भारतीय सामाजिक व्यवस्था वह स्थिति या अवस्था हैं जिसमें सामाजिक संरचना का निर्माण करने वाले विभिन्न अंग या इकाइयां सांस्कृतिक व्यवस्था के अंतर्गत निर्धारित पास्परिक प्रकार्यात्मक संबंध के आधार पर सम्बध्द समग्रता की ऐसी सन्तुलित स्थिति उत्पन्न करते हैं जिससे मानवीय आवश्यकताओं की पूर्ति तथा सामाजिक लक्ष्यों की प्राप्ति संभव होती है।
भारतीय सामाजिक व्यवस्था
भारतीय सामाजिक व्यवस्था के संरचनात्मक आधारों को प्रभावपूर्ण बनाने के लिए यहां व्यवहार के जिन सिद्धान्तों को विकसित किया गया, उन वैचारिक आधारों को निम्नांकित रूप से समझा जा सकता है—
- पंच ऋण तथा यज्ञ
- पुरुषार्थ
- कर्म तथा पुनर्जन्म
- संस्कार
- धर्म
1. पंच ऋण तथा यज्ञ
हमारे समाज में व्यक्तिवादिता के दोषों को दूर करने के लिए यह बताया गया है कि हममें से प्रत्येक व्यक्ति अनेक चर और अचर तत्वों का ऋणी है। इस आधार पर व्यक्ति के ऊपर पांच प्रकार के ऋण होते E-(1) देवऋण (2) ऋषि-ऋण (3) पितृ-ऋण, (4) अतिथि-ऋण, और (5) जीव-ऋण सर्वप्रथम व्यक्ति , की अहंवादी विचारधारा पर अंकुश रखने के लिए यह बताया गया है कि वह देवताओं का ऋणी है, क्योंकि जल, भूमि, वायु और अन्य बहुमूल्य पदार्थों के द्वारा देवताओं अथवा अलौकिक शक्तियों ने ही हमें जन्म दिया है।
हम देवताओं के इसलिए भी ऋणी है कि वे अनेक प्रकार के प्राकृतिक पदार्थों की सुविधा देकर हमारा पालन-पोषण करते हैं। व्यक्ति पर दूसरा ऋण, ऋषि ऋण है, क्योंकि ऋषियों की साधना, ज्ञान और तप के कारण ही व्यक्ति ज्ञान प्राप्त करता है। इसी ज्ञान की सहायता से वह अपने व्यक्तित्व का विकास करता है। तीसरा पितृ ऋण है। पितृ-ऋण का अर्थ माता और पिता दोनों के ऋण से है। आप भारतीय सामाजिक व्यवस्था hindibag पर पढ़ रहे हैं।

माता-पिता हमें जन्म तो देते ही हैं, साथ ही बिना किसी स्वार्थ के हमारे पालन-पोषण, शिक्षा और समाजीकरण की भी व्यवस्था करते हैं। असहाय अवस्था में व्यक्ति की सहायता करने के लिए चौथे ऋण अर्थात् अतिथि ऋण का आदर्श सामने रखा गया था। इस ऋण के महत्व को स्पष्ट करने के लिए प्रत्येक व्यक्ति को उपनयन संस्कार (जनेऊ धारण करना) के समय भिक्षा मांगने का काम पूरा करना होता था। आप भारतीय सामाजिक व्यवस्था hindibag पर पढ़ रहे हैं।
यह इसका सांकेतिक महत्व था। अन्त में, जीव-ॠण के द्वारा यह भी स्पष्ट किया गया कि हमारा जीवन हमसे पहले ही उत्पन्न हो जाने वाली अनेक वनस्पतियों तथा छोटे-छोटे जीवों का भी ऋणी है, क्योंकि इन्ही की सहायता से हम जीवित रहते हैं और शक्ति का संचय करते हैं। कुछ विद्वानों ने ‘ऋण-त्रय’ के रूप में ऋणों की संख्या तीन भी बताई है, लेकिन व्यक्ति के कर्तव्यों की व्यापकता को देखते हुए यह संख्या पांच ही उचित प्रतीत होती है। आप भारतीय सामाजिक व्यवस्था hindibag पर पढ़ रहे हैं।
व्यक्ति के लिए यह आवश्यक है कि यह अपने आपको इन ऋणों से मुक्त करे भारतीय संस्कृति में इन ऋणों से मुक्त होने के प्रयत्न को ही ‘यज्ञ’ कहा गया है। दूसरे शब्दों में, यह कहा जा सकता है कि बिना किसी इश के केवल कर्तव्य भावना से प्रेरित होकर किया जाने वाला कार्य ही यज्ञ है। इस प्रकार, ये यज्ञ भी पांच प्रकार के होते हैं-
- देव-यज्ञ
- ऋषि-यज्ञ
- पितृ-यज्ञ
- अतिथि-यज्ञ
- जीव-यज्ञ
देव-यज्ञ का तात्पर्य उन कार्यों से हैं, जिनको करके हम देवताओं के ऋण से उऋण होते हैं। इस आधार पर ईश्वर की उपासना, आराधना और सब कुछ उसी का समझना व्यक्ति का प्रमुख कर्तव्य है। यह यज्ञ व्यक्ति को अहंकार से बचाता है। ऋषि-यज्ञ के रूप में हमारा प्रमुख कार्य ज्ञान में वृद्धि करना, उसे सुरक्षित रखना तथा अपने ज्ञान से दूसरे व्यक्ति को लाभ पहुंचाना है। माता-पिता के ऋण से उऋण होने के लिए पितृ-यज्ञ का आदर्श सामने रखा गया।
इसके अनुसार, माता-पिता की सेवा करना और मृत्यु के बाद उनके श्राद्ध तथा तर्पण की व्यवस्था करना व्यक्ति का कर्तव्य है, जिससे उनका सम्मान तथा स्मृति सदैव बनी रहे। साथ ही पितृ यज्ञ का अर्थ यह भी है कि जिस प्रकार माता-पिता ने हमें जन्म दिया, उसी प्रकार हम भी विवाह के द्वारा सन्तान को जन्म देकर उसके पालन-पोषण का भार अपने ऊपर लें।

अतिथि-यज्ञ के अनुसार, व्यक्ति को समाज के प्रति अपने कर्तव्यों को पूरा करना और प्रत्येक परिस्थिति में सामान्य कल्याण को महत्व देना मनुष्य का प्रमुख कर्तव्य है । अन्त में, जीव-यज्ञ के अन्तर्गत वनस्पति की रक्षा करना, पशुओं को भोजन देना और छोटे-छोटे जीवों के प्रति उदारता बनाए रखना व्यक्ति के प्रमुख कर्तव्य माने गए हैं। इस प्रकार इन सभी यज्ञों का उद्देश्य व्यक्तिगत स्वार्थ के . प्रभाव को कम करना तथा समूह कल्याण में वृद्धि करना रहा है। आप भारतीय सामाजिक व्यवस्था hindibag पर पढ़ रहे हैं।
2. पुरुषार्थ
शाब्दिक रूप से पुरुषार्थ का अर्थ ‘उद्योग करना’ अथवा परिश्रम करना है, लेकिन भारतीय संस्कृति में पुरुषार्थ को एक ऐसी व्यवस्था के रूप में स्पष्ट किया गया, जो व्यवस्थित रूप से व्यक्ति को उसके सभी प्रमुख कर्तव्यों का बोध करा सके। पुरुषार्थ के अन्तर्गत व्यक्ति के सभी कर्तव्यों को चार प्रमुख भागों में वांट दिया गया। इस प्रकार पुरुषार्थ चार माने गए हैं—
- धर्म
- अर्थ
- काम
- मोक्ष
इन सभी पुरुषार्थों में ‘मोक्ष’ व्यक्ति का सबसे प्रमुख तथा अन्तिम लक्ष्य है और इसी लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए व्यक्ति को धर्म, अर्थ और काम से सम्बन्धित दायित्वों को पूरा करना आवश्यक है। व्यावहारिक रूप से ये सभी पुरुषार्थ एक-दूसरे से सम्बन्धित हैं, क्योंकि एक के बिना दूसरे को प्राप्त नहीं किया जा सकता। आप भारतीय सामाजिक व्यवस्था hindibag पर पढ़ रहे हैं।
धर्म का अर्थ ईश्वर की सत्ता में विकास करना यज्ञों को पूरा करना और विभिन्न परिस्थितियों में विभिन्न व्यक्तियों के प्रति अपने कर्तव्यों को पूरा करना है अर्थ का तात्पर्य है, मेहनत और ईमानदारी से आर्थिक क्रियाओं को करना अथवा जीविका उपार्जन के साधनों को प्राप्त करने का प्रयत्न करना। आर्थिक क्रियाओं को करने से ही परिवार का भरण-पोषण सम्भव है और इसी के द्वारा व्यक्ति अतिथियों तथा साधारण जीवों के प्रति अपने कर्तव्यों को पूरा कर सकता है।

काम का तात्पर्य व्यभिचार से नहीं है, बल्कि एक धार्मिक और सामाजिक दायित्व के रूप में सन्तान को जन्म देने से है। व्यक्ति यदि धर्म और अर्थ में ही लगा रहे, ‘काम’ से बिल्कुल अलग रहे, तब पितृ ऋण से उऋण नहीं हो सकता। इसलिए काम को भी व्यक्ति का एक प्रमुख कर्तव्य माना गया। इस प्रकार स्पष्ट होता है कि सभी क्षेत्रों में व्यक्ति के कर्तव्यों और उसके लक्ष्यों के बीच सन्तुलन बनाए रखने में पुरुषार्थ की व्यवस्था ने महत्वपूर्ण योगदान दिया है। आप भारतीय सामाजिक व्यवस्था hindibag पर पढ़ रहे हैं।
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समुदाय एवं समिति | 1. समुदाय 2. समिति 3. समुदाय तथा समिति में अन्तर |
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3. कर्म तथा पुनर्जन्म
भारतीय सामाजिक व्यवस्था को प्रभावपूर्ण बनाने में कर्म तथा पुनर्जन्म के सिद्धान्त का विशेष योगदान रहा है। आज हम धर्म के नाम पर जिस भाग्यवादिता और अन्ध-विश्वासों को प्रोत्साहन दे रहे हैं, वह कभी-भी हमारे समाज में ‘कर्म’ का आधार नहीं रहा। वास्तव में, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के लिए ईमानदारी से प्रयत्न करना ही कर्म है। एक बात यह भी है कि यदि हम इन कर्तव्यों की पूर्ति किसी स्वार्थ की भावना से करते हैं, तब वह ‘कर्म’ नहीं रह जाता। कर्म का सम्बन्ध निष्काम कर्म से है। आप भारतीय सामाजिक व्यवस्था hindibag पर पढ़ रहे हैं।
गीता में श्रीकृष्ण ने कहा है कि ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।’ अर्थात् हमारा अधिकार केवल कर्म करने में है, इसके फल की इच्छा कभी मत करो। वास्तव में, यही सच्चा कर्मवाद है। कर्म की इस निष्काम धारणा ने हमारे समाज में प्रत्येक व्यक्ति को समूह के प्रति अपने कर्तव्यों को पूरा करने का प्रोत्साहन दिया तथा मानसिक रूप से व्यक्ति के जीवन को संगठित बनाए रखा। कर्म के सिद्धान्त के कारण ही हमारे समाज में कभी संघर्षों की समस्या उत्पन्न नहीं हुई तथा सभी व्यक्ति अपनी स्थिति में सन्तुष्ट रहते हुए अपने-अपने कर्तव्यों को पूरा करते रहे।
कर्म की धारणा को अधिक प्रभावपूर्ण बनाने के लिए जन्म और पुनर्जन्म के चक्र में व्यक्ति को विश्वास दिलाया गया। पुनर्जन्म का सिद्धान्त बताता है कि पिछले जन्म में हमने जैसे कर्म किए हैं, उनके अनुसार ही वर्तमान जीवन में हमें सुख अथवा दुःख मिल रहे हैं और इस जन्म में हम जैसे कर्म करेंगे, उसी के अनुसार आगामी जीवन में हमें सफलता अथवा असफलता मिलेगी। इस जीवन में किए गए कर्मों का कुछ फल तो हमें इसी जीवन में मिल जाता है और शेष फल आगामी जीवन में प्राप्त होता है।

भारतीय सामाजिक व्यवस्था में पुनर्जन्म की इस धारणा ने इतना अधिक कार्य किया है कि अन्य बड़े-बड़े प्रयत्न भी इसकी तुलना में इतने अधिक सफल नहीं हो सके हैं। पुनर्जन्म के सिद्धान्त के कारण प्रत्येक व्यक्ति अपनी स्थिति के प्रति सन्तुष्ट रहा। प्रत्येक व्यक्ति, चाहे वह नीचे से नीचे कार्य में लगा हो, इस भावना से सदैव सन्तोष का अनुभव करता है कि पिछले जीवन में उसने जैसे कर्म किए हैं, उसी के अनुसार उसे वर्तमान स्थिति प्राप्त हुई है। इस प्रकार बिना किसी संघर्ष और प्रतियोगिता के भारतीय सामाजिक व्यवस्था इतने लम्बे समय तक प्रभावपूर्ण बनी रही।
4. संस्कार
संसार के सभी समाजों में व्यक्ति के जीवन का परिष्कार करने के लिए कुछ संस्कारों को पूरा करना आवश्यक माना जाता है। हिन्दू धर्मग्रन्थों के अनुसार संस्कार का तात्पर्य किसी कर्मकाण्ड या अनुष्ठान को पूरा करना नहीं है, बल्कि यह एक ऐसी धार्मिक विधि है, जिसके द्वारा व्यक्ति को एक विशेष स्थिति में ऐसे कार्य करने का आदेश दिया जाता है, जिनका सम्बन्ध प्रशिक्षण, वैयक्तिक परिष्कार तथा सौन्दर्य बोध से होता है। आप भारतीय सामाजिक व्यवस्था hindibag पर पढ़ रहे हैं।
संस्कार प्रतीकात्मक रूप से व्यक्ति का समाजीकरण करने के साधन हैं। मृत्यु से सम्बन्धित संस्कारों को छोड़कर दूसरे सभी संस्कार हर्ष और आनन्द को अभिव्यक्त करने के साथ ही स्नेह और अनुराग को महत्व देते हैं। इनका उद्देश्य अशुभ शक्तियों से व्यक्ति की रक्षा करना, इच्छित वस्तु की प्राप्ति के लिए प्रार्थना, व्यक्ति में नैतिक गुणों को विकसित करना तथा व्यक्ति को उन कार्यों का प्रशिक्षण देना है, जिन्हें सामाजिक मूल्यों के अनुसार आवश्यक समझा जाता है।
हिन्दू जीवन पद्धति में संस्कारों की संख्या के बारे में धर्मशास्त्र एकमत नहीं हैं। इसके बाद भी व्यास ने संस्कारों की संख्या 16 बताई है, जिसे अधिक मान्यता दी जाती है। यह 16 संस्कार हैं-
- गर्भाधान
- पुंसवन
- सीमन्तोन्नयन
- जातकर्म
- नामकरण
- निष्क्रमण
- अन्न प्राशन
- चूड़ा-करण
- कर्णवेध
- विद्यारम्भ
- उपनयन
- वेदारम्भ
- केशान्त अथवा गोदान
- समावर्तन
- विवाह
- अन्त्येष्टि
इनमें पहले तीन संस्कार बच्चे के जन्म से पूर्व, पुत्र जन्म की कामना तथा माता को अशुभ शक्तियों के प्रभाव से बचाने के लिए किए जाते हैं। जातकर्म से लेकर कर्ण-वेध तक के संस्कार बाल्यावस्था से सम्बन्धित हैं। विद्यारम्भ से लेकर समावर्तन तक सभी संस्कारों का सम्बन्ध बच्चे के शैक्षणिक जीवन से है वाल्यावस्था से सम्बन्धित संस्कारों में उपनयन संस्कार का भारतीय सामाजिक व्यवस्था में विशेष महत्व है। अनेक प्रमाणों से स्पष्ट होता है कि भारत में वैदिक काल से ही इस संस्कार का विशेष महत्व रहा है।
सामान्य शब्दों में उपनयन को ही ‘यज्ञोपवीत’ अथवा ‘जनेऊ धारण संस्कार’ भी कहा जाता है। यह वह संस्कार है जिसमें गुरू द्वारा एक निर्धारित अवधि के बालक को ब्रह्मचर्य के नियमों और नैतिक कर्तव्यों का उपदेश देकर उसे गायत्री मन्त्र से दीक्षित किया जाता है। इसके साथ ही एक पवित्र स्नान के बाद बालक के शरीर को हल्के पीले रंग के वस्त्र से ढकने के अतिरिक्त उसके कन्धे से कमर तक रेशम, सूत या ऊन की एक डोरी बांध दी जाती है जो संयम के अतिरिक्त दुष्प्रभावों से बच्चे की रक्षा का प्रतीक है। आप भारतीय सामाजिक व्यवस्था hindibag पर पढ़ रहे हैं।
इस उपवीत या डोरी के तीन मोटे धागे बालक को ऋषियों, देवताओं और माता-पिता का ऋणी होने का बोध कराते हैं। स्मृतिकार यह मानते हैं कि गायत्री मन्त्र की दीक्षा मिलने से ही बच्चे का दूसरा जन्म आरम्भ होता है। इसी कारण उपनयन संस्कार के बाद ही किसी व्यक्ति को ‘द्विज’ कहा जाता है। इस संस्कार को पूरा करने की एक क्रिया है लेकिन इसका उद्देश्य बच्चे के जीवन को अनुशासित और त्यागपूर्ण बनाना है। आप भारतीय सामाजिक व्यवस्था hindibag पर पढ़ रहे हैं।
इस संस्कार का एक अन्य उद्देश्य बच्चे को सभी तरह के भौतिक सुखों को छोड़कर अपना सम्पूर्ण समय विद्या के अध्ययन तथा विभिन्न कर्तव्यों को पूरा करने में व्यतीत करने की प्रेरणा देना है। गुरू, माता-पिता और देवताओं के प्रति निष्ठा का भाव पैदा करने में भी इस संस्कार का विशेष योगदान रहा है समावर्तन संस्कार यह स्पष्ट करता है कि किशोर की शिक्षा पूर्ण हो चुकी है तथा अब वह विवाह करने के योग्य हो गया है। विवाह संस्कार का अपना विशेष महत्व है, क्योंकि इसी के द्वारा व्यक्ति गृहस्थ जीवन में प्रवेश करता है। भारतीय समाज को एक आध्यात्मिक रूप देने के लिए अन्त्येष्टि को भी एक संस्कार का रूप दिया गया।

हिन्दू परम्परा में संस्कारों के सभी विधान इस तरह निर्धारित किए गए, जिससे व्यक्ति और समाज के बीच एक आदर्श सन्तुलन स्थापित हो सके। प्रत्येक संस्कार एक विशेष स्थिति में व्यक्ति को उसके कर्तव्यों का बोध कराता है तथा जीवन के धार्मिक लक्ष्यों को स्पष्ट करता है। इनका सम्बन्ध विभिन्न दशाओं में व्यक्ति की जैविकीय समस्याओं का समाधान करना तथा समाज की प्रत्याशाओं के अनुसार उसके व्यक्तित्व का विकास करना रहा है। संस्कारों को सामाजिक शिक्षा के सर्वोत्तम साधन के रूप में देखा गया। इन्हीं के द्वारा व्यक्ति को अपनी सांस्कृतिक विशेषताओं से परिचित कराया जाता है।
सभी संस्कार एक विशेष प्रस्थिति में व्यक्ति को अपने कर्तव्यों को समझने और आत्म-चिन्तन करने का अवसर प्रदान करते हैं इसके बाद भी यह ध्यान रखना आवश्यक है कि सामान्य व्यक्ति 16 संस्कारों में से साधारणतया नामकरण, अन्नप्राशन, उपनयन, विवाह तथा अन्त्येष्टि संस्कारों को ही जानते हैं। शेष संस्कार या तो प्रचलन में नहीं हैं अथवा इनका प्रचलन कुछ सम्भ्रान्त व्यक्तियों तक ही सीमित रहा। विवाह और अन्त्येष्टि जैसे महत्वपूर्ण संस्कार भी आज परम्परागत ढंग से पूरे नहीं किए जाते, बल्कि इन्हें केवल एक औपचारिकता के रूप में ही देखा जाने लगा है।
5. धर्म
परम्परागत भारतीय सामाजिक व्यवस्था में धर्म वह सबसे महत्वपूर्ण अवधारणा है, जिसमें समाज के सभी संरचनात्मक और वैचारिक आधारों का समन्वय देखने को मिलता है। भारतीय परम्परा में धर्म का अर्थ किसी अलौकिक विश्वास से नहीं है, बल्कि धर्म जीवन की एक विधि है। इसका तात्पर्य है कि प्रत्येक परिस्थिति में व्यक्ति का जो कर्तव्य है, उसी को पूरा करना व्यक्ति का धर्म माना गया। धर्म को एक ओर सांसारिक सुख, समृद्धि और सफलता का आधार माना गया, जबकि दूसरी ओर, इसे मोक्ष प्राप्ति के साधन के रूप में देखा गया। आप भारतीय सामाजिक व्यवस्था hindibag पर पढ़ रहे हैं।
इस प्रकार, हिन्दू दर्शन के अनुसार धर्म में सांसारिक तथा अलौकिक दोनों पक्षों का समावेश है। यह एक व्यावहारिक धर्म है, जिसका उद्देश्य व्यक्ति, समूह और समाज के कर्तव्यों को स्पष्ट करना, आत्म सन्तुष्टि से सम्बन्धित क्रियाएं करना, समूह-कल्याण में वृद्धि करना तथा विभिन्न परिस्थितियों से व्यक्ति को अनुकूलन करने की क्षमता प्रदान करना है। धर्म की अवधारणा बहुत व्यापक है, लेकिन इसे सरल रूप से स्पष्ट करने के लिए धर्म के तीन रूपों को स्पष्ट किया गया। इन्हें हम सामान्य धर्म, विशिष्ट धर्म तथा आपद्धर्म कहते हैं।
सामान्य धर्म को मानव धर्म’ भी कहा जाता है। यह वह धर्म है, जिसका पालन प्रत्येक वर्ण, आयु. लिंग, वर्ग के व्यक्ति के लिए करना आवश्यक है। इसके अनुसार प्रत्येक व्यक्ति का यह कर्तव्य है कि वह अपनी इन्द्रियों पर संयम रखे, क्षमाशील हो, काम और लोभ पर नियन्त्रण बनाए रखे. पवित्रता का आचरण करे, धैर्य को बनाए रखे, विवेकपूर्ण व्यवहार करे विद्या अर्जित करे, सत्य का आचरण करे तथा क्रोध से दूर रहे। आप भारतीय सामाजिक व्यवस्था hindibag पर पढ़ रहे हैं।
विशिष्ट धर्म इस बात पर बल देता है कि सभी व्यक्तियों की परिस्थितियों, सामाजिक प्रस्थिति, और स्वभाव में भिन्नता होने के कारण उनके कर्तव्य भी एक-दूसरे के पूरी तरह समान नहीं हो सकते। आयु उदाहरण के लिए, स्त्री का धर्म पुरुष से भिन्न है; गुरु और शिष्य का धर्म एक-दूसरे से भिन्न होता है; सैनिक का धर्म एक तथा राजा का धर्म दूसरा है; पिता, पुत्र अथवा मित्र के रूप में व्यक्ति का धर्म एक-दूसरे से भिन्न होता है। आप भारतीय सामाजिक व्यवस्था hindibag पर पढ़ रहे हैं।

विभिन्न वर्ण के लोगों के कर्तव्य एक-दूसरे से अलग हैं तथा प्रत्येक आश्रम के अन्तर्गत व्यक्ति से कुछ भिन्न कर्तव्यों को पूरा करने की आशा की जाती है। इस आधार पर विशिष्ट धर्म को स्वधर्म कहा गया। विशिष्ट धर्म का उद्देश्य यह स्पष्ट करना रहा कि प्रत्येक व्यक्ति के लिए अपनी सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक तथा राजनीतिक प्रस्थिति के अनुसार अपने लिए निर्धारित कर्तव्यों को पूरा करना ही उसका धर्म है। आप भारतीय सामाजिक व्यवस्था hindibag पर पढ़ रहे हैं।
आपद्धर्म इस बात को और अधिक स्पष्ट रूप से अभिव्यक्त करता है कि हिन्दू धर्म जीवन की एक विधि है। धर्म का यह रूप स्पष्ट करता है कि आपत्तिकाल में सामान्य और विशिष्ट धर्म में कुछ परिवर्तन कर लेने से भी व्यक्ति को उसका दोष नहीं लगता। प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में रोग, शोक, विपत्ति और धर्म-संकट की परिस्थितियां अक्सर पैदा होती रहती हैं। इन दशाओं में व्यक्ति का कर्तव्य भी बदल सकता है। आप भारतीय सामाजिक व्यवस्था hindibag पर पढ़ रहे हैं।
उदाहरण के लिए, सत्य का आचरण करना सामान्य धर्म है, लेकिन यदि विपत्ति के समय हम किसी के जीवन की रक्षा करने के लिए अंसत्य का आचरण कर लें, तो यह भी व्यक्ति के धर्म का ही एक विशेष रूप होगा। इसके बाद भी आपद्धर्म को अस्थायी धर्म ही माना गया।
धर्म के रूप में व्यक्ति को अपने कर्तव्यों के प्रति जागरूक बनाने के लिए धर्मशास्त्रों द्वारा पाप, पुण्य, स्वर्ग, नरक तथा मोक्ष जैसी अवधारणाओं को विकसित किया गया। यह स्वीकार किया गया कि धर्म के आचरण द्वारा ही व्यक्ति और समाज का विकास किया जा सकता है तथा सामाजिक नियन्त्रण की व्यवस्था को प्रभावपूर्ण बनाए रखा जा सकता है। सामान्य कल्याण में वृद्धि करने तथा संस्कृति की रक्षा के लिए भी धर्म को विशेष महत्व दिया गया।