राष्ट्रभाषा हिंदी – इस संसार के केवल मनुष्य को ही वाणी का वरदान प्राप्त है। इसके माध्यम से वह अपने मन के विचार तथा भावनाओं को बोलकर या लिखकर व्यक्त कर सकता है तथा दूसरों के विचारों को सुनकर या पढ़कर समझ सकता है। विचारों की यह अभिव्यक्ति भाषा के माध्यम से होती है । साहित्य, कला, ज्ञान – विज्ञान, दर्शन आदि सभी का आधार भाषा ही है।
राष्ट्रभाषा हिंदी का अर्थ एवं आवश्यकता
किसी भी स्वतंत्र देश के कुछ राष्ट्रीय चिह्न या प्रतीक होते हैं जिनमें उसकी राष्ट्र भाषा भी होती है । किसी भी देश में सबसे अधिक बोली तथा समझी जाने वाली भाषा ही वहाँ की राष्ट्र भाषा होती है। प्रत्येक राष्ट्र का अपना एक स्वतंत्र अस्तित्व होता है, उसमें अनेक जातियों, धर्मों और भाषाओं के लोग रहते हैं।

अतः राष्ट्रीय एकता को सुदृढ़ करने के लिए एक ऐसी भाषा की आवश्यकता पड़ती है जो पूरे देश को एकता के सूत्र में बाँध सके, जिसका प्रयोग सभी नागरिक कर सकें तथा सरकारी कामकाज भी उस भाषा में किया जा सके। ऐसी व्यापक भाषा ही राष्ट्र भाषा कहलाने का गौरव प्राप्त कर सकती है। हिंदी भाषा इन सभी आवश्यकताओं की पूर्ति करने में समर्थ है।
राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी को मान्यता
भारत के संविधान का निर्माण करते समय संविधान के निर्माताओं के समक्ष यह प्रश्न आया कि किस भाषा को राष्ट्र भाषा के रूप में स्वीकार किया जाए? प्राचीन काल में भारत की भाषा संस्कृत तथा मुगलकाल में उर्दू तथा ब्रिटिश शासन काल में अंग्रेजी थी। संविधान सभा ने सभी पहलुओं पर भलीभाँलि विचार करके 14 सितंबर 1949 को हिंदी को भारत संघ की राजभाषा घोषित किया। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 343 के संघ की राजभाषा हिंदी है। 14 सिंतबर को ही संपूर्ण देश में हिंदी दिवस मनाया जाता है।

राष्ट्रभाषा हिंदी के पक्ष और विपक्ष में धारणाएँ
यद्यपि हिंदी को भारतीय संविधान सभा ने राजभाषा के रूप में स्वीकार किया , पर कुछ प्रांतों ने इसका विरोध किया तथा हिंदी को राजभाषा के रूप में स्वीकार नहीं किया। हिंदी के पक्षधर ये मानते हैं कि हिंदी भाषा अत्यंत सरल है। इसके साहित्य भी समृद्ध है। इसे देश के हर हिस्से में किसी न किसी रूप में अवश्य प्रयोग किया जा रहा है।
इसमें शब्द भंडार असीमित है। साथ ही इस भाषा में अन्य भाषाओं के शब्दों को भी आत्मसात करने की अद्भुत क्षमता है। पर अंग्रेजी के अंधभक्तों का तर्क है कि यह भाषा केवल उत्तर भारत की है। उनकी मान्यता है कि अंग्रेजी ही विश्व की संपर्क भाषा है।
राष्ट्रभाषा हिंदी के प्रति हमारा कर्तव्य
भारतेंदु हरिश्चंद्र ने कहा था निजभाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल, बिनु निजभाषा ज्ञान के मिटै ने हिय को सूल। अंगरेजी पढ़के जदपि सबगुन होत प्रवीन , पै निज भाषा ज्ञान के रहत हीन के हीन।। हमारा कर्तव्य है कि हम हिंदी को अपनाएँ तथा अंग्रेजी के मोहजाल से निकलें। अंग्रेजी का एक भाषा के रूप में सीखना कोई बुरी बात नहीं है , पर एक विदेशी भाषा जिसे भारत के केवल 3-4 प्रतिशत लोग ही बोलते – समझते हों , राष्ट्र भाषा का स्थान नहीं ले सकती। हम याद रखें कि व्यवहार में हिंदी का प्रयोग हीनता का प्रतीक न होकर गौरव का प्रतीक है प्रतिक है।

राष्ट्रभाषा और स्वाभिमान
जब तक हम राष्टभाषा के प्रश्न को राष्ट्रीय स्वाभिमान से नहीं जोड़ते , तब तक हिन्दी भारत की राष्ट्रभाषा नहीं बन सकती। जिस प्रकार राष्ट्रगान , राष्ट्रीय ध्वज किसी स्वतन्त्र राष्ट्र के गौरव , स्वाभिमान एवं अस्मिता के प्रतीक होते हैं . उसी प्रकार राष्ट्रभाषा भी किसी राष्ट्र के स्वाभिमान की वाहक होती है।
जिस प्रकार देश के नागरिक अपने राष्टगीत एवं राष्ट्रीय झण्डे से प्यार करते हैं , उसी प्रकार उन्हें अपनी राष्ट्रभाषा से भी प्रेम करना चाहिए। भारत की स्वतन्त्रता के उपरान्त जब राष्ट्रभाषा का सवाल उठा तो हमारे दूरदर्शी नेताओं ने एक स्वर से हिन्दी को इस पद पर प्रतिष्ठित किया। गांधीजी, नेहरूजी, राजगोपालचारी, मौलाना अबुलकलाम आजाद, गोविन्द वल्लभ पन्त आदि ने हिन्दी को ही यह सम्मान देने का वकालत की।