भारतीय समाज में विविधता में एकता – वर्तमान भारतीय समाज की एक प्रमुख विशेषता विभिन्नता में एकता का होना है। भारतीय समाज एक लम्बे समय से विभिन्न प्रजातियों, धर्मो और संस्कृतियों वाले समूहों का संगम स्थल रहा है। अपनी सांस्कृतिक सहिष्णुता के कारण भारतीय समाज में विभिन्न संस्कृतियों का मिश्रण हुआ, लेकिन इसके बाद भी यहां की मौलिक संस्कृति के तत्व स्थायी बने रहे। यही कारण है कि संसार की अनेक दूसरी सभ्यताएं और संस्कृतियां समय के प्रवाह में धीरे-धीरे लुप्त होती गयीं, वहीं भारतीय संस्कृति अनेक उतारा के बाद भी अपने मौलिक स्वरूप को बनाये हुए है।
भारतीय समाज में विविधता
डॉ. दुबे ने विस्तार से यह स्पष्ट किया कि भारतीय समाज में विविधता के मुख्य श्रोत कौन से है। इसे स्पष्ट करने के लिए उन्होंने भारतीय समाज से सम्बन्धित प्रजातीय, धार्मिक भाषायी, सांस्कृतिक, जातीय एवं जनसंख्या सम्बन्धी भिन्नताओं की विवेचना की।
- प्रजातीय मिन्नताएं — डॉ. दुबे के अनुसार भारत में प्राचीन काल से ही विभिन्न प्रजातियों के लोगों का आगमन होता रहा। इसके फलस्वरूप आज भारत की जनसंख्या में 6 प्रजाती तत्वों का समावेश है। यह है— 1. नीग्रिटी 2. प्रोटी- ऑस्ट्रेलॉयड 3. संगीयड 4. सागरीय 5. चौड़े सिर वाली प्रजाति, तथा 6. नॉर्डिक इसके बाद भी भारत की अधिकांश जनसंख्या में इन विभिन्न प्रजातियों की विशेषताओं का मिला-जुला रूप देखने को मिलता है। यही कारण है कि समाज को विभिन ‘प्रजातियों के संग्रहालय’ जैसे शब्द से भी सम्बोधित कर दिया जाता है।
- धार्मिक भिन्नताएं — भारत में 8 मुख्य धर्मों वाले समुदाय साथ-साथ हते हैं। यह हैं—– हिन्दू, मुसलमान, ईसाई, सिक्ख, बौद्ध, जैन, पारसी तथा यहूदी। सन् 2011 के आंकड़ों ॐ अनुसार लगभग 79 प्रतिशत जनसंख्या हिन्दू धर्म को मानने वाली है, लेकिन हिन्दू अनेक सम्प्रदायों पंथों और मत-मतान्तरों में बंटा होने के कारण इसके अनुयायियों के धार्मिक विश्वासों में बहुत विविधता देखने को मिलती है। हिन्दू धर्म में जाति विभाजन का प्रचलन रहने के कारण यह विविधता और अधिक बढ़ा है। इस्लाम, ईसाई तथा सिक्ख धर्मों के अनुयायी भी विभिन्न सम्प्रदायों में विभाजित हैं। इसके फलस्वरूप भारत में धार्मिक एकीकरण की कोई स्पष्ट प्रक्रिया दिखायी नहीं देती।
- भाषायी भिन्नताएं — भाषा के दृष्टिकोण से भी भारत एक विभिन्नतायुक्त समाज है। यहां किसी एक भाषा को राष्ट्र भाषा के रूप में मान्यता प्राप्त नहीं है। संविधान के आठवें अनुच्छेद में आज 22 भाषाओं को मान्यता प्राप्त है। यह हैं – असमिया, गुजराती, बंगला, हिन्दी, कन्नड़, कश्मीरी, मलयालय, मराठी, उड़िया, पंजाबी, संस्कृत, सिन्धी, तमिल, तेलुगु, उर्दू, कोंकणी, मणिपुरी, नेपाली, डोगरी, मैथिली, बोडो तथा संथाली इनके अतिरिक्त सरकारी कामकाज के लिए अंग्रेजी को भी प्रमुख स्थान मिला हुआ है। हिन्दी भाषा भी बहुत-सी क्षेत्रीय भाषाओं में विभाजित है। इसी तरह तमिल, तेलुगु तथा कुछ दूसरी भाषाएं भी विभिन्न रूपों में प्रचलित हैं। यदि बोलचाल की भाषा की ओर देखा जाय तो यहां 500 से भी अधिक बोलियों का प्रचलन है। समय-समय पर भाषा के आधार पर होने वाले आन्दोलनों के कारण भाषावाद की समस्या से राष्ट्रीय एकता के सामने चुनौती पैदा हो जाती है।
- सांस्कृतिक भिन्नताएं – डॉ. दुबे के अनुसार एक लम्बे समय तक सम्पूर्ण भारतीय समाज बहुत-से साम्राज्यों और छोटे राज्यों में विभाजित रहने के कारण, एक-दूसरे से भिन्न अनेक सांस्कृतिक क्षेत्रों में विभाजित हो गया। विभिन्न क्षेत्रों की जलवायु और परिस्थिति सम्बन्धी विशेषताओं में भिन्नता होने के कारण भी विभिन्न समूहों की परम्पराओं, खान-पान, कला, वेश-भूषा, व्यवहार प्रतिमानों, रहन-सहन के तरीकों और सांस्कृतिक मूल्यों के क्षेत्र में भिन्नता बढ़ने लगी। नगरीय और ग्रामीण क्षेत्रों की संस्कृति भी एक-दूसरे से अलग हो गयी। इसके फलस्वरूप विभिन्न क्षेत्रों के सामाजिक संगठन और सामाजिक संस्थाओं में अन्तर बढ़ने लगा ।
- संजातीय भिन्नताएं – संजातीयता एक ऐसी भावना है जो समान संस्कृति, धर्म, वेश-भूषा, भाषा, क्षेत्र अथवा जीवन विधि के आधार पर एक मानव समूह को अपनी पृथक् सांस्कृतिक पहचान बनाये रखने की प्रेरणा देती है। एक संजातीय समूह अपने आपको दूसरे समूहों से पृथक् महसूस करने के साथ ही उसकी तुलना में अपने आपको श्रेष्ठ दिखाने का प्रयत्न करता है। भारतीय समाज बहुत से संजातीय समूहों में बंटा हुआ है। एक ओर बहुसंख्यक धर्म और भाषा के लोग अधिक अधिकार पाने का प्रयत्न करते हैं तो दूसरी ओर, समाज का अल्पसंख्यक भाग अपने लिए पृथक् कानून और विशेष अधिकारों की मांग करने लगता है। जाति के आधार पर भी हमारे समाज में उच्च जातियों, पिछड़ी जातियों, अनुसूचित जातियों और जनजातियों के बीच संजातीयता की प्रवृत्ति देखने को मिलती है। सिद्धान्तहीन राजनीति से भी संजातीयता की प्रवृत्ति में वृद्धि हो रही है।
- जनसंख्या सम्बन्धी भिन्नताएं – सन् 2011 की जनगणना के अनुसार भारत की जनसंख्या 121 करोड़ थी। यह जनसंख्या कुल देश के 28 राज्यों और 7 केन्द्र शासित प्रदेशों में फैली हुई है। विभिन्न राज्यों में जनसंख्या के घनत्व, जन्म और मृत्यु-दर तथा साक्षरता के स्तर में भारी भिन्नता है। केरल में जहां लगभग 90.92 प्रतिशत लोग साक्षर हैं, वहीं बिहार में साक्षरता का प्रतिशत 48 से भी कम है। कुछ राज्य आर्थिक विकास में बहुत आगे हैं तो कुछ बहुत पिछड़े हुए।
उपर्युक्त भिन्नताओं के बाद भी भारतीय समाज में सात्मीकरण और एकीकरण की प्रक्रिया सदैव चलती रही है। डॉ. दुवे ने अनेक उदाहरणों के द्वारा यह स्पष्ट किया कि किस प्रकार विभिन्न संस्कृतियों और धर्मों वाले आन्तरिक और बाहरी समुदायों की विचारधाराओं से भारत में एक मिश्रित संस्कृति विकसित हुई।
1. परम्परागत भारतीय सामाजिक व्यवस्था की आधारभूत विशेषताएं | 1. भारतीय सामाजिक व्यवस्था के आधार |
2. भारतीय समाज का क्षेत्रपरक दृष्टिकोण | 1. भारतीय समाज में विविधता में एकता |
3. भारत का जनांकिकीय परिवेश | 1. भारतीय जनसंख्या के लक्षण 2. जनांकिकी 3. राष्ट्रीय जनसंख्या नीति |
5. भारत में विवाह : हिन्दु, मुस्लिम, ईसाई तथा जनजातीय | 1. विवाह के उद्देश्य व नियम 2. हिन्दू विवाह 3. मुस्लिम विवाह 4. हिंदू व मुस्लिम विवाह में अंतर 5. ईसाई विवाह 6. जनजातीय विवाह |
6. भारत में परिवार तथा परिवर्तन की प्रवृत्तियां | 1. भारतीय संयुक्त परिवार 2. एकाकी परिवार |
7. भारत में नातेदारी | 1. नातेदारी 2. पितृसत्ता 3. मातृसत्ता 4. वंश क्रम 5. वंश समूह |
8. भारत में जाति व्यवस्था: परिप्रेक्ष्य, विशेषताएं एवं परिवर्तन के आयाम | 1. जाति अर्थ परिभाषा लक्षण |





भारतीय समाज में एकता
भारतीय समाज में एकता की प्रकृति को अग्रांकित क्षेत्रों में समझा जा सकता है:
- धार्मिक एकता – यह सच है कि भारतीय समाज में विभिन्न धर्मों और सम्प्रदायों का समावेश है, लेकिन सभी धार्मिक समुदाय और सम्प्रदाय किसी न किसी रूप में एक-दूसरे के पूरक हैं। हिन्दू धर्म भारतीय समाज का सर्वप्रमुख धर्म है तथा एक बड़ी सीमा तक भारतीय समाज और संस्कृति की प्रकृति इसी से प्रभावित है। भारत की धार्मिक एकता उन भक्त कवियों से और अधिक मजबूत हुई जिन्होंने किसी न किसी रूप में यहां के धार्मिक दर्शन को एक सूत्र में बांधने का प्रयत्न किया। इनमें तुलसीदास, सूरदास और कबीर (उत्तर प्रदेश), तुकाराम (महाराष्ट्र), वसव (कर्नाटक), त्यागराज (तमिलनाडु), चैतन्य (बंगाल), नरसी मेहता (गुजरात) आदि प्रमुख हैं। भारत की धार्मिक एकता का सबसे बड़ा आधार इसका धर्मनिरपेक्ष स्वरूप होना है।
- सांस्कृतिक एकता – डॉ. दुबे के शब्दों में, भारत का हिमालय क्षेत्र पूरे देश के सभी महान सन्तों की साधना का केन्द्र रहा है। हिन्दुओं के चार प्रमुख धार्मिक केन्द्र देश की चार विभिन्न दिशाओं में स्थित हैं— उत्तर में बद्रीनाथ दक्षिण में रामेश्वरम्, पूरब में जगन्नाथपुरी तथा पश्चिम में द्वारिकापुरी।. गंगा, यमुना, नर्मदा, गोदावरी, कृष्णा और कावेरी नदियां विभिन्न राज्यों में स्थित हैं, लेकिन सभी हिन्दू इन्हें समान रूप से पवित्र मानते हैं। इसी प्रकार पूरे देश में बड़ी-बड़ी मस्जिदें और मुस्लिम स्मारक हैं। अमृतसर के स्वर्ण मन्दिर को पूरे देश के सिक्ख अपना सबसे प्रमुख धार्मिक केन्द्र मानते हैं।
- प्रजातीय एकता — यह सच है कि बहुत प्राचीनकाल से भारत में अनेक प्रजातीय समूहों का मिश्रण हो चुका है कि प्रजाति के आधार पर यहां किसी तरह का तनाव और संघर्ष देखने को नहीं मिलता। भारत के प्रत्येक क्षेत्र में गोरे, काले और गेहुंआ रंग के लोग साथ-साथ पाये जाते हैं तथा प्रत्येक जाति में सभी रंगों के लोग भी हैं।
- ग्रामीण नगरीय एकता – डॉ. दुबे ने अपनी पुस्तक ‘भारतीय समाज’ में लिखा है कि वर्तमान भारतीय समाज में ग्रामीण-नगरीय एकता एक प्रमुख तत्व है। शिक्षा, संचार और परिवहन की बढ़ती हुई सुविधाओं तथा नयी आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्था के फलस्वरूप ग्रामीण-नगरीय एकता में तेजी से वृद्धि हो रही है। गांव से नगरों की ओर होने वाले प्रवास के कारण ही नगरीय जनसंख्या बढ़ रही है। सांस्कृतिक आधार पर कभी-कभी यह समझ पाना कठिन हो जाता है कि नगर के एक विशेष क्षेत्र को नगरीय कहा जाय अथवा ग्रामीण अनेक ग्रामीण क्षेत्रों में भी नगरीय संस्कृति की विशेषताएं विकसित होती जा रही हैं। इस प्रकार ग्रामीण तथा नगरीय विभेद कम होने के साथ ही उनके बीच एक ऐसी एकता स्पष्ट हो रही है जिसमें मिश्रित संस्कृति की प्रधानता है।
- राजनीतिक एकता – स्वतन्त्रता के बाद भारत पहली बार एक संगठित राष्ट्र बना। आज सभी जातियों, क्षेत्रों और धर्मों के लोग इसी एक राष्ट्र का अभिन्न अंग हैं। भारत की संसद में सभी क्षेत्रों, धर्मों और जातियों का प्रतिनिधित्व है। देश में जब भी कोई कानून बनाया जाता है तो वह किसी विशेष क्षेत्र या समुदाय के लिए न होकर सम्पूर्ण राष्ट्र के लिए होता है। धर्म निरपेक्षता, समानता, स्वतन्त्रता और न्याय इस राष्ट्र के आधार हैं। एक लम्बी अवधि तक उपेक्षित रहने के बाद समाज के दुर्बल वर्गों जैसे— अनुसूचित जातियों, जनजातियों और स्त्रियों को विकास की विशेष सुविधाएं दी जा रही हैं।
वास्तविकता यह है कि वर्तमान भारतीय समाज अनेकता में एकता प्रदर्शित करने वाला एक अनुपम समाज है। इसी एकता का परिणाम है कि यहां समय-समय पर अनेक धर्मों और संस्कृतियों का विकास होने के बाद भी भारतीय अपने मीलिक अस्तित्व को बनाये हुए हैं।