भ्रमरगीत परंपरा ने हिंदी साहित्य में एक विशेष स्थान प्राप्त किया है। इस काव्य की अनेक विशेषताएँ हैं। गीतिकाव्य की प्रेरणा इन कवियों को मुरलीधर कृष्ण से प्राप्त हो चुकी। भक्तिकाल के कवियों ने अपने बार में कुछ नहीं लिखा। भगवान कृष्ण की लीलाओं का वर्णन करने में वे इतने मग्न हुए कि महाकवि बनने की इच्छा ही उन्हें नहीं रही। कृष्ण का वर्णन उन्होंने लोकरक्षक या महाभारत का सूत्रधार आदि रूप में नहीं किया बल्कि उनका मन कृष्ण की मनोहारी लीलाओं में अधिक रमा है। जैसे – बाललीला, गोवर्धन लीला, दानलीला मानलीला, भ्रमर गीत आदि। इन सब में लोकप्रिय भ्रमरगीत है।
भ्रमरगीत परंपरा
भ्रमरगीत परंपरा लोगों को आज भी प्रिय है। इसका प्रमाण है कि सूरदास से प्रारंभ होकर हिन्दी काव्य में आज तक यह परंपरा शुरू है। परंपरा की आधारशीला रखने का श्रेय महात्मा सुरदासजी को हैं, जिन्होंने सूरसागर में भ्रमर गीत लिखकर समस्त ब्रजकवि रचयिताओं को ऐसा मनमोहक विषय दिया कि कृष्ण जीवन पर लेसनी उठाते हुए कोई भी कवि इस संदर्भ पर कुछ न कुछ रचना करने का लोभसवान कर सका। संसार में प्रेम के क्षेत्र में स्वार्थी पुष्पों और कलियों का रस चूसते हुए घूमने वाला भ्रमर इन दोनों में साम्य दिखाई देता है।
लोभी, स्वार्थी पुरुष एक स्त्री को छोड़कर दूसरी से प्यार करने लगता है, उसी प्रकार भ्रमर भी इस फूल से उस फूल पर मुक्तता से घूमता रहता है। विरहिणी नायिकाओं ने भ्रमर को प्रतीक मानकर अपनी विरह अवस्था को प्रकट करने का प्रयत्न किया है। भावुक कवियों ने भी भ्रमर को एक प्रतीक मानकर उसके माध्यम से नारी का पुरुष के प्रति उपालंभ, व्यंग्य स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है। भ्रमरगीतकारों में अधिकतर कवि सगुण भगवान की उपासना करने वाले थे। इन कवियों ने ज्ञान की अपेक्षा प्रेम और भक्ति को महत्व दिया है।


भ्रमरगीत का अर्थ
भ्रमरगीत दो शब्दों भ्रमर और गीत के योग से बना हुआ है। भ्रमर काले रंग का उडनेवाला जीव होता है। दूसरा शब्द गीत इसका अर्थ है गाना। इस प्रकार भ्रमरगीत का शाब्दिक अर्थ है भंवरे का गीत। साहित्य में भ्रमर गीत यह शब्द विशिष्ट अर्थ में आया है। इस शब्द का संबंध कृष्ण तथा उसके मित्र ज्ञानी उद्धव से है। कृष्ण मथुरा चले गये। इधर गोपियाँ विरह में तडपने लगीं। इन गोपियों को समझाने के लिए कृष्ण उद्धव को ब्रज भेजते हैं। उद्धव के सामने गोपियों ने भ्रमर को संबोधित कर अपने भाव प्रकट किये। इसी कारण इस प्रसंग को भ्रमरगीत नाम से पुकारा जाता है।
भ्रमरगीत का सांकेतिक अर्थ
भ्रमरगीत का सांकेतिक अर्थ इस प्रकार है-
- भ्रमरगीत में मुख्य चरित्र उद्धव हैं। उद्धव का रंग काला है और वे पीला वस्त्र पहनते हैं। भ्रमर भी काले रंग का होता है और उस पर पीले रंग के चिह्नन होते हैं। इस प्रकार उद्धव का भ्रमर से साम्य मिलता है। यहाँ उधव भ्रमर के प्रतीक रूप में आये हैं।
- कृष्ण और भ्रमर में भी साम्य दिखाई देता है। कृष्ण का वर्ण भ्रमर की तरह काला (श्याम) है। कृष्ण जिस प्रकार पीतांबर धारण करते हैं उसी प्रकार भ्रमर के शरीर पर भी पीले रंग के चिह्नन होते हैं। भ्रमर गुनगुनाकर सभी का मन अपनी और आकर्षित करता है, वैसे ही कृष्ण मी मुरली की धुन से सभी को मोहित करते हैं। भ्रमर केवल एक फूल का रसग्रहण न करते हुए एक फूल से दूसरे फूल पर जा बैठता है। ठीक ऐसे ही कृष्ण भी ब्रज की गोपियों को त्यागकर मथुरा चले गये और वहाँ कुब्जा से प्यार करने लगे। इस प्रकार भ्रमर और कृष्ण दोनों भी रसिक हैं। कृष्ण का यह रूप उसे भ्रमर के प्रतीकार्य रूप में प्रस्तुत करता है।
- तीसरे अर्थ की दृष्टि से भ्रमर छ: पदों का होता है, भ्रमरगीत छंद में छ: पंक्तियों की रचना की जाती है। यह एक मात्रिक छंद है। इसमें प्रथम बार वार चरणों में २४-२४ मात्रायें होती हैं। अंतिम दो चरणों में १०-१० मात्रायें होती हैं। इसे लिखने वाले सभी कवियों ने इस छंद का प्रयोग नहीं किया है।
भ्रमरगीत के लक्षण
काव्य शास्त्र की दृष्टि से भ्रमर गीत का संबंध वियोग शृंगार से है। जिन लक्षणों से युक्त रचना को हिंदी में भ्रमरगीत कहा जाता है वे है-
- गोपियों को सांत्वना देने के लिए उधव का ब्रज आना।
- भ्रमर का आगमन – उसको लक्ष्य कर गोपियों का अपनी विरह व्यथा व्यक्त करना कृष्ण के प्रति उपालंभ प्रकट करना।
- उद्धव गोपी संवाद – निर्गुण का खंडन और सगुण का मंडन।
- उद्धव का निरुत्तर होना – ज्ञान और योग पर प्रेम और भक्ति की विजय।
भ्रमरगीत परंपरा का विकास
भ्रमरगीत का यह विषय भक्तिकाल से लेकर आधुनिक काल तक लोकप्रिय रहा है। परिस्थिति के अनुसार इस परंपरा में अनेक परिवर्तन भी आये हैं। आजकल भ्रमरगीतों के माध्यम से सामाजिक, आर्थिक चित्रण, आदर्शों की स्थापना, समाज कल्याण, विश्व प्रेम आदि अनेक बातों को चित्रित किया जा रहा है। भ्रमर गीत यह एक सरस एवं सुंदर काव्य प्रकार है। सभी कालों में कवियों ने इस विषय को अपनाया है।
भ्रमरगीत परंपरा ने केवल कवियों को ही आकर्षित नहीं किया बल्कि साधारण जनता को भी यह विषय प्रिय रहा है। साहित्य के साथ-साथ लोगों के द्वारा जनता में भी इस विषय का प्रसार हुआ कवि या साहित्यकार अलंकारिक भाषा के द्वारा गोपी-विरह वर्णन प्रस्तुत करते हैं। तो लोकगीतकार सहज एवं सरल भावाभिव्यक्ति के द्ववारा जनता को प्रभावित करते हैं। भ्रमर गीत की यह धारा भक्तिकाल से लेकर आज तक दिखाई देती हैं। इसे हम तीन काल में विभाजित कर सकते हैं-
- भक्तिकाल
- रीतिकाल
- आधुनिक काल


भ्रमरगीत परंपरा के कवि
काल | भ्रमरगीत परंपरा के कवि |
---|---|
भक्तिकाल | 1. सूरदास 2. परमानंददास 3. नंददास 4. वृंदावनदास 5. तुलसीदास |
रीतिकाल | 1. मतिराम 2. देव 3. धनानंद 4. पद्माकर 5. सेनापति |
आधुनिक काल | 1. भारतेंदु 2. प्रेमधन 3. सत्यनारायण कविरत्न 4. हरिआंध 5. रत्नाकर उद्धव 6. मैथिलीशरण गुप्त |
भक्तिकाल
सगुण भक्तिकाव्य के कृष्ण भक्त कवियों ने भ्रमर गीत पर लिखा है। इन कवियों में सूरदास, परमानंददास, नंददास, वृंदावनदास तथा रामभक्त तुलसीदास आदि प्रमुख है।
सूरदास
हिन्दी साहित्य में भ्रमर गीत लिखने वालों में सूरदासजी का नाम सर्वप्रथम हैं। सूरदासजी ने श्रीमद्भागवत के दशम स्कंध का आधार लेकर भ्रमरगीत की रचना की। उनका भ्रमरगीत साहित्य में अत्यंत महत्वपूर्ण कान प्राप्त कर चुका है। सूरदासजी ने तीन भ्रमरगीतों की रचना की हैं-
- प्रथम भ्रमरगीत में ज्ञान और वैराज्य की चर्चा की हो। कवि ने इस भ्रमरगीत की रचना दोहा व चौपाई छंद में की है।
- दूसरा भ्रमरगति केवल एक पद में मिलता है। इसमें भ्रमर आगमन के बारे में कुछ नहीं लिखा गया है। इसमें गोपियों को उपबंध का उपदेश, गोपियों का उपाभ देना, उद्धव का मथुरा वापस आकर कृष्ण के सामने गोपियों का विरह वर्णन कथन करना आदि बातों का वर्णन एक ही पद में मिलता है।
- तीसरा भ्रमरगीत विशाल बन गया है। इसमें पुष्टि संप्रदाय के दार्शनिक विचारों को सुंदर अभिव्यक्ति हुई है। इसके साथ साथ सगुण को निर्गुण पर विजय भी दिखलाई गयी है। यह भ्रमर गीत अधिक सुंदर तथा सरस बन गया है। इसमें भ्रमर के माध्यम से गोपियाँ उद्धव को उपालंभ देती है। सूरदासजी का यह भ्रमरगीत अत्यंत आ गया है।
परमानंददास
परमानंददासजी ने गोपी उद्धव संवाद और भँवरगीत संबंधी पद लिखे हैं। उन्हें इस परंपरा में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त हो चुका है। परमानंददासजी ने निर्गुण का खण्डन और सगुण का मण्डन किया है। उनकी अभिव्यक्ति उत्कृष्ट वन गयी है। इनकी गोपियाँ प्रेम में पागल तथा भोली भाली हैं। इनके भ्रमरगीत में नंददास तथा सूरदास के जैसा विस्तृत वर्णन नहीं हुआ है।
नंददास
सूरदासजी के बाद नंददासजी का भँवरगत हिन्दी साहित्य में दूसरी महत्वपूर्ण रचना है। इस रचना के लिए नंददासजी ने भागवत का ही आधार लिया है । इसमें केवल ७५ पदों की रचना की गई है। उन्होंने ४६ वें अध्याय की कथा को छोड़ दिया है। उनका भँवर गोपी उद्धव संवाद से प्रारंभ होता है। नंददासजी की गोपियाँ सूरदासजी की गोपियों को अपेक्षा अधिक तर्कशील और चतुर दिखाई देती है।
वृंदावनदास
भक्तिकालीन कवियों में वृंदावनदास सुर और नंद की परिपाटी के ऐसे कवि है, जिन्होंने भ्रमरगीत परंपरा को विकासोन्मुख किया। उन्होंने दो प्रकार के भ्रमरगीतों की रचना की है-
- प्रगति सूर की तरह एक ही पद में लिखा गया है।
- दूसरे गीत में यशोदा का मातृस्नेह तथा गोपियों का विरह वर्णन चित्रित किया गया है। यह भ्रमरगीत प्रथम की अपेक्षा अधिक व्यापक हो चुका है ।
तुलसीदास
गोस्वामी तुलसीदास जी ने गोपियों के सात्विक उपालंभ का चित्रण किया है ये रामभक्त कवि है। उन्होंने कृष्ण गीतावली और कवितावली भ्रमरगीत का प्रयोग किया है। इसमें तुलसीदासजी की मर्यादावादी दृष्टि दिखाई देती हैं। तुलसी की गोपियाँ अत्यंत नम्र, शील तथा भक्तिभावों से युक्त हैं। उधव के साथ विवाद नहीं करतीं। उनमें तर्क करने की प्रवृति नहीं है। सहज प्रेम, विनय और भक्ति से वे ज्ञानी उद्धव को पराजित करती है। तुलसीदास जी के इनके प्रेम की अलोकिकता का सुंदर चित्रण किया है।
इन कवियों के अतिरिक्त हरिराय, मलूकदास, मुकुंददास, रसखान आदि की चर्चा की जा सकती हैं। रहीम ने वरवै छंद में मुक्तक रूप से भ्रमरगीत की रचना की।
रीतिकाल
रीतिकाल में भ्रमरगीत प्रसंग पर फुटकर रचना करनेवाले कवियों में मतिराम, देव धनानंद, पद्माकर सेनापति आदि प्रमुख कवि हैं।
मतिराम
मतिरामजी ने स्वतंत्र रूप से भ्रमरगीत की रचना नहीं की गोपियों का विरह – वर्णन करते-करते भ्रमरगीत की अभिव्यक्ति हुई हैं। मतिराम की गोपियाँ स्पष्ट तथा चंचल है । मतिराम ने कभी परंपरा के आधार पर वर्णन किया है तो कभी परंपरा को छोडकर मालिक चित्रण किया है। ये गोपियाँ समुदया तथा बुद्धिधमती भी हैं। इनकी गोपियों में उद्धव के प्रति आदर विशेष रूप से दिखाई देता है।
देव
रीतिकाल के भ्रमरगीत रचनाकारों में देव ने अन्य कवियों की अपेक्षा अधिक लिया है। देव की भी स्वतंत्र रचना नहीं है, फुटकल पदों में इस प्रसंग पर लिखा है। गोपियों का विरह सरस तथा मार्मिक जन गया है। भक्ति की अपेक्षा प्रेम का चित्रण अधिक है। अलंकारिक भाषा का प्रभाव इस पर स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। कुब्ना के प्रति कृष्ण का प्यार उन्हें अच्छा नहीं लगता। गोपियों पर रीतिकाल की स्पष्ट छाप दिखाई देती है। भ्रमरगीत परंपरा के विकास में ये पद महत्वपूर्ण माने जाते है।
धनानंद
अन्य कवियों की तरह धनानंद ने भी निर्गुण और सगुण का वाद दिखलाकर सगुण की विजय दिलाई है। इनकी गोपियों ने कृष्ण के प्रति अपना एकनिष्ठ प्रेम व्यक्त किया है। इसमें भ्रमर की स्वार्थी वृति स्पष्ट हो गई हैं। धनानंद ने अपने भ्रमरगीत की रचना मुक्तक रूप में की है। उनकी रचनाओं में भ्रमरगीत संबंधी पद एकत्र नहीं मिलते बलि बिखरे हुए दिखाई देते हैं।
पद्माकर
भ्रमरगीत परंपरा में इनका नाम विशेष महत्वपूर्ण है। पद्माकर ने भी फुटकल पदों के रूप में ही लिखा है। इनकी गोपियों में कृष्ण के प्रति अत्यंत तन्मयता दिखाई देती है। प्रेम की भावुकता तथा कुब्ना के प्रति व्यंग्य इन पदों में सुंदरता से चित्रित हुआ है।
सेनापति
इस प्रसंग पर सेनापति ने एक-दो छंदों में लिखा है। श्लेश अलंकार के माध्यम से कवि ने लिखा है। इनकी गोपियाँ बुद्धिमानी हैं। कृष्ण और ब्रह्म को दृष्टि में रखकर इनकी गोपियाँ प्रेम का महत्व स्पष्ट करती हैं। यहाँ कृष्ण को महत्वपूर्ण स्थान मिला है।
इन कवियों के साथ – साथ स्थान, हरिराय, भिखारीदास, आलम, ठाकुर आदि की भी चर्चा है। भक्तिकाल से चली आई हुई यह परंपरा रीतिकाल में भी बनी रही लेकिन रीतिकाल में भ्रमरगीत परंपरा का यह विषय घिसे-मोटे रूप में रहा। कथा की और भी विशेष ध्यान नहीं दिया गया। केवल मधुप, प्रमर आदि कहकर काम चलाया जाता था।


आधुनिक काल
आधुनिक काल में इस पपरा में बहुत प्रगति हुई। परिस्थिति के अनुसार इसमें परिवर्तन हुआ। आसपास की घटनाओं का इस पर प्रभाव पडा। भ्रमरगीत की रसमयता को और इन कवियों ने ध्यान दिया। भारतेंदु बाबू हरिश्चंद्र ने इस विषय पर लगभग ५० स्फुट पदों की रचना की थी, जिनमें सूरदासजी का स्पष्ट अनुसरण मिलता है। आधुनिक काल के भ्रमरगीतों में फुटकल एवं स्वतंत्र दोनों भ्रमरगीत रचे गये।
भारतेंदु
भारतेन्दु ने फुटकल पदों में भ्रमरगीत की रचना की है। इसमें सूर के भ्रमरगीत का थोडा थोडा अनुकरण मिलता है। सूर की तरह भारतेन्दु के भ्रमरगीत में उद्धव को ब्रज भेजना, वहाँ उसका सत्कार करना आदि बाते हैं। उद्धव का ज्ञानमयी उपदेश सुनकर गोपियाँ क्रोधित हो गयीं। भारतेन्दु ने इसी प्रसंग में ज्ञान और भक्ति के बारेमें कहा है।
प्रेमधन
भारतेन्दु के बाद इस परंपरा में प्रेमधन का नाम लिया जाता है। उनके भ्रमरगीत पर भी सूर का प्रभाव देखने मिलता है। उद्धव का ज्ञान और योग का उपदेश इसमें भी है। यहाँ गोपियाँ अपने सरल, सहज तर्कों से उद्धव को पराजित करती है।
सत्यनारायण कविरत्न
आधुनिक काल में भ्रमरगीत प्रसंग पर सत्यनारायणजी ने स्वतंत्र रूप से रचना की है। स्वतंत्र रचना करनेवालों में वे प्रथम कवि हैं। अपने भ्रमरदूत नामक ग्रंथ में उन्होंने परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तन किया है। इसमें भारत की निराशाजनक परिस्थिति का चित्रण किया है। इसमें माता यशोदा का विरह – वर्णन प्रमुख भ्रमर को ह । माता यशोदा में भारतमाता के दर्शन होते हैं। यशोदा माता दूत बनाकर कृष्ण के पास भेजती है। इसमें देश की सामाजिक राजनीतिक अधोगति चित्रित की गयी है।
हरिआंध
इसमें हरिऔधजी ने समाज कल्याण और विश्वप्रेम का चित्रण किया हैं । यहाँ कृष्ण तथा भ्रमरगीत का नया पक्ष प्रस्तुत किया गया है। इसमें राधा उद्धव के सामने अपने व्यक्तिक, लोक कल्याणकारी, अध्यात्मिक प्रेम को प्रस्तुत किया है । ‘राधा वियोगावस्था में भी आदर्शों को नहीं भूलती। जब वह उड़ते हुए भ्रमर को देखती हैं, तो नंदनंदन के रूपसाम्य के कारण प्रियतम की स्मृति उनके हृदय में आ जाती हूं। ९
रत्नाकर
उद्धव शतक रत्नाकर जी की महत्वपूर्ण रचना है। इस रचना में प्राचीन और नवीन, यथार्थ और आदर्श आदि का सुंदर समन्वय किया गया है। इसमें विरह से राधा कृष्ण, गोपियाँ आदि सभी पीडित कृष्ण के दर्शन के लिए व्याकुल हैं। इसके माध्यम से मातृ-भूमि की भक्ति को स्पष्ट किया है।
मैथिलीशरण गुप्त
गुप्तजी ने द्वापर में भ्रमरगीत परंपरा के बारेमें लिखा है। इन्होंने अपने काव्य के माध्यम से कुब्बा, यशोधरा, उर्मिला, ककेयी आदि उपेक्षित स्त्रियों को प्रधानता दी है। इसमें कुब्ना के प्रति सहृदयता तथा सहानुभूति दिखाई देती है। उनको गोपियाँ शील और विनय से मुक्त दिखाई देती है।
भ्रमरगीत परंपरा के ग्रंथ
रचना | रचयिता |
1. भ्रमर गीत | सूरदास |
2. भंवरगीत | नन्ददास |
3. भ्रमरदूत | सत्य नारायण कविरत्न |
4. प्रियप्रवास | अयोध्या सिंह उपाध्याय ’हरिऔध’ |
5. उद्धवशतक | जगन्नाथ दास ’रत्नाकर’ |