भारतीय समाज में नारी की स्थिति अनेक प्रकार के विरोधों से ग्रस्त रही है। एक तरफ़ वह परंपरा में शक्ति और देवी के रूप में देखी गई है, वहीं दूसरी ओर शताब्दियों से वह ‘अबला’ और ‘माया’ के रूप में देखी गई है। दोनों ही अतिवादी धारणाओं ने नारी के प्रति समाज की समझ को, और उनके विकास को उलझाया है। नारी को एक सहज मनुष्य के रूप देखने का प्रयास पुरुषों ने तो किया ही नहीं, स्वयं नारी ने भी नहीं किया।

भारतीय समाज में नारी
समाज के विकास में नारी को पुरुषों के बराबर भागीदार नहीं बनाने से तो नारी पिछड़ी हुई रही ही, किंतु पुरुष के बराबर स्थान और अधिकार माँगने के नारी मुक्ति आंदोलनों ने भी नारी की स्थिति को काफ़ी उछाला।
नारी के संबंध में धार्मिक : आध्यात्मिक धारणा ने अनेक तरह की भ्रांतियाँ पैदा कीं तो आधुनिक समतावादी समाज में नारी और पुरुष दोनों के एक-जैसा समान समझने के कारण भी टकराव पैदा हुआ। भारत की संस्कृति हज़ारों वर्ष पुरानी होने के कारण इसमें नारी के जो विविध रूप अंकित हुए उनके वास्तविक एवं व्यावहारिक पक्ष को समझने में भी बहुत कठिनाई हुई। इसलिए न केवल भारतीय नारी की स्थिति को बल्कि पुरुष एवं पुरुष प्रधान समाज के परिप्रेक्ष्य में विश्व नारी को समझना एक जटिल कार्य है। मानव जीवन का रथ एक पहिए से नहीं चल सकता।
उसकी समुचित गति के लिए दोनों पहिए चाहिए। गृहस्थी की गाड़ी नर और नारी के सहयोग व सद्भावना से प्रगति पथ पर अविराम गति से बढ़ सकती है। नारी के अनेक रूप हैं – वह माता, पत्नी, बहन और बालक की प्रथम शिक्षिका है। भारतीय समाज में नारी की स्थिति एक समान न रहकर अनेक उतार चढ़ावों से गुजरी है।

भारतीय नारी का अतीत
प्राचीन काल में स्त्रियों को आदर और सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था। उस समय कहा जाता था- “ यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमते तत्र देवता। ” भारत के इतिहास पृष्ठ नारी की गौरव – गरिमा से मंडित हैं। शकुंलता, सीता, अनुसूया, दयमंती, सावित्री आदि स्त्रियों के उदाहरण इसकी साक्षी हैं। वेद और उपनिषद् काल में भी नारी को पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त थी। उन्हें सामाजिक अधिकार प्राप्त थे।
मध्यकाल में नारी
मध्यकाल में नारी की स्थिति में बदलाव आया। मुसलमानों के आक्रमण से हिंदू समाज का ढाँचा चरमरा गया। इसी कारण इस काल में नारी का कार्यक्षेत्र घर की चहार दीवारी तक ही सिमट कर रह गया। बाल विवाह , पर्दा प्रथा , सती प्रथा जैसी बुराइयों इसी काल में जन्मीं। इस प्रकार नारी केवल भोग्या और पुरुषों की दासी बनकर रह गईं।
आधुनिक युग में नारी
धीरे – धीरे विचारकों ने नारी की दयनीय दशा पर ध्यान देना शुरू किया। राजा राम मोहन राय ने सती प्रथा का अंत कराया। महर्षि दयानंद ने महिलाओं को समान अधिकार दिए जाने की आवाज़ उठाई। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद नारी वर्ग में चेतना का विशेष विकास हुआ। आज भारत की नारियाँ जीवन के हर क्षेत्र में पुरुषों के समकक्ष हैं , कहीं – कहीं तो पुरुषों को भी पीछे छोड़ गई है।

पाश्चात्य प्रभाव : भारतीय समाज में नारी पुरुषों के समकक्ष तो आ गई पर उस पर पाश्चात्य सभ्यता का अधिक प्रभाव पड़ा है। वे फैशन तथा प्रदर्शनप्रियता के जाल में फंसी हैं। आज की नारी अपने प्राचीन आदर्शों को भूलती जा रही है तथा सादगी से विमुख हो गई है।
नारी का आदर्श रूप : भारतीय नारी मानव जीवन के समतल में बहने वाली अमृत सलिला है। उसे अपने आदर्श रूप को विकृत नहीं करना चाहिए। उसमें स्नेह, उदारता, सहिष्णुता, त्याग, करुणा, सेवा आदि गुण होने चाहिए। आज उसकी योगी भूमिका है। एक ओर तो वह गृहिणी है तो दूसरी ओर राष्ट्र सेवा में रत भी है। उसे दोनों भूमिकाएं निभानी होंगी। इसके लिए पश्चिम की चकाचौंध से भ्रमित होकर अपनी शालीनता को बनाए रखना होगा। उसे आदर्श माता, आदर्श पत्नी , आदर्श गृहस्वामिनी के कर्तव्यों का भलीभाँति वहन करना होगा।
