मानवाधिकार का व्यक्ति के व्यक्तित्व विकास तथा समाजपयोगी कार्यों में महत्वपूर्ण स्थान होता है। अधिकार, सामाजिक जीवन की अनिवार्य आवश्यकता है। अधिकारों के बिना मानव जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती है। राज्य द्वारा व्यक्ति के व्यक्तित्व, विकास हेतु अनेक सुविधाएं दी जाती हैं। राज्य के द्वारा व्यक्ति को प्रदान की जाने वाली बाहरी सुविधाएं ही अधिकार कहलाती हैं।
मानवाधिकार
मानव अधिकार ऐसे अधिकार है जो व्यक्ति से केवल मानव होने के कारण प्राप्त होने चाहिए। मानव अधिकारों का विचार एवं नागरिक अधिकार की अपेक्षा मानव अधिकारों का विचार क्षेत्र नागरिक अधिकारों की तुलना में अधिक व्यापक है। अधिक व्यापक मानव अधिकार वाले समाज की अवधारणा अधिक व्यापक है।
सामान्यतया जिन अधिकारों को हम मानव अधिकारों के रूप में जानते या समझते हैं, यह कुछ समय पूर्व ही उत्पन्न हुए हैं, अथवा हम यह भी कह सकते हैं कि मानवाधिकारों का जो स्वरूप इस समय हमारे सामने है, वह अधिक पुराना नहीं है बल्कि अभी कुछ दिन पूर्व की ही उत्पत्ति है। इन मानवाधिकारों का वर्तमान स्वरूप सर्वप्रथम द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अंतर्राष्ट्रीय राजपत्रों तथा विभिन्न अधिवेशनों द्वारा अंतर्राष्ट्रीय पटल का दृष्टिगोचर हुआ।
मानवाधिकार की संकल्पना
मानव अधिकार की संख्या में निरंतर विकास होता रहा है। इसीलिए इन अधिकारों की पूर्ण या अंतिम सूची नहीं दी जा सकती है।
- जीवन का अधिकार – किसी निर्दोषी को शारीरिक रूप से नहीं सताया जा सकता और ना ही उसके प्राण लिए जा सकते हैं। उसके स्वास्थ्य एवं प्राणों की रक्षा की जाएगी। जीने का अधिकार प्राकृतिक अधिकार है, सुरक्षा का अधिकार नागरिक अधिकार है।
- स्वतंत्रता का अधिकार – लोकतंत्र में यह नागरिक अधिकार है। स्वतंत्रता के अधिकार का आशय यह है कि व्यक्ति को विचार व अभिव्यक्ति, धर्म, संघ बनाने, सभा करने तथा स्वतंत्र विचरण का अधिकार रखना प्राप्त है।
- संपत्ति का अधिकार – व्यक्ति द्वारा अवैध तरीके से प्राप्त भौतिक वस्तुओं पर उसका अधिकार होगा तथा राज्य द्वारा उसके संपत्ति संबंधी अधिकार की रक्षा की जाएगी। राज्य संपत्ति का अनिवार्य अधिग्रहण कर सकता है।
- राजनीतिक अधिकार – व्यक्ति को राजनीतिक अधिकार प्राप्त है व्यक्ति एक नागरिक के रूप में अपने समुदाय देश, राष्ट्र के सार्वजनिक जीवन में भाग लेने, सरकार चुनने, राजनीतिक सत्ता पाने का अधिकार है।
- उचित विधिक प्रक्रिया का अधिकार – इसमें विधि के शासन, विधि के समक्ष समता, समान विधिक संरक्षण के अधिकार आते हैं। यह अधिकार नागरिक एवं मानव अधिकार दोनों वर्गों में आते हैं। इस हेतु कानून स्पष्ट व सर्वविदित हो किसी व्यक्ति को अनावश्यक गिरफ्तार ना किया जा सके। उचित अभियोग चलाए बिना दंडित ना किया जा सके।
- सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक अधिकार – यह अधिकार सामाजिक जागरूकता की देन है। इसमें शिक्षा, रोजगार, सामाजिक सुरक्षा, विश्राम एवं स्वास्थ्य के उपयुक्त स्तर का अधिकार शामिल है।
मानवाधिकार का इतिहास
भारत में मानवाधिकारों का इतिहास बहुत पुराना नहीं है। मानव अधिकारों के इतिहास का तिथि वार विवरण निम्न प्रकार से है।
- सन् 1829 मैं राजा राम मोहन राय द्वारा चलाए जा रहे हिंदू सुधार आंदोलन के बाद भारत में ब्रिटिश राज्य के दौरान सती प्रथा को पूरी तरह समाप्त कर दिया गया।
- 1929 में बच्चों को शादी से बचाने के लिए बाल विवाह निरोधक कानून पास हुआ।
- सन् 1947 में भारतीय जनता को ब्रिटिश राज्य की गुलामी से आजादी मिली।
- सन् 1950 में भारतीय गणराज्य का संविधान लागू हुआ।
- सन 1955 में भारतीय परिवार कानून में सुधार, हिंदू महिलाओं को और ज्यादा अधिकार मिले।
- सन् 1973 में केशवानंद भारतीवाद में उच्चतम न्यायालय ने निर्धारित किया कि संविधान संशोधन द्वारा संविधान के मूलभूत ढांचे में परिवर्तन नहीं किया जा सकता।
- सन् 1989 में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति एक्ट 1989 पास हुआ।
- सन् 1992 में संविधान में संशोधन के जरिए पंचायत राज्य की स्थापना, जिसमें महिलाओं के लिए एक तिहाई आरक्षण लागू हुआ। अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति के लिए भी समान रूप से आरक्षण लागू हुआ।
- सन् 1993 में प्रोटेक्शन ऑफ़ ह्यूमन राइट एक्ट के तहत राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग की स्थापना हुई।
- सन् 2001 में खाद्य अधिकारों को लागू करने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने अतिरिक्त आदेश पास किया।
- सन् 2001 में सूचना का अधिकार कानून पास किया।
- सन् 2005 रोजगार की समस्या हल करने के लिए राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी एक्ट पास हुआ।
- सन् 2005 में भारतीय पुलिस के कमजोर मानव अधिकारों के लिए सुप्रीम कोर्ट ने पुलिस सुधार के निर्देश दिए।





मानवाधिकार की कानूनी स्थिति
मानवाधिकारों की संकल्पना का प्रादुर्भाव 18 वीं सदी में हुआ और इसका विकास 19वीं 20वीं सदी से होता हुआ आज भी जारी है। परंतु मानवाधिकारों की कानूनी स्थिति को लेकर आज भी कोई विश्वव्यापी बाध्यकारी व्यवस्था नहीं है। कानूनी स्थिति के आधार पर मानवाधिकारों का विश्लेषण किया जाए तो स्पष्ट होता है कि विभिन्न राष्ट्रों में मानवाधिकार के कानूनी स्थिति भिन्न भिन्न है।
वस्तुतः मानवाधिकारों की कानूनी स्थिति की दृष्टि से संयुक्त राष्ट्र संघ ने महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया है तथा महिला अधिकार रंगभेद उन्मूलन, मानव उत्पीड़न, बाल श्रम इत्यादि गंभीर मसलों पर समय-समय पर कन्वेंशन पारित करके मानवाधिकारों को कानूनी दृष्टि से सुदृढ़ करने का प्रयास किया है।
आज संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रयासों से अनेक राष्ट्रों में मानवाधिकारों को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रुप से कानूनी आधार उपलब्ध कराया गया है। फ्रांस में तो 18वीं सदी में ही क्रांति के उपरांत ही मानवाधिकारों की घोषणा कर दी गई थी तो वहीं अमेरिका में भी क्रांति के उपरांत ही बिल ऑफ राइट्स पारित करके मानवाधिकारों को कानूनी संरक्षण प्रदान किया गया।
इसी प्रकार भारत में भी संविधान के अंतर्गत अनुच्छेद 14 से 32 तक मौलिक अधिकारों के अधीन कई महत्वपूर्ण मानवाधिकारों को कानूनी संरक्षण दिया गया है।
आज संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रयासों से मानवाधिकारों को अंतरराष्ट्रीय कानूनों में भी महत्वपूर्ण स्थान मिल रहा है। अब नजरबंदी, महिला उत्पीड़न, बालश्रम, नरसंहार, रंगभेद इत्यादि विषय अंतरराष्ट्रीय कानूनों का महत्वपूर्ण भाग बन चुके हैं। इसी कारण आज प्रत्येक राष्ट्र के लिए यह नैतिक व राजनीतिक दृष्टि से अनिवार्य हो गया है कि वह ऐसे कोई कानून ना बनाएं जिससे मानवाधिकारों संबंधी अंतरराष्ट्रीय कानूनों का उल्लंघन होता हो।
अंततः निष्कर्ष दया यह कहा जा सकता है कि मानवाधिकारों की कानूनी स्थिति भले ही आज भी एकरूपता प्राप्त ना कर पाई हो परंतु उत्तरोत्तर यह सुदृढ़ होती जा रही है और इसमें संयुक्त राष्ट्र चार्टर, घोषणापत्र, कन्वेंशंस और अंतरराष्ट्रीय कानूनों का महत्वपूर्ण योगदान है।