राग दरबारी उपन्यास व्याख्या – राग दरबारी उपन्यास के रचइता श्रीलाल शुक्ल जी है। विश्वविद्यालय में होने वाली परीक्षाओं में इस उपन्यास से 2 तरीके के प्रश्न पूछे जा सकते हैं एक तो व्याख्या और दूसरा उपन्यास से संबंधित आलोचनात्मक प्रशन। यह लेख राग दरबारी उपन्यास व्याख्या से संबंधित है। हिंदी कथा साहित्य प्रश्न पत्र में इस उपन्यास से प्रश्न पूछे जाते हैं। इस उपन्यास में लेखक ने आजादी के बाद के भारत के ग्रामीण जीवन के मल्यों का बखान किया है।

राग दरबारी उपन्यास व्याख्या
उपन्यास के कुछ अंश और उनकी व्याख्याएं दी जा रही है। राग दरबारी उपन्यास व्याख्या परीक्षा की दृष्टि से अति महत्वपूर्ण है।
1. दरोगा जी और उसके सिपाहियों को वहां पर मनुष्य नहीं, बल्कि अलादीन के चिराग से निकलने वाला दैत्य समझ कर रखा गया था। उन्हें इस तरह रखकर 1947 में अंग्रेज अपने देश चले गए थे और उसके बाद ही धीरे-धीरे लोगों पर यह राज खुलने लगा था कि यह लोग दैत्य नहीं है, बल्कि मनुष्य हैं, और ऐसे मनुष्य हैं जो खुद दैत्य निकालने की उम्मीद में दिन-रात अपना-अपना चिराग घिसते रहते हैं।
राग दरबारी उपन्यास व्याख्या – 1
थाना शिवपालगंज और वहां के नजदीकी गांव के लोग थाने के दरोगा और सिपाही को मनुष्य नहीं मानते हैं क्योंकि उनके अंदर अशिक्षा एवं अंधविश्वास व्याप्त है। वे लोग यह समझते हैं कि यह लोग वैसे है जैसे अलादीन के चिराग से निकलने वाला डरावना राक्षस होता है। अलादीन चिराग से निकलने वाला राक्षस असंभव को संभव कर देता था। अंग्रेजों ने इसीलिए इन सिपाहियों को रखा है। 1947 में देश स्वतंत्र हुआ अंग्रेज अपने देश से चले गए।
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अब लोगों के सामने इनका भेद भी धीरे धीरे खुलने लगा और गांव के लोगों को यह महसूस होने लगा कि यह लोग दैत्य की तरह काम करने वाले नहीं हैं बल्कि एक साधारण मानो हैं। इनमें और साधारण मनुष्य में अंतर है। यह ऐसे मनुष्य की खोजबीन में रहते हैं जो इनके सभी कामों को पूरा करने के साथ इनकी सेवा भी कर सके और इनकी सुख सुविधा का पूरा ध्यान दें।
2. विरोधी से भी सम्मान पूर्ण व्यवहार करना चाहिए। देखो न, प्रत्येक बड़े नेता का एक-एक विरोधी है। सभी ने स्वेच्छा से अपना अपना विरोधी पकड़ रखा है। यह जनतंत्र का सिद्धांत है हमारे नेतागण कितनी शालीनता से विरोधियों को झेल रहे है। विरोधी गढ़ अपनी बात बकते रहते हैं और नेतागण चुपचाप अपनी बात चाल चलते रहते हैं। कोई किसी से प्रभावित नहीं होता। यह आदर्श विरोध है।
राग दरबारी उपन्यास व्याख्या – 2
सत्य और अहिंसा के मार्ग पर चलने वाला व्यक्ति अपने शत्रु के साथ भी सम्मान पूर्वक व्यवहार करता है। उनके दिल को कभी नहीं दुखाता और ना ही उनका अनादर करता है। जनतंत्र मैं पछ और विपक्ष का होना आवश्यक है। यदि राजनीति के क्षेत्र में देखा जाए तो प्रत्येक बड़े नेता का अपना एक विरोधी होता है। यह लोग अपनी इच्छा अनुसार अपना विरोधी चुनते हैं। प्रत्येक राजनीतिक दल में यह गुटबंदी है कि उनमें उठा पटक होती रहती है।
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यह नेतागण अपनी इच्छा अनुसार बनाए गए अपने विरोधी लोगों के कड़े से कड़े विरोध का भी बुरा नहीं मानते। अपने सरल स्वभाव और शालीनता के साथ उनकी बातों को सुनते हैं। लेकिन करते वही हैं जो वे चाहते हैं ना तो वे चाहते है न तो वे किसी विरोधी को समझा कर प्रभावित करने का प्रयत्न करते हैं। और ना ही उनसे प्रभावित होते हैं विरोध का यही आदर्श है। जो लोग विरोध करते हैं, उन्हें विरोध करने दो और तुम अपना काम करते रहो। आदर्श को कभी नहीं त्यागना चाहिए।

3. दुख मनुष्य को मांजता है। बात कुल इतनी नहीं है, सच तो यह है कि दुख मनुष्य को पहले फिचता है, फिर फींचकर निचोड़ता है, फिर निचोड़ कर उसके चेहरे को घुग्घू जैसा बना कर उस पर दो चार काली सफेद लकीरें खींच देता है। फिर उसे सड़क पर लंबे-लंबे डगो से टहलने के लिए छोड़ देता है। दुख इंसान के साथ यही करता है।
राग दरबारी उपन्यास व्याख्या – 3
कवियों और लेखकों ने दुख के संबंध में अपने मत प्रकट करते हुए लिखा है कि दुख मनुष्य के चारित्रिक दोषों तथा कलुष्य को दूर करता है। यह मनुष्य को सर्वप्रथम मथता है फिर खींचकर उसे निचोड़ता है, दुख से निचोड़े जाने पर दुखी व्यक्ति के कंकाल का भूगोल परिवर्तित हो जाता है। उसके चेहरे पर दुख की अमिट रेखाएं खींच जाती हैं और उनका चेहरा दो चार काली रेखाओं से लक्षित घुग्घू के समान हो जाता है। फिर उसे भटकने के लिए सड़क पर छोड़ जाता है।
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दुख से मनुष्य के शरीर में असमय परिवर्तन हो जाता है। दुख दर्द के कारण शरीर से क्षीण मन बुद्धि से विकलांग व्यक्ति जीवन का भार जैसे तैसे धोता हुआ अपनी जिंदगी के दिन जैसे तैसे पूरा बिताता है। जीवन उसके लिए भार सद्रश हो जाता है। दुख मानव जीवन का अभिशाप है। जीवन उसके लिए भार स्वरूप हो जाता है। जिसे ढोना नियति हो जाती है। दुख मनुष्य के साथ यही सब करता है।
4. एक साहित्य है जो गुप्त कहलाता है, जो ‘भारत में अंग्रेजी राज’ जैसी पुस्तकों से भी ज्यादा खतरनाक है क्योंकि उसका छापना 1947 के पहले तो जुर्म था। आज भी जुर्म है जो बहुत सी दफ्तरी बातों की तरह गुप्त होकर भी गुप्त नहीं रहता। जो आहार निद्रा भय आदि मैं फंसे हुए आदमियों की जिंदगी में एक बड़े सुखद लिटरेरी सप्लीमेंट का काम करता है और जो विशिष्ट साहित्य और जन साहित्य की बनावट श्रेणियों को लाघकर व्यापक रूप से सबके हृदयों मैं प्रतिष्ठित है।
राग दरबारी उपन्यास व्याख्या – 4
एक गोपनीय साहित्य व होता था जिसमें देश प्रेम की भावना झलकती थी। स्वतंत्रता के पहले इस तरह के साहित्य का प्रकाशन एक अपराध समझा जाता था। सरकार द्वारा प्रतिबंधित साहित्य भी कई प्रकार का होता है। वह जो देशद्रोह तथा वर्तमान सत्ता के प्रति क्रांति का साहित्य समझा जाता है। अश्लील साहित्य जिसे पढ़कर युवा पीढ़ी पथभ्रष्ट हो जाती है। उसका चारी चित्रक पवन होता है तथा स्वास्थ्य नष्ट होता है। 1947 में आजादी के बाद प्रतिबंधित पुस्तकों पर से प्रतिबंध हटा लिया गया क्योंकि शासन बदल गया था।
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देशद्रोह की परीक्षा बदल गई थी और भारत में अंग्रेजी राज्य ची पुस्तके इतिहास की पुस्तकें अभी भी अश्लील मानी जाती थी। ज शिष्ठ सम्मान में वर्जित थी उन्हें एकता अतः कामशास्त्र की पुस्तके अभी भी अश्लील मानी जाती थी जो शिष्ठ सम्मान में वर्जित थे उन्हें एकता में पढ़ा जा सकता था। अश्लील साहित्य दफ्तर की गुप्त बातों की तरह होता है जो गुप्त होते हुए भी गुप्त नहीं रहती।

5. गुट बंदी पर्मत्मनुभूती की चरम दशा को एक नाम है। उसमें देख ‘तू ”मैं ‘ को और प्रत्येक पार्ट से ज्यादा अच्छी स्थिति में देखता है। वह उस स्थिति को पकड़ना चाहता है।’ मैं ”तू ‘ को बिठाकर’ मै’ की जगह’ तू ‘की जगह में बन जाना चाहता है।
राग दरबारी उपन्यास व्याख्या – 5
गुप्त बंदी का संबंध दर्शन से है। परमातनुभूती की दशा में जीव ब्रह्म में लय हो जाता है।और उसे परम आनंद की उपलब्धि होती है ।यही परम सुख आनंद की तीव्र अनुभूति एक दल को तब प्राप्त होती है। जब दूसरे को वह समाप्त कर देता है उसका अस्तित्व मिटा देता है। परमात्मा की अनुभूति की चरम स्थिति में पहुंचने पर’ मैं’ तू का विशेषण अच्छी तरह हो जाता है।प्रत्येक में जीव तू ब्राह्मण को और प्रत्येक तू ब्रह्म जीव को अपने से अधिक अच्छी स्थिति में देखता है।
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उसकी स्थिति को वह पकड़ना भी चाहता है ।वह जीव और ब्रह्म के भेद को दूर कर जीव की तरह ब्रह्म और ब्रह्म की तरह जीव का एकाकार हो जाता है।गुड्डू बंदी में भी प्रत्येक व्यक्ति अपने में और दूसरे तू को अच्छी तरह से समझ कर अपने से दूसरे को अच्छी स्थिति में बांध उसके तू को अपने और बदलना चाहता है। लेखक दोनों को समान मानता है और गुट बंदी को वेदांत से जोड़कर उसे गैरवानवित करता है।
6. दिन गांव के महाजन जरूर थे ,पर वैसे महाजन ना थे जिनके किसी और निकलने पर पंथ बन जाता है ।वह उस के महाजन थे जो अनजानी राह पर पहले किराए के जन्म भेजते हैं और जब देख लेते हैं कि उस पर पगडंडी बन गई है और उसके धंसने का खतरा नहीं है, तब वह महाजन की तरह छड़ी टेक टेक कर धीरे-धीरे निकल जाते हैं।
राग दरबारी उपन्यास व्याख्या – 6
धन संपन्न होने के कारण गयादीन रुपए पैसे के लेन-देन का व्यवहार करते थे और गांव के महाजन भी थे वह से महाजन नहीं थे कि लोग उनका स्वयं ही अनुकरण करें वह ऐसे लोगों की श्रेणी में आते थे। जो एक जत्था समूह के महाजन होते थे उस समूह के उस रास्ते पर जाने के एक पगडंडी बन जाती है फिर कोई खतरा ना होने से वहां जनि गौरव के साथ गया। दिन निकल जाते हैं।
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वह आगे चलकर मार्ग बनाने वाले नहीं हैं बल्कि रुपए के बल पर दूसरों को आगे करते थे। उनके लिए सुरक्षित रास्ता बन जाता था तो वह महाजनी गौरव के साथ उस रास्ते से निकल जाते थे। परग आत्मक आदर्शों एवं समाज द्वारा चिरकाल के बने नीति नियमों का पालन करते हुए भी वह हर काम बड़ी सावधानी से करते थे।

7. नैतिकता, समझ लो कि यही चौकी है। एक कोने में पड़ी है। सभा सोसाइटी के वक्त इस पर चादर बिछा दी जाती है। तब बड़ी बढ़िया दिखती है इस पर चढ़कर लेक्चर फटकार दिया जाता है। यह उसी के लिए है।
राग दरबारी उपन्यास व्याख्या – 7
वह घर के कोने में लकड़ी की टूटी फूटी चौकी की तरह संकेत कर नैतिकता का मजाक उड़ाते हुए कहते हैं कि नैतिकता या चौकी ही है जो सदा एक कोने में ही पड़ी रहती है। उसका प्रयोग कभी-कभी विशेष अवसरों पर सभा सोसाइटी के अवसर पर होता है और प्रयोग करने से पूर्व उस पर बढ़िया सी चादर बिछा दी जाती है।
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उसी प्रकार आज नैतिकता को जीवन में विशेष महत्व नहीं दिया जाता वह टूटी फूटी चौकी बढ़िया दिखती है। इस पर चढ़कर लेक्चर दे दिया जाता है। यही इसकी उपयोगिता है। आवश्यकता पड़ने पर धूर्त व्यक्ति भी नैतिकता की चादर ओढ़ कर नैतिकता पर एक लंबा चौड़ा व्याख्यान दे देता है। व्याख्यान समाप्त होने के बाद वह नैतिकता की टूटी फूटी चौकी की तरह एक और कर दिया जाता है।
8. छोटे-छोटे बाल कटाए हुए कमीज पैंट पहनकर गोल्फ के मैदान में घूमने वाली नारियों के बारे में हमें भले ही लिंग संबंधी धोखा हो जाए। पर यहां प्राचीन नारी मूर्तियों को लेकर ऐसा होना संभव नहीं पूरा तत्व के विद्यार्थियों को गले से नीचे ही दो ऊंचे ऊंचे पहाड़ देखने की आदत पड़ जाती है। कुछ और नीचे जाते ही पहाड़ पटक कर दूसरी और पहुंच जाते हैं।
यह सब समझने की दिव्य दृष्टि पुरातत्व में भेजूं से भेजूं विद्यार्थी को भी मिल जाती है। फिर वह बौद्ध विहार को गोपुरम और गोपुरम को स्तूप समझने की गलती भूले ही कर बैठे नारी मूर्ति को पुरुष मूर्ति मानने की भूल नहीं कर सकता।
राग दरबारी उपन्यास व्याख्या – 8
भारतीय मूर्तिकला में लैंग्वेज बहुत स्पष्ट है आजकल फैशन के कारण भारत के नगरों में विद्यालय में पढ़ने वाली लड़कियों की वेशभूषा के साधन के शैली आदि के कारण सामान्य व्यक्ति के लिए लड़के लड़की में भेद कला कठिन हो जाता है। बालिकाएं जो युवकों की तरह छोटे-छोटे बाल कटवा कर पुरुषों की तरह कमीज पैंट पहनकर गोल के मैदान में घूमती रहती है उनको देखकर एकाएक या नहीं कहा जा सकता है।
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कि यह लड़के हैं या लड़कियां या धोखा हो सकता है कि प्राचीन नारी मूर्तियों के विषय में ऐसा कोई धोखा नहीं हो सकता। पुरातत्व के विद्यार्थियों कुर्ती के गले के नीचे नहीं ही दो रोज रूपी ऊंचे ऊंचे पहाड़ देखने की आदत पड़ जाती है जो कुछ नीचे ही एक विशेष अंदाज में दूसरी और पहुंच जाते हैं। पुरातत्व का मुख्य विद्यार्थी भी स्त्री पुरुष के भेदभाव को समझने में कोई कठिनाई का अनुभव नहीं करता इस अंतर को सहज ही समझ लेता है। वह गोपुरम और बौद्ध विहार का अंतर नहीं समझ सकता परंतु प्राचीन मूर्ति कला में स्त्री पुरुष वेद वाले समझ लेता है।

9. हिंदुस्तान में पढ़े लिखे लोग कभी-कभी एक बीमारी के शिकार हो जाते हैं। उनका नाम क्राइसिस ऑफ कॉशंस है कुछ डॉक्टर उसी में का एसेंस आफ फेथ नाम की एक दूसरी बीमारी भी बारीकी से ढूंढ निकालते हैं या बीमारी पढ़े लिखे लोगों में आमतौर से उन्हीं को सताती है जो अपने को बुद्धिजीवी कहते हैं।
जो वास्तव में बुद्धि के सहारे नहीं बल्कि आहार निद्रा भय मैथुन के सहारे जीवित रहते हैं इस बीमारी में मरीज मानसिक तनाव और निराशा बाद में लंबे लंबे वक्त वह देता है। जोर-जोर से बहस करता है। बुद्धिजीवी होने के कारण अपने को बीमार और बीमार होने के कारण अपने को बुद्धिजीवी साबित करता है।
राग दरबारी उपन्यास व्याख्या – 9
भारत में महाविद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों में पढ़े लिखे नवयुवक कभी-कभी एक रोग के शिकार हो जाते हैं ।जिसे आत्मा का संकट कहा जाता है। इसी रोग को कुछ अन्य विद्वान दूसरा नाम देते हैं क्राइसिस आप अर्थात श्रद्धा विश्वास पर आया संकट क्योंकि इस स्थिति में उसका पुराने सिद्धांतों और परंपरागत आस्था पर से विश्वास टूटने लगता है। इस बीमारी से ग्रसित अधिकतर ऐसे पढ़े-लिखे लोग होते हैं ।जो अपने को प्रबुद्ध समझते हैं और जो गलत ढंग से या समझते हैं कि वह लोग के सहारे ही जीवित रहते हैं।
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अकेली बुद्धि के सहारे नहीं दिया जा सकताजीवित रहने के लिए मूलभूत जरूरतें भोजन निंद्रा और मैथुन है। इसमें अलग अपने अस्तित्व को बनाए रखने का अनजाना भय भी है इसके बिना जीवन असंभव है या बीमारी गलत सोच का परिणाम है जीवन और गलत के प्रतीक उसमें निराशा घर कर जाती है। इसी मानसिक पीड़ा और निराशा अधिकता में वह लंबे चौड़े मगर गोल गले भाषण देने लगता है पूरे बल के साथ व्यर्थ की बहस करता है।
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