मार्क्सवादी सिद्धांत – राज्य की प्रकृति सिद्धांत की आलोचना

मार्क्सवादी सिद्धांत के अनुसार पूँजीपति वर्ग और श्रमिक वर्ग में वर्ग संघर्ष तभी समाप्त होगा जब श्रमिक वर्ग का राजनीतिक दल क्रान्ति द्वारा राज्य सत्ता पर कब्जा करके पूँजीपति वर्ग के अस्तित्व को समाप्त कर दे। उत्पादन के साधन पूँजीपति वर्ग के हाथ से निकलकर सार्वजनिक स्वामित्व के अन्तर्गत आ जाते हैं। पूँजीवादी अर्थव्यवस्था जैसे-जैसे विकास करती है उसके संकट बढ़ते जाते हैं और एक समय आता है कि समाजवादी क्रान्ति के लिये स्थिति परिपक्व हो जाती है। वर्ग संघर्ष और चेतना का अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर विकास होता है।

मार्क्सवादी सिद्धांत

साम्यवाद जब सर्वत्र स्थापित हो जाता है और श्रमिक वर्ग का कोई शत्रु नहीं रह जाता है। तो राज्य की आवश्यकता भी नहीं रह जाती है। क्योंकि वर्ग हितों की रक्षा के लिये राज्य सत्ता आवश्यक होती है। अन्ततः राज्य विहीन व वर्ग विहीन समाज की साम्यवादी अवस्था आती है।

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मार्क्सवादी सिद्धांत

मार्क्सवादी सिद्धांत के अनुसार राज्य की प्रकृति

मार्क्सवाद के अनुसार राज्य की उत्पत्ति तभी हुई जब समाज में दो वर्ग एक सम्पत्तिशाली और दूसरा सम्पत्तिविहीन वर्ग हुए। सम्पत्तिशाली वर्ग की संख्या कम और शोषित सम्पत्तिविहीन श्रमिक वर्ग की संख्या अधिक थी। शोषक वर्ग की आवश्यकता थी अपनी सम्पत्ति की शोषित वर्ग और बाह्य समुदायों से रक्षा करना तथा सम्पत्ति को बनाये रखना इस आवश्यकता की पूर्ति के लिये समाज में कानून व्यवस्था के लिए राज्य का जन्म हुआ।

राज्य एक वर्ग के हाथों में दूसरे वर्ग के शोषण के लिये एक मशीन के अतिरिक्त कुछ नहीं है।

मार्क्स के अनुसार

वर्ग विहीन समाज राज्य को समाप्त कर देगा

क्रान्ति होने के बाद प्रथम चरण के एक संक्रमण काल तक राज्य बना रहता है जिसमें श्रमिक वर्ग के दल व साम्यवादी दल शासन का होता है। लोकप्रिय सरकार के स्थान पर शासन की शक्तियों श्रमिक वर्ग द्वारा पूँजी स्पर्धा को समाप्त करने के लिये केन्द्रित रूप से प्रयोग की जाती है। आप मार्क्सवादी सिद्धांत Hindibag पर पढ़ रहे हैं।

राज्य अन्ततः राष्ट्रीय राज्य नहीं

राज्य की प्रकृति के विषय में आधुनिक युग में यह धारणा प्रचलित हुई कि राज्य को राष्ट्रीय राज्य होना चाहिए। वर्तमान में भी यही प्रकृति पायी गयी है कि प्रत्येक देश में प्रयास किया जाता है कि देश के नागरिक में जो भी विभिन्नताएँ हो उन्हें विस्मृत करके राष्ट्रीय एकता और अखण्डता को भावनात्मक रूप से स्वीकार करें।

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मार्क्सवादी सिद्धांत की आलोचना

राज्य की प्रकृति के मार्क्सवादी सिद्धांत की आलोचना निम्नलिखित है-

  • राज्य एक नैतिक संगठन – राज्य की उत्पत्ति और अस्तित्व को वर्गीय आधार पर स्थापित करने का मार्क्सवादी विचार उचित नहीं है क्योंकि इतिहास में मार्क्स द्वारा बताई गयी सामाजिक संरचना कभी नहीं मिलती है। जिनमें केवल दो वर्ग होते हैं आर्थिक या भौतिक कारक ही एकमात्र नहीं होते हैं जो राज्य की उत्पत्ति व विकास को प्रभावित करते हैं वरन अनेक तत्वों में एक होते हैं।
  • राज्य उपयोगी और अपरिहार्य – मार्क्सवाद की इस धारणा को गलत मानते है कि राज्य शोषण और दमन का यन्त्र मात्र है। मार्क्सवाद का यह मानना सत्य है कि सत्ताधारी राज्य शक्ति का प्रयोग अपने निहित स्वार्थ (वर्गीय हित) के लिये करते हैं किन्तु यह निष्कर्ष निकालना बिल्कुल त्रुटिपूर्ण है। कि राज्य रचनात्मक परिवर्तन में बाधाशक्ति है। इस सम्बन्ध में अनगिनत उदाहरण दिये जा सकते हैं।
  • राज्य की समाप्ति नहीं – मार्क्सवाद का राज्य को अस्थायी प्रकृति का समझने की धारणा त्रुटिपूर्ण सिद्ध हुई है। जिन देशों में समाजवाद स्थापित हुआ वहाँ आधी शताब्दी बीतने से पहले स्वय समाजवादी विचारधारा के ही पैर उखड़ गये।
  • राष्ट्रवाद एक उत्प्रेरक शक्ति – मार्क्सवाद राष्ट्रीयता को राज्य का स्थायी गुण नहीं मानता है। राष्ट्रवाद की भावना आधुनिक राज्य की सशक्त भावना है जो नागरिकों के छोटे-मोटे आपसी भेद भूलकर एक मजबूत राष्ट्रीयता की भावना जितनी सशक्त होती है।
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