकार के परिणामों की पुष्टि करते हैं।
- प्रात्यक्षित तथा सम्प्रत्यात्मक प्रक्रमों के विषय में किये गये अध्ययन यह व्यक्त करते हैं कि गहराई प्रत्यक्षीकरण, प्रात्यक्षिक प्रभेदन, वर्गीकरण आदि के मापकों पर वंचित बालकों का निष्पादन सार्थक रूप से निम्न स्तर का होता है।
- पियाजे के संकृत्यों को लकर किये गये अध्ययन भी वंचन का संज्ञानात्मक विकास के साथ ऋणात्मक सम्बन्ध इंगित कर हैं।
- संज्ञानात्मक शैली पर किये गये अध्ययन में यह पाया गया कि वंचित बालकों में क्षेत्र निर्भरता अधिक कम होती है जबकि ये सूचना संसाधन में अवंचित बालकों की अपेक्षा कम मात्रा में विश्लेषण प्रवृत्ति व्यक्त करते हैं।
- दीर्घकालीन वंचन तथा शैक्षिक निष्पादन में ऋणात्मक सहसम्बन्ध पाया गया। यही नहीं सांवेगिक, आर्थिक तथा सामाजिक दीर्घकालीन वंचन को शैक्षिक निष्पादन का आधारभूत निर्धारक भी पाया गया। संवेगात्ममक अन्तक्रिया, वस्त्रों को पहनने का अनुभव, गृह परिवेश, आर्थिक कठिनाई, अनुपयुक्त भोजन आदि भी शैक्षिक निष्पादन पर ऋणात्मक प्रभाव डालते हैं। इसके विपरीत अभिप्रेरणात्मक अनुभव, पोषण अनुभव, अभिभावकों के साथ धनात्मक सहसम्बन्ध ज्ञात किया गया।
- सामाजिक आर्थिक स्थिति शैक्षिक उपलब्धि पाने में महत्वपूपर्ण भाग अदा करती है। वंचित बालकों ने शैक्षिक कार्यों में निम्न स्तर का निष्पादन दिया, जबकि गतीय कार्यों तथा अनेकों अशाब्दिक कार्यों को भली-भांति सम्पन्न किया ।
- सुविधा सम्पन्न एवं असुविधा सम्पन्न समूहों पर किये गये अपने अध्ययनों में साहू एवं पटनायक (1987) ने यह पाया कि बढ़ते ग्रेड स्तरों में दोनों ही समूहों ने वर्ण विन्यास संकेतों के प्रयोग में सार्थक वृद्धि दिखाई जबकि शब्दार्थ संकेत के प्रयोग में केवल सुविधा सम्पन्न समूह ने ही वृद्धि दिखाई न कि असुविधासम्पन्न समूह ने साहू तथा मिश्रा (1988) ने अपने अगले अध्ययन में यह पाया कि सुविधासम्पन्न समूह के बच्चे सार्थक रूप से पढने में दक्ष पाये गये तथा इन्होंने शब्दार्थ तथा वाक्य रचना संकेतों का अधिक मात्रा में प्रयोग किया।
- अनुराधा शुल्क (1988) ने प्रत्यक्षीकरण एकरूपता के दोनों भागों-बोलने की एकरूपता तथा सुनने की एकरूपता पर वंचन के प्रभाव को पाया। अधिक वंचित प्रयोज्यों ने न तो बोलने की एकरूपता पर न ही सुनने की एकरूपता पर अच्छी प्रतिक्रिया दी।
उपर्युक्त अनेकों अध्ययनों से यह प्रकट होता है कि वंचित बालक अवंचित बालकों की अपेक्षा संज्ञानात्मक रूप से अधिक पिछड़े होते हैं जबकि फलस्वरूप जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में इनकी उपलब्धि एवं समायोजन का स्तर निम्न होता है। सतही तौर पर देखने से यह परिणाम तर्कसंगत लगता है किन्तु यदि इसे सामान्यीकरण के रूप में स्वीकार कर लिया जावे तो कईकठिनाइयाँ हमारे समक्ष आ जाती हैं।
गिन्सवर्ग (1972), लोबोव (1968) आदि के अनुसार वंचित तथा अवंचित समूहों के निष्पादन में भिन्नता होती है। मिश्र तथा त्रिपाठी (1980) के उपलब्ध साक्ष्यों का विश्लेषण करते हुए यह निष्कर्ष ज्ञात किया कि इन समूहों से निष्पादन केवल ‘भिन्नता’ या ‘मन्दता’ के द्वारा नहीं किया जा सकता है। वस्तुतः दोनों ही समूहों की व्यापक पृष्ठभूमि में कुछ अंश समान होते हैं तथा कुछ अंश भिन्न यदि समान क्षेत्रों में निष्पादन में अन्तर है तो यह मन्दता का द्योतक है तथा यदि अन्तर भिन्न क्षेत्रों का है तो यह भिन्नता को व्यक्त करता है। अतः वंचन के प्रभाव में भिन्नता तथा मन्दता दोनों ही सम्मिलित हैं।



वंचित बालकों की समस्याएँ – व्यक्तित्व तथा अभिप्रेरणात्मक
प्रायः ऐसा देखने में आता है कि वंचित बालक का प्रेणात्मक स्तर उच्च तथा व्यक्तित्व विघटित होता है। एक सीमा तक वंचन में वृद्धि अभिप्रेरणा में वृद्धि उत्पन्न कर देती है। वास्तविक मानव-जीवन में अभिप्रेरणाओं की सन्तुष्टि तथा उनके स्वरूप पर परिवेश तथा संस्कृति का पर्याप्त प्रभाव पड़ता है। सामाजिक- मनोवैज्ञानिक आवश्यकताओं के विकास के सम्बन्ध में यह स्वीकार किया गया है कि इनका उद्भव जीवन के अनुभवों द्वारा निर्देशित होता है। इस क्षेत्र में किये गये शोध कार्यों की समीक्षा सिन्हा तथा मिश्रा ने की है।
- सामाजिक आर्थिक स्तर तथा उपलब्धि अभिप्रेरक के मध्य सार्थक धनात्मक सह-सम्बन्ध पाया गया है। मिश्रा तथा तिवारी तथा तिवारी के द्वारा किये गये अध्ययनों में दीर्घकालिक वंचन का उपलब्धि अभिप्रेरक के विकास के साथ स्पष्ट ऋणात्मक सम्बन्ध पाया गया जबकि स्वनिर्भरता तथा उपलब्धि अभिप्रेरक के विकास के मध्य सह-सम्बन्ध प्राप्त किया गया।
- वंचित बालकों तथा उनके अभिभावकों दोनों ने ही निम्न आकांक्षा स्तर को अभिव्यक्त किया है यही निम्न आकांक्षा स्तर वंचित बालकों की अध्ययन में रुचि को कम कर देता है। इसी प्रकार का निष्कर्ष मिश्रा तथा त्रिपाठी (1978) ने सामाजिक स्तर के प्रत्यक्षीकरण के अध्ययन में पाया। उनके अनुसार अधिक मात्रा में वंचित समूह का आकांक्षा स्तर अत्यन्त कम तथा अयथार्थिक था जिससे कि नैराश्य की मात्रा में वृद्धि सम्भव थी।
- चिन्ता स्तर के विषय में प्राप्त परिणाम पूर्णतः स्पष्ट नहीं हैं। कुछ अध्ययन वंचित समूहों में. अधिक मात्रा में चिन्ता प्रदर्शित करते हैं जबकि अन्य कम चिन्ता व्यक्त करते हैं। दीर्घकालीन वंचन के साथ चिन्ता का धनात्मक सम्बन्ध पाया गया है।
- वंचित बालकों के व्यक्तिगत में असुरक्षा तथा मनस्ताप अधिक मात्रा में पाया जाता है तथा इनका स्व-सम्प्रत्यक्ष ऋणात्मक होता है। अनेक अध्ययनों में वंचित बालकों का स्व-सम्प्रत्यय धनात्मक पाया गया है।
- वंचित बालकों के कालगत दृष्टिगत में भविष्योन्मुखता कम होती।
- वंचित बालक मूर्त पुरस्कार की स्थिति में अमूर्त पुरस्कार है।
- एक अध्ययन में वंचित बालकों में आत्मप्रेम, संगमन, युयुत्सा (लड़ने की प्रवृत्ति, दृढ़ता, आत्म-भावुकता की अभिप्रेरणात्मक प्रवृत्तियाँ अवंचित बालकों की तुलना में अधिक पायी गईI
- वंचित समूहों में स्वीकृति, प्रदर्शन, अवलाविता, तथा परिवर्तन के अभाव अधिक मात्रा में पाये गये।
- वंचित तथा अवंचित किशोरों के तुलनात्मक अध्ययनों में जहाँ वंचित किशोरों को अन्तर्मुखी, कम बौद्धिक स्तर का सांवेगिक रूप से अस्थिर, गम्भीर, शर्मीला, अवसादी, रूढ़िवादी तथा निराशावादी व्यक्तित्व शीलगुणों वाला पाया गया, वहाँ दूसरी और अवंचिता किशोर सामाजिक क्रियाओं में भाग लेने वाले, बुद्धिमान, सांवेगिक रूप से परिपक्व, खुशमिजाज, दवंग प्रगतिवादी तथा तनावमुक्त पाये गये।
- तिवारी (1984) ने यह निष्कर्ष पाया कि वंचित वर्ग की अपेक्षा अधिक वंचित समूह में चिन्ता ज्यादा पाई जाती है। वंचित बालकों का उपलब्धि प्रेरणा स्तर भी कम पाया गया। अतः यह सिद्ध है कि वंचन का स्तर तथा उपलब्धि प्रेरणा में ऋणात्मक सम्बन्ध है। इसके ठीक विपरीत कम वंचन स्तर वाले लोगों की शाब्दिक उपलब्धि प्रेरणा अधिक पाई गई। निम्न सामाजिक आर्थिक स्तर के लोगों का आकांक्षा स्तर भी सार्थक रूप से निम्न पाया गया।
- नैराश्य सहनशीलता के सन्दर्भ में जाति को एक शक्तिशाली घर के रूप में पाया गया। अनुसूचित जाति में सबसे अधिक नैराश्य सहनशीलता पाई गई, उसके बाद पिछड़ी एवं उच्च जाति में नैराश्य सहनशीलता पाई गई।
- लाभाविन्त एवं अलाभान्वित समूहों के सन्दर्भ में अभावों का अध्ययन करने पर भार्गव एवं सिंघल (1987) ने यह पाया कि अलाभान्वित समूह की लड़कियों ने आदर तथा निर्भरता अभावों को अधिक मात्रा में व्यक्त किया जबकि प्रदर्शन तथा परिवर्तन अभावों में काफी कमी पायी गईI
उपर्युक्त अध्ययनों पर आधारित निष्कर्ष यह व्यक्त करते हैं कि वंचन का अभिप्रेरणात्मक प्रक्रम तथा व्यक्तित्व दोनों पर ही ऋणात्मक प्रभाव पड़ता हैं यही नहीं वंचित बालक परिवेश के साथ अपना ठीक ढंग से सामंजस्य नहीं कर पाते हैं।



वंचित बालकों की समस्याएँ – परिवेशीय
वंचन संज्ञानात्मक विकास की गति को अवरुद्ध करता है तथा बालक की प्रेरणा- शक्ति को भी असंतुलित बनाता है। यह स्थिति वंचित बालक को उसकी क्षमताओं के विकास में बाधा डालती हैं। यहाँ पर ज्ञातव्य है कि जिन वंचन के परिणामों को बालक को झेलना पड़ता है उसके लिये बालक स्वयं उत्तरदायी नहीं है अपितु उसका परिवेश उत्तरादायी हैं परिवेश बालक को अनुभव प्रदान करता है। बालकों का परिवेश या तो आपेक्षित अनुभवों को कम अवसर प्रदान करता है या फिर ऐसे अवसर देता है जो दूषित होते हैं और जिनका उपयुक्त विकास पर ऋणात्मक प्रभाव पड़ता हैं वंचित बालकों के परिवेश की प्रमुख समस्याएँ निम्न हैं-
- वंचित बालक के पारिवारिक परिवेश में उपयुक्त भूमिका माडेल का अभाव होता है। अर्थाभाव के कारण प्रायः माता-पिता दोनों घर से बाहर कार्य करते हैं तथा बालक के साथ उनकी अन्तःक्रिया अत्यन्त सीमित रहती है। अशिक्षा के कारण इन बालकों के माता-पिता उचित निर्देशन भी नहीं दे पाते हैं। भीड़, कोलाहल, अस्वास्थ्यकर दशाओं में पलने वाले इन बालकों को उपयुक्त पोषाहार भी नहीं मिल पाता है। फलतः इनका शारीरिक स्वास्थ्य भी क्षीण रहता है।
- वंचित बालकों की मित्र मण्डली प्राय: असामाजिक कार्यों में लगी रहती है। तथा उन्हें अनेक बुरी आदतों को विकसित करने में सहायक होती हैं इसका कारण परिवार द्वारा जीविकोपार्जन में व्यस्तता होती है। प्रायः वंचित परिवारों में अल्पायु में ही कुछ बालकों को ऐसेछोटे-बड़े कार्यों में लगा दिया जता है, जिसके द्वारा परिवार की आय में वृद्धि हो सके। इस परिस्थिति का बालक के शारीरिक तथा मानसिक विकास पर दूरगामी ऋणात्मक प्रभाव पड़ता है।
- वंचित बालकों के अभिभावकों की शिक्षा के प्रति धनात्मक अभिवृत्ति नहीं होती है क्योंकि बालक की शिक्षा उनके लिये अतिरिक्त आर्थिक भार डालती है। अतः वे बालक को विद्यालय न भेजकर किसी छोटे-मोटे काम में लगाना ही ठीक समझते हैं।
- अधिकांश विद्यालय वंचित छात्रों के लिये अनुकूल पर्यावरण प्रदान नहीं करते हैं क्योंकि उनमें पढ़ने वाले अधिकांश छात्र उच्च और मध्यम वर्ग वाले होते हैं तथा वंचित छात्रों के प्रति पूर्वाग्रह रखते हैं। अध्यापकों की अभिवृत्ति भी इन छात्रों के प्रति प्रायः ऋणात्मक होती है। इस प्रकार विद्यालय का वातावरण वंचित बालकों के अध्ययन के प्रवृत्त करने के बीले उन्हें अध्ययन से विमुख करने में सहायता पहुँचाता है। साथ ही साथ विद्यालय के प्रति शंकालु तथा ऋणात्मक दृष्टिकोण के कारण वंचित छात्र विद्यालय के साथ अपना समायोजन स्थापित नहीं कर पाता है तथा विद्यालय उन्हें आकर्षित नहीं कर पाता है।
- आयु में वृद्धि के साथ-साथ जीवन के हर क्षेत्र में असन्तुष्ट होने से वंचित बालकों की अभिवृत्ति क्रमशः अधिक ऋणात्मक होती जाती है और अवंचित तथा अल्पवंचित छात्रों से उनकी भिन्नता निरन्तर बढ़ती जाती है।
- अस्थाना एवं सक्सैना (1989) ने पाया कि निम्न सामाजिक आर्थिक स्तर के लोग आपस में एक साथ पास-पास बैठना अधिक पसन्द करते हैं।
- उपर्युक्त तथ्यों से स्पष्ट है कि वंचन के ऋणात्मक परिणाम को निर्धारित करने में परिवेश का ‘विशेष योगदान रहता है। अतः वंचन के परिणाम को परिमार्जित करने के लिये वंचन की पृष्ठभूमि को बदलना आवश्यक हो जाता है। मनौवैज्ञानिकों ने वंचन के प्रभाव को दूर करने के लिये अनेक प्रकार के प्रयास किये हैं जिनका उल्लेख समीचीन प्रतीत होता है।
सामाजिक रूप से वंचित बालकों की समस्याएँ
सामाजिक रूप से वंचित बालकों की समस्याएँ निम्नलिखित हैं-
- अधिगम की समस्या – सामाजिक रूप से वंचित बालकों में अधिगम की समस्या पाई जाती है। ऐसा सभी बालकों में नहीं होता है परन्तु अधिकांश वंचित बालकों में ऐसी समस्या पाई जाती है। इसका कारण उन्हें उचित परिवेश, औपचारिक शिक्षा एवं अन्य सुविधाओं का अभाव है। इसका एक अन्य कारण घर एवं आस-पास (पड़ोस ) के बालकों की स्थिति एवं परिवेश का प्रभाव है।
- संज्ञानात्मक एवं बौद्धिक समस्याएँ – इन बालकों में संज्ञानात्मक एवं बौद्धिक समस्या पाई जाती है। इसका कारण उनका उचित प्रकार से शिक्षण न होना है। ये बालक जब औपचारिक शिक्षा के लिए विद्यालयों में प्रवेश लेते हैं तो उनके संज्ञानात्मक एवं बौद्धिक ज्ञान में भी वृद्धि होती है।
- भावनात्मक समस्याएँ— बुनियादी सुविधाओं के अभाव में बालक में भावनात्मक समस्याओं का उदय होने लगता है। जब वे किसी वस्तु की बार-बार माँग करते हैं और उन्हें वह प्राप्त नहीं होती है तो उनमें निराशा की भावना बढ़ने लगती है। ऐसी स्थिति जब बार-बार आती है तो बालकों में भावनात्मक समस्याएँ बढ़ने लगती हैं। यद्यपि माता-पिता एवं अन्य लोगों के सहयोगात्मक व्यवहार भावनात्मक समस्या का काफी हद तक निदान किया जा सकता है।
- भाषा की समस्या – इन बालकों में भाषा की समस्या पाई जाती है। ऐसे बालक जिस परिवेश में रहते हैं वहाँ का वातावरण ऐसा होता है कि उनकी भाषा में अनावश्यक शब्दों का समावेश हो जाता है। ऐसे बालक जब औपचारिक शिक्षण संस्थानों में जाते हैं तो उन्हें भाषा की समस्या का अत्यधिक सामना करना पड़ता है। शिक्षकों को भी ऐसे बालकों को सिखाने में समस्या का सामना करना पड़ता है।