रीतिकालीन ब्रज साहित्य – रीतिकाल ब्रजभाषा के काव्य रूप का चरमोत्कर्ष काल रहा है। रीतिकाल में सभी कवियों ने चाहे वह ब्रजभाषा क्षेत्र के रहे हैं अथवा उसके बाहर के रहे हो सभी ने ब्रज भाषा में ही अपनी रचनाएं प्रस्तुत की। रीति ग्रंथ, मुक्तक काव्य ग्रंथ या अन्य छिटपुट ग्रंथ जो कि रीतिकालीन कवियों द्वारा रचे गए। वे सभी ब्रज भाषा में ही रचे गए। घनानंद, रीतिकालीन ब्रजभाषा के सर्वाधिक सशक्त कवि हैं, जिनकी भाषा में लक्षणा एवं व्यंजना का अपूर्व सौंदर्य है। यद्यपि उन्होंने भाषा का मनमाना प्रयोग किया है। उन्होंने नए नए शब्दों क्रियाओं का भी निर्माण किया है।

आचार्य शुक्ल ने उनकी भाषा के बारे में लिखा है कि “जीवादानी का दावा रखने वालों में ब्रजभाषा का ऐसा दूसरा कभी नहीं हुआ है। लक्ष्णा तथा व्यंजना की सीमा कहां तक है इसका वास्तविक पता इन्ही को था।” कृष्ण भक्त कवियों ने ब्रज भाषा को व्यापक काव्य भाषा के रूप में प्रतिष्ठित किया। इस काल में ब्रजभाषा का प्रभाव इतना चमत्कारिक आभा वाला था कि तुलसी जैसे अवधि के मूल कवि को भी कई ग्रंथ ब्रजभाषा में लिखने पड़े।
रीतिकालीन ब्रज साहित्य
रीतिकालीन कवियों में ब्रजभाषा क्षेत्र के कवियों ने ही ब्रजभाषा में काव्य रचना नहीं की अपितु ब्रज क्षेत्र के बाहर के हिंदी कवियों ने भी व्यापक काव्य रचना की। रीतिकाल तक आते-आते ब्रजभाषा व्यापक काव्य भाषा के रूप में स्वीकृत हो चुकी थी। रीतिकालीन ब्रजभाषा के लिए पूर्व उपयुक्त बन चुकी थी, किंतु उसमें कवियों ने मनमानी तोड़ मरोड़ की। रीतिकालीन ब्रज साहित्य की प्रमुख प्रवृत्तियां निम्नलिखित हैं-
- श्रंगारिकता
- आलंकारिकता
- आश्रयदाताओं की प्रशंसा
- बहुज्ञता एवं चमत्कार प्रदर्शन
- नारी भावना

श्रंगारिकता
रीतिकालीन ब्रज साहित्य के प्रमुख कवियों की प्रवृत्ति श्रंगारिकता है। इन कवियों का श्रंगार वर्णन एक ओर तो शास्त्रीय बंधनों से युक्त है तो दूसरी ओर विनाशी आश्रय दाताओं की प्रवृत्ति ने इसे उस सीमा तक पहुंचा दिया जहां तक अश्लीलता को सस्पर्श करने लगी। नायक नायिकाओं के भेद का निरूपण प्रायः इसी के अंतर्गत किया गया है। वस्तुतः इन कवियों को वह दरबारी वातावरण प्राप्त हुआ जिसमें व्यक्ति को दृष्टि विलास के समस्त उपकरणों के संग्रह की ओर ही रहती है।
नारी के प्रति सामंती दृष्टि होते हुए भी कहीं-कहीं प्रेम के दृश्य उपलब्ध हो जाते हैं अन्यथा सर्वत्र प्रेम की प्रधानता रही है। इन कवियों के श्रंगार चित्रण रूप में इंद्रिय सुख की प्रधानता रूप लिप्सा एवं बाय सौंदर्य की प्रधानता दिखाई पड़ती है। बिहारी जैसे कवि ने विरह ताप एवं विरह जन्य कृशता का ऐसा उद्धात्मक चित्रण किया जो कहीं कहीं मजाक की हद तक पहुंच गया।
औंधाई सीसी सुलखि विरह करनि विलात।
विच ही सूखी गुलाबु गौ छींटौ हुई ना गात।।

आलंकारिकता
रीतिकालीन ब्रज साहित्य में अलंकरण की प्रधानता है। कविता सुंदरी को अलंकारों से सजाने में वे कवि कर्म की सार्थकता समझाते थे। अलंकारों के प्रति इनका मोह अति प्रबल था। अतः वह कविता में अलंकारों का समास प्रयोग करते थे। केशव तो अलंकार विहीन कविता को सुंदर मानते ही नहीं भले ही वह अन्य कितने गुणों से युक्त क्यों ना हो।
आश्रयदाताओं की प्रशंसा
रीतिकाल के अधिकांश कवि राज दरबारी थे। वे अपने आश्रय दाताओं की प्रशंसा में काव्य रचना करते थे। देव ने अपने आश्रयदाता भवानी सिंह की प्रशंसा में रचना की।
बहुज्ञता एवं चमत्कार प्रदर्शन
रीतिकालीन कवियों में पांडित्य प्रदर्शन की जो प्रवृत्ति परिलक्षित होती है उसके कारण काव्य में विविध विषयक ज्ञान का समावेश करके अपनी बहुलता प्रदर्शित करते थे। बिहारी के काव्य में ज्योतिष, पुराण, आयुर्वेद, गणित, काव्यशस्त्र, नीति, चित्रकला आदि अनेक विषयों की जानकारी समाविष्ट है।

नारी भावना
रीतिकालीन काव्य का केंद्र बिंदु नारी चित्रण रहा है। नारी के कमनीय अंगो का स्थूल एवं मांसल चित्र अंकित करते हुए उन्होंने कहा दर्शकों को उसके मनमोहक स्वरूप से परिचित कराया। नारी के प्रति इस एकांगी दृष्टि के कारण वे उसकी सामाजिक महत्ता एवं उसकी श्रद्धा समन्वित गौरवमई पूर्ति का चित्रण करने में समर्थ नहीं हुए।
रीतिकालीन ब्रजभाषा कवियों में कहीं-कहीं अवधि सब द्वीपों का प्रयोग भी किया है तथापि उसमें ऐसे प्रयोग अधिक मात्रा में नहीं है। बिहारी में कवि, दीन जैसे क्रिया रूप यदि अवधि में है तो स्वर की ब्रजभाषा में पूर्वी भाषा का प्रयोग किया है। अधिकतर इन ग्रंथों का निर्माण अवधि क्षेत्र में हुआ।
अतः इस काल के ब्रजभाषा में प्राप्त होने वाले अवधि शब्द अस्वाभाविक नहीं है। इस काल की ब्रज भाषा में फारसी शब्दों के प्रयोग पर टिप्पणी करते हुए शुक्ला जी ने लिखा है कि “राजा महाराजाओं के दरबार में विदेशी शिष्टता और सभ्यता के व्यवहार का अनुकरण हुआ और फारसी के लक्ष्य दार शब्द वहां चारों ओर सुनाई देने लगे।”