मरुस्थलीकरण – ऐसी भूमि जहाँ पर किसी भी प्रकार की वनस्पति नहीं पायी जाती है और न ही पाये जाने की सम्भावना होती है ऐसे क्षेत्र को मरुस्थल कहते हैं। दूसरे शब्दों में सामान्य तथा शुष्क क्षेत्रों जहाँ वनस्पति व वर्षा का सदैव अभाव रहता है तथा वर्षा 100°C वार्षिक से कम होती है। उस भाग को मरुस्थल कहते हैं। मरुस्थल उष्ण तथा शीत दोनों प्रकार के हो सकते हैं। मरुस्थल बनने की इस प्रक्रिया को मरुस्थलीयकरण कहते हैं। जिसके अन्तर्गत कोई शुष्क क्षेत्र धीरे-धीरे मरुस्थल में बदल जाता है।

मरुस्थलीकरण
मरुस्थलीकरण शुष्क पारिस्थितकीय तंत्रों के अवनयन की एक प्रक्रिया है, जिसके अन्तर्गत मरुस्थलों में जैविक जीवन के सभी स्वरूप अल्पतम हो जाते हैं और आर्थिक सम्भावनायें क्षीण हो जाती है। परिभाषा से उस प्रक्रिया का आभास होता है जिसमें शुष्क प्रदेश की पारिस्थितिकी का विनाश हो जाता है तथा कोई भी जैवकीय तत्व नहीं बच पाता है इस प्रकार अन्त में आर्थिक सम्भावनायें क्षीण हो जाती हैं। मरुस्थलीयकरण प्रक्रिया के मुख्य दो रूप होते हैं-
- मरुस्थल विस्तार शुष्क मरुस्थलीय देशों में हवाओं द्वारा रेत के कण मरुस्थल की बाहरी सीमाओं पर विक्षेपित होते रहते हैं और इस तरह मरुस्थलों का विस्तार बाहर की ओर होता रहता है। भारत में राजस्थान के थारमरुस्थल का विस्तार उत्तर प्रदेश के पश्चिमी भागों की ओर इसका उदाहरण है।
- मरुस्थल में परिवर्तन मृदा अपरदन अत्यधिक सिंचाई, रसायनिक उर्वरकों का रसायनिक – दवाओं इत्यादि के अधिक प्रयोग से उपजाऊ भूमि मरुस्थलों के रूप में परिवर्तित है। कभी-कभी नदियाँ बाढ़ के समय उपजाऊ मिट्टी के विस्तृत क्षेत्र पर बालू के कणों का निक्षेपण कर देती हैं जिससे उपजाऊ क्षेत्र मरुस्थल के रूप में परिवर्तित होने लगता है।
मरुस्थलीकरण के प्रभाव
मरुस्थलीयकरण का प्रभाव राजस्थान के पर्यावरणीय जनजीवन को बुरी तरह प्रभावित कर रहा है जो सम्पूर्ण राष्ट्र के लिए चुनौती के साथ में है। मरुस्थलीयकरण से निम्न समस्यायें उत्पन्न हो रही हैं जो निम्न हैं –
- पवन अपवाहन से शैलों का तीव्र अपरदन एवं दूर तक विक्षेपण।
- प्रबल वायु वेग से रेत के अपवाहन से उर्वरा भूमि का विनाश ।
- भूमि जल स्तर में तीव्र गत इसे गिरावट।
- पेयजल का अभाव।
- मरुस्थल विस्तार से वनों का तीव्र गति से विनाश ।
- क्षारीय तथा बंजर भूमि में निरन्तर वृद्धि।
- चारागाह के क्षेत्रों का निरन्तर संकुचन।
- निरन्तर अकाल की सम्भावना।
- सिंचाई की समस्या ।
- अकाल की समस्या ।

मरुस्थलीकरण के कारण
मरुस्थलीयकरण के अनेक कारण होते हैं जिनमें से कुछ प्रमुख इस प्रकार है जो अग्रलिखित हैं-
- वन विनाश – मानव अपनी भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए वनों को निरन्तर काटता चला जा रहा है। जिससे वन क्षेत्र दिनों-दिन कम होते जा रहे हैं। राजस्थान में वन विनाश से वन क्षेत्र सिकुड़ता जा रहा है। इसी प्रकार अरावली पर्वत शृंखला भी वन विनाश के फलस्वरूप वीरान हो गयी है। यहाँ से जलावन लकड़ी को प्राप्त करने हेतु वनों का विनाश तीव्रगति से हो रहा है। N.R.S.A (National reprot sensiny Agency) के अनुसार राजस्थान में वन विनाश खतरनाक स्थिति में पहुँच चुका है।
- अत्यधिक पशुचारण – शुष्क एवं अर्द्ध शुष्क भागों में अत्यधिक पशुचारण आर्थिक क्रियाकलाप है ऐसे भागों में अत्यधिक पशुचारण से वनस्पति का आवरण घट जाता है तथा मृदा अपरदन बढ़ जाता है। जिससे मृदा उर्वरता समाप्त हो जाती है और मरुस्थलीयरण की क्रिया आगे बढ़ने लगती है।
- अत्यधिक सिंचाई – अत्यधिक सिंचाई से भूमि से जलाप्लावित हो जाती है और जल वाष्पीकरण की क्रिया होती है। तब निचले भागों से लवण ऊपर आ जाता है जिससे भूमि बंजर हो जाती है। भारत में पेयजल एवं तराई क्षेत्रों से अत्यधिक सिंचाई के कारण भूमि बंजर होने की ओर उन्मुख है।
- रासायनिक उर्वरकों और दवाओं का अधिकाधिक प्रयोग – मिट्टी से अधिकाधिक कृषि प्राप्त करने के लिए इनमें विविध प्रकार के रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग किया जाता है। जिससे मिट्टी के नये सर्किल के गुण समाप्त होने लगते हैं उपजाऊ भूमि बंजर भूमि में बदलने लगती है तथा मरुस्थलीयकरण प्रारम्भ हो जाता है।

मरुस्थलीकरण नियंत्रण के उपाय
मरुस्थलीकरण के नियंत्रण के निम्न उपाय हैं-
- मरुस्थल के सीमावर्ती क्षेत्रों में वनों का विकास
- वांछित सिंचाई – उपजाऊ भूमि क्षेत्रों में जितनी आवश्यक हो उतनी सिंचाई करनी चाहिए इससे जल प्लावन की समस्या उत्पन्न नहीं होगी और लवण अंश के ऊपर आने की संभावना कम होगी।
- न्यून पशुचारण – मरुस्थलीय बागों में न्यूड पशु चारण को प्रोत्साहित करना चाहिए। इससे मृदा अपरदन कम हो जाएगा तथा वनस्पतियों का आवरण बने रहने से अपरदन नहीं होगा।
- प्राकृतिक उवर्रक का उपयोग
- पानी की समस्या – मरुस्थलीय प्रदेशों में जलावरण के कारण मरुस्थलीय क्षेत्र बढ़ता जा रहा है इसलिए ऐसे भागों में नहरों का जाल बिछा दिया जाए तो वही मरुस्थल लहलहाते खेतों में परिवर्तित हो जाएंगे। उदाहरण के लिए इंदिरा गांधी नहर परियोजना जो कि राजस्थान के लिए वरदान साबित हुई है।
इस प्रकार उपर्युक्त कारक मरुस्थलीकरण नियंत्रण के महत्वपूर्ण एवं कारगर उपाय हैं तथा देश के भविष्य के लिए एक प्रज्ज्वलित दीपक के समान है।

भारत में मरुस्थलीकरण विस्तार
मरुस्थलीय क्षेत्रों को छोड़कर भारत की क्षारीय मिट्टी एक अन्तः स्तरीय मिट्टी है जो उत्तरी बिहार, उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, तमिलनाडु, महाराष्ट्र राज्यों के शुष्क प्रदेशों में लगभग 68 हजार वर्गकिमी० क्षेत्रफल में विस्तृत है। कम वर्षा, उच्च तापक्रम और अपर्याप्त जल अभाव के कारण या ऊसर मिट्टी का विकास हुआ।
पंजाब के 12 लाख हेक्टेयर क्षेत्रफल में विस्तृत ‘कल्लर मिट्टी’ उसी वर्ग की है। उस मिट्टी को कललरी, रेह ऊसर आथैर कहते हैं। उस मिट्टी का विकास विभिन्न घुलनशील नमक, क्लोराइड कैल्शियम के सल्फेट, मैग्नीशियम तथा सोडियम एवं सल्फेट का अंश अधिक है। यहाँ पर 75°C औसत वार्षिक वर्षा होती है। यहाँ के पानी में प्रति एकड़ फुट में 0.1 से लेकर 0.5 तक लवण विद्यमान हैं। उस पानी से सिंचाई होने का कारण फिरोजपुर, गुड़गांव, रोहतक तथा हिसार जलों मे भूमि का पर्याप्त क्षेत्र शनैः शनैः मरुस्थलीयकरण की ओर बढ़ रहा है।
उत्तर प्रदेश में मरुस्थलीकरण विस्तार
सन् 1938 में राज्य की कुछ रेह भूमि का क्षेत्रफल 2.2 मिलियन एकड़ अनुमानित किया गाय है। लेकिन 957 में यह क्षेत्रफल 3.9 मिलियन एकड़ था। राज्य में लवण समस्या की ओर 1876 में ध्यान गया जबकि रेह आयोग की स्थापना की गयीं । मरुस्थलीयकरण की सम्भावना राज्य के अलीगढ़, मैनपुरी, कानपुर, फतेहपुर, उन्नाव, एटा, रायबरेली एवं लखनऊ जलों मे विशेषकर मिलती है। उत्तर प्रदेश में ऊसर सुधार समित 1940 में बनी। राज्य की मिट्टी मे सोडियम कार्बोनेट और NaHCO3 0.1-0.4 तथा 3-4 तक की गहराई तक मिलता है।
