मृदा अपरदन – मृदा जब अपने पोषक जैविक तत्व, भौतिक बनावट व रासायनिक संरचना को देती है तब मृदा का विघटन एवं विनियोजन प्रारंभ होकर उनका स्थानांतरण हो जाता है। इसे ही मृदा अपरदन कहा जाता है। यह एक लंबी प्रक्रिया है जो विभिन्न मृदा बहुत ही की भौगोलिक परिस्थितियों में अनेक साधनों द्वारा संपन्न की जाती है।
मृदा अपरदन
मिट्टी के उवर्रक तलों के लिए घातक उस प्रक्रम को मृदा अपरदन कहते हैं जिसके अंतर्गत मिट्टी की ऊपरी परत वर्षा जल वायु आदि द्वारा कटकर वाहित होती है। मृदा अपरदन के घातकता का अनुपात किसी बात से पता लगाया जा सकता है कि जिस एक सेमी• परत को वर्षा जल अथवा पवन कुछ एक से लगाया जा सकता है। मृदा अपरदन मुख्यत: तीन साधनों द्वारा संपन्न होता है इन्हीं साधनों को ही मृदा अपरदन का प्रकार माना गया है। जो निम्न हैं-
- जलीय अपरदन
- वायु अपरदन
- समुद्री अपरदन

1. जलीय अपरदन
धरातल पर बहते हुए जल, नदी, झीलों, तालाबों, झरनों तथा हिमानी आदि द्वारा मृदा अपरदन होता है। जलीय अपरदन में सर्वाधिक अपरदन नदी के रूप में होता है। इसमें मिट्टियां अपनी मूल चट्टानों को छोड़कर अन्यत्र जाकर जमा होती रहती हैं तथा मृदा अपरदन प्रभावित होता रहता है। मृदा अपरदन प्रभावित होते ही जल के वेग, जल के आयतन, प्रवणता तथा बनावट आदि पर निर्भर करने लगता है। मिट्टी के निरंतर कटते रहने से उसकी वरला शक्ति नष्ट हो जाती है। जलीय अपरदन के निम्न रूप है –
- चद्दर या फलक अपरदन।
- सरिता अपरदन।
- अवनलिका कटाव।
- नदी तटीय अपरदन।
प्रवाहित जल की भांति हिमानी द्वारा भी अपरदन होता है इस प्रकार मदर प्रधान द्वारा मिट्टी के गुण में परिवर्तन हो जाता है जिससे कृषि पर प्रतिदिन असर पड़ता है।
2. वायु अपरदन
वायु द्वारा मृदा अपरदन शुष्क एवं अर्द्ध शुष्क मरुस्थल भागों में सबसे अधिक होता है। इन क्षेत्रों में वायु अपने वेग के साथ चट्टानों के ऊपरी भाग के ढीले कणों से अपरदित करके उड़ा ले जाती है। शुष्क प्रदेशों में जलवायु की विशेषता के कारण अपरदन की क्रिया सर्वाधिक सक्रिय होती है। जिससे चट्टानें ढीली हो जाती हैं तथा वायु अपरदन प्रारंभ हो जाता है।

जिन क्षेत्रों में अव्यवस्थित कृषि होती है और भूमि बार-बार जोतने से ढीली हो जाती है। वह भी वायु उड़ा ले जाती है इस प्रकार उपजाऊ मिट्टीओं का स्थानांतरण हो जाता है।खुले क्षेत्रों की मिट्टियों का स्थानांतरण हजारों किलोमीटर तक होता है। मिट्टी की परत के निरंतर पतला होते रहने से मिट्टी की गुणवत्ता में कमी आ जाती है।
3. समुद्री अपरदन
समुद्र के तटवर्ती भागों में लहरों द्वारा मिट्टी का अपरदन होता रहता है। लहरें तत्वों का अपरदन कर स्थल आकृतियों सर्जन भी करती हैं। लहरों का विस्तृत भाग में पहला उसे दलदल बन जाते हैं। साथ ही वहां धीरे-धीरे खारी मिट्टी का निर्माण हो जाता है, इस प्रकार कृषि योग्य भूमि उपस्थित होकर कृषि करके अनुप्रयुक्त हो जाती है।
मिट्टी अपरदन के कारण
मिट्टी के अपरदन के निम्नलिखित कारण हैं जो अग्रलिखित हैं (1)
- वर्षा की भिन्नता
- वनों का विनाश।
- निरन्तर कृषि।
- कृषि क्षेत्र में बदलाव।
- अनियंत्रित पशुचारण।
- कृषि हेतु प्रयुक्त गलत तरीके।

उपरोक्त कारण मृदा अपरदन के लिए सर्वाधिक उत्तरदायी हैं। वर्षा का वितरण एवं उसकी मात्र मिट्टी अपरदन को प्रभावित करती है। वन का प्रभाव जलवायु पर पड़ने से क्षेत्र वनस्पति हो जाती है जिससे मिट्टी का कटाव होने लगता है। इस प्रकार अनियंत्रित पशु पालन भी मृदा अपरदन का प्रमुख कारक है।
मृदा अपरदन से भूमि की उर्वरा शक्ति में निरन्तर कमी होती जाती है जिससे उसकी उत्पादन क्षमता प्रभावित होती है। अधिकांश क्षेत्र ऊसर भूमि में बदल जाता है। वनस्पतियों के अभाव में अन्य पारिस्थितिक कठिनाइयाँ उपस्थित होने लगती हैं।
मृदा अपरदन रोकने के उपाय
भू -संरक्षण के अन्तर्गत मिट्टियों के कटाव की रोक “भू-संरक्षण के तथा मिट्टियों को पुनः कृषि योग्य बनाने का कार्य वैज्ञानिकों के लिए एक समस्या बनी हुई हैं। यान्त्रिक पद्धति के अन्तर्गत अनेक तरीके अपनाये जाते हैं। इस विधि में पहाड़ी ढालों पर सीढ़ीनुमा खेत बनाकर, समोच्च रेखाओं के सहारे रोका जाता है। जैविक पद्धति वनों के विकास द्वारा मृदा अपरदन को रोकने का प्रयास सम्मिलित हैं। भारत के केन्द्रीय मरुस्थल शोध संस्थान के वैज्ञानिक का प्रयास इस क्षेत्र में सराहनीय माना जाता हैं। उन्होंने निम्नलिखित पद्धतियों को अपनाने पर बल दिया।

- वृक्षारोपण।
- नियन्त्रित चारागाहों का निर्माण।
- बांध निर्माण।
- सीढ़ी नुमा कृषि भूमि का निर्माण।
- समोच्च रेखाओं के अनुरूप जुताई।
- जल निकास की समुचित व्यवस्था।
- नियोजित फसल चक्र।
- ग्राम वन विकास कार्यक्रम योजना का क्रियानवयन।
उपरोक्त कारक मिट्टी अपरदन के महत्वपूर्ण कारक हैं जो मिट्टी को अपरदन या कटने से रोकते हैं।