7 प्रमुख भारतीय वैज्ञानिक और उनके योगदान

महान् भारतीय वैज्ञानिक की जीवनी मानव जाति एवं समाज के कल्याण हेतु नवीन आविष्कारों एवं सिद्धान्तों को खोजने के लिये प्रेरित करती है तथा कठिन परिश्रम करने की प्रकृति एवं विषम परिस्थितियों में समाज और विज्ञान की समृद्धि हेतु कुछ कर दिखाने की इच्छा को बल प्रदान करती है। इसी उद्देश्य एवं प्रत्याशा से इस अध्याय में प्रमुख भारतीय वैज्ञानिक का जीवनवृत्त एवं उनका विज्ञान में योगदान का उल्लेख किया जा रहा है।

वैज्ञानिकों का जीवन चरित्र विज्ञान के जिज्ञासुओं के लिये रोचक ही नहीं अपितु अत्यन्त प्रोत्साहन प्रदान करने वाला होता है। भारतीय वैज्ञानिक की जीवन-कथा से अवगत होकर अनायास ही विद्यार्थी के मस्तिष्क में प्रसिद्धि प्राप्त करने की प्रेरणा व लालमा और कठिन परिश्रम करने की प्रवृत्ति तथा समय प सर्वदा सदुपयोग करने आदि श्रेष्ठ गुणों का प्रादुर्भाव होता है। विज्ञान को आधुनिक सभ्यता के विकास का मूल कारण माना जाता है।

प्रमुख भारतीय वैज्ञानिक एवं उनका योगदान

विज्ञान के ही द्वारा मानव सभ्यता उन्नति पथ पर अग्रसर है। भारतीय वैज्ञानिक ने अपने मौलिक कार्यों से न केवल अपने ही लिये संसार में यश और प्रतिष्ठा प्राप्त की है, अपितु ये महान पुरुष संसार की दृष्टि में अपने देश की सरस संस्कृति व सभ्यता को उच्च शिखर पर पहुँचाने में भी सफलीभूत हुए हैं। विज्ञान के जिज्ञासुओं के लिये भारतीय वैज्ञानिक का जीवनवृत्त केवल रोचक ही नहीं होता, अपितु अत्यन्त प्रोत्साहक भी होता है।

डॉ. होमी जहांगीर भाभा

भारतीय वैज्ञानिक डॉ. होमी जहाँगीर भाभा का जन्म दिनांक 30 अक्टूबर, सन् 1909 ई. को बम्बई में एक सुप्रसिद्ध शिष्ट और सुसंस्कृत पारसी परिवार में हुआ था। डॉ. होमी भाभा के पिता श्री जे. एच. भाभा बम्बई के विख्यात बैरिस्टरों में थे। होमी भाभा पारसी सम्प्रदाय की अति प्राचीन परम्पराओं से भली-भाँति परिचित थे। डॉ. होमी जहाँगीर भाभा को सन् 1932 ई. में उच्च गणित का अध्ययन करने के लिये ट्रिनिटी कॉलेज से एक छात्रवृत्ति प्राप्त हुई। इस छात्रवृत्ति के समाप्त होते ही होमी भाभा को सन् 1934 ई. में तीन वर्ष के लिये सर आइजक न्यूटन छात्रवृत्ति प्रदान की गयी थी।

सन् 1936-37 में डॉ. होमी जहाँगीर भाभा ने कोपेनहेगेन स्थित नील्स बोहर की भौतिक विज्ञानशाला में भी पाँच महीने व्यतीत किये थे और वहाँ भौतिक सिद्धान्तों के विषय में वे अन्वेषण करते रहे थे। अक्टूबर सन् 1937 ई. में सुप्रसिद्ध भारतीय वैज्ञानिक प्रोफेसर मैक्स बार्न द्वारा आमन्त्रित किये जाने पर इन्होंने एडिनबरा में कास्मिक किरण-प्रसारण के बारे में कई भाषण दिये।

डॉ. भाभा के कास्मिक किरण सम्बन्धी कार्यों से प्रभावित होकर सन् 1939 ई. में रॉयल सोसाइटी ने अपने मांड फंड से डॉ. भाभा मैन्चेस्टर स्थित प्रोफेसर ब्लैसेट की कास्मिक किरण अनुसन्धानशाला में ‘सैद्धान्तिक भौतिक शास्त्र’ के पद पर कार्य करने तथा मैन्वेस्टर और केम्ब्रिज में अपने स्वतन्त्र मौलिक अन्वेषण जारी रखने के लिये विशेष आर्थिक सहायता प्रदान की थी। डॉ. होमी जहांगीर भाभा ने सन् 1945 ई. में ‘टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फण्डामेण्टल रिसर्च’ की स्थापना की और उसके निदेशक बने। परमाणु ऊर्जा के शान्तिपूर्ण उपयोगों के लिए सन् 1955 ई. में जिनेवा में हुए प्रथम संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन के डॉ. भाभा अध्यक्ष थे।

डॉ. भाभा का दिनांक 24 जनवरी सन् 1966 ई. में एक विमान दुर्घटना में निधन हो गया। डॉ. भाभा ने अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति के श्रेष्ठतम भारतीय वैज्ञानिक के साथ रहकर विज्ञान का अध्ययन और अन्वेषण कार्य किया था। इसके साथ ही उनमें स्वयं स्वतन्त्र मौलिक कार्य करने की उल्लेखनीय क्षमता और प्रतिभा थी। हम भारतवासियों के लिये यह बड़े गर्व और गौरव की बात है कि कास्मिक किरणों के सम्बन्ध मैं डॉ. होमी जहांगीर भाभा के अन्वेषण अत्यन्त उच्च कोटि के सिद्ध हुये ।

विज्ञान अर्थ परिभाषा प्रकृति क्षेत्र व 10 उपयोगशिक्षण प्रतिमान विकासात्मक वैज्ञानिक पूछताछ शिक्षण प्रतिमानआगमनात्मक विधि परिभाषा 5 गुण व 4 दोष
निगमनात्मक विधि परिभाषा 7 गुण व 5 दोषविज्ञान शिक्षण व विज्ञान शिक्षण की विधियांपरियोजना विधि अर्थ सिद्धांत विशेषताएं 7 गुण व 8 दोष
ह्यूरिस्टिक विधि के चरण 6 गुण व Top 5 दोषप्रयोगशाला विधि परिभाषा उपयोगिता गुण व दोषपाठ्यपुस्तक विधि परिभाषा गुण व Top 4 दोष
टोली शिक्षण अर्थ विशेषताएं उद्देश्य लाभअभिक्रमित शिक्षण की 5 विशेषताएं 6 लाभ 6 दोषइकाई योजना विशेषताएं महत्व – 7 Top Qualities of unit plan
मूल्यांकन तथा मापन में अंतरविज्ञान मेला Science Fair 6 Objectivesविज्ञान का इतिहास व भारतीय विज्ञान की 11 उपलब्धियाँ
विज्ञान शिक्षण के उद्देश्य Top 12 Objective7 प्रमुख भारतीय वैज्ञानिक और उनके योगदानविज्ञान शिक्षक की 13 विशेषताएँ
विज्ञान पाठ्य पुस्तक क्षेत्र आवश्यकता 10 विशेषताएँ व सीमाएँविज्ञान क्लब के 8 उद्देश्य क्रियाएँ व विज्ञान क्लब के संगठनविज्ञान क्लब के 8 उद्देश्य क्रियाएँ व विज्ञान क्लब के संगठन
निबन्धात्मक परीक्षा के 12 गुण दोष सीमाएँ व सुझावनिदानात्मक परीक्षण के 12 उद्देश्य 9 विशेषताएँउपलब्धि परीक्षण के 10 उपयोग 10 विशेषताएँ व 3 सीमाएँ
शैक्षिक निदान का अर्थ विशेषताएँ व शैक्षिक निदान की प्रक्रियापदार्थ की संरचना व पदार्थ की 3 अवस्थाएँ

थॉमस अल्वा एडीसन

भारतीय वैज्ञानिक एडिसन का जन्म 11 फरवरी, 1847 को मिलान ओहिया (अमेरिका) में हुआ था। ‘टिन फ्वाइल फोनोग्राफ’ मैनेलो पार्क में एडिसन द्वारा किया गया पहला महान आविष्कार था। वह एक ऐसी मशीन थी जो कि ध्वनि को रिकॉर्ड करके उसका पुनः उत्पादन कर सकती थी। फोनोग्राफ के बाद एडिसन ने तापदीप्त विद्युत प्रकाश का विकास किया। उन्होंने दो तरीके के विद्युत प्रकाश का उपयोग किया। (1) विद्युत आर्क (2) तापदीप्त प्रकाश। एडीसन ने बताया कि विद्युत आर्क लैम्प में जब दो इलेक्ट्रोडों के बीच आयनित गैस के माध्यम से धारा प्रवाहित होती है तो एक चाप (आर्द) के द्वारा प्रकाश उत्पन्न होता है।

ताप दीप्त लैम्प एक विद्युत लैम्प होता है। इसमें निर्वात में स्थित एक तंतु को जब विद्युत धारा प्रवाहित करके गर्म किया जाता है, तो तंतु प्रकाश उत्पन्न करता है। एक सर्वकालिक आविष्कारी मस्तिष्क वाले थामस एडिसन ने अपनी महान सफलता में मेनलो पार्क न्यूजर्सी में स्थित अपनी प्रयोगशाला और मशीन शॉप से प्राप्त की थी। उनके आविष्कारों में फोनोग्राफ प्रोजेक्टर, स्वचालित मल्टीफ्लेक्स टेलीग्राफ, कार्बन टेलीफोन ट्रांसमीटर और अल्पकालिक स्टोरेज बैटरी शामिल है। भारतीय वैज्ञानिक एडीसन ने अपने आविष्कार से पूरे संसार को प्रकाश से जगमगा दिया। सन् 18 अक्टूबर, 1931 को वेस्ट औरेंज में उनका निधन हुआ।

डॉ. जगदीश चन्द्र बोस

भारतीय वैज्ञानिक जगदीश चन्द्र बोस का जन्म दिनांक 30 नवम्बर, सन् 1858 को बंगाल प्रदेश के ढाका जिले के राढीवाल नामक गाँव में हुआ था। यह परिवार बंगाली परिवार था। इनके पिता भगवान चन्द्र बोस ने कई औद्योगिक संस्थान स्थापित की थीं। जगदीश चन्द्र बोस ने स्वयं ही इस सम्बन्ध में लिखा है, “मेरे पिता ने कई औद्योगिक और कला-कौशल के स्कूल खोले इनकी स्थापना से मेरी स्वाभाविक भारतीय वैज्ञानिक प्रवृत्ति की और अधिक प्रेरणा मिली। इसी प्रेरणा के बल पर मैं अपने आविष्कार करने में सफल हुआ।

नवम्बर सन् 1893 ई. में डॉ. बोस ने विद्युत चुम्बकीय तरंगों सम्बन्धी नवीन विज्ञान की विशेष जानकारी प्राप्त करने का संकल्प लिया और बड़े परिश्रम के साथ इन तरंगों के सम्बन्ध में अपने अनुसन्धान प्रारम्भ किये। कुछ समय पश्चात् इन अनुसंधानों के नतीजों की डॉ. बोस ने ‘विद्युत तरंगों के गुण’ शीर्षक से लेखों के रूप में लिखना प्रारम्भ किया। डॉ. बोस का प्रथम लेख ‘विद्युत किरण का मणिम द्वारा ध्रुवण’ बंगाल की एशियाटिक सोसायटी के जर्नल में मई सन् 1895 ई. में प्रकाशित हुआ।

इसके पश्चात् उसी वर्ष विद्युत से सम्बन्ध रखने वाले दो और लेख ‘इलैक्ट्रीशियन’ नामक पत्र में प्रकाशित हुये। विद्युत तरंगों के गुणों की परीक्षा और तत्सम्बन्धी अनुसन्धान करते समय डॉ. बोस का ध्यान हर्न द्वारा बतलायी गयी विद्युत चुम्बकीय तरंगों की ओर शीघ्रता से आकर्षित हुआ। विद्युत तरंगों के बारे में अनुसन्धान करते समय डॉ. जगदीश चन्द्र बोस ने विद्युत चुम्बकीय तरंगें उत्पन्न करने वाला एक नई किस्म का उत्पादक यन्त्र तैयार किया।

इस उत्पादक यन्त्र से 5 मिलीमीटर की लहर लम्बाई को अत्यन्त सूक्ष्म तरंगें उत्पन्न करने में सफलता मिली। डॉ. बोस ने अपने प्रयोगों द्वारा यह सिद्ध किया कि पेड़-पौधों में जीवन का स्पन्दन है। वे भी मनुष्यों की भांति सुख और दुखी होते हैं। उन पर भी सर्दी और गर्मी का प्रभाव पड़ता है। वे भी बाहरी मात्र स्पर्श से प्रभावित होते हैं और अन्य प्राणियों की तरह उत्तर देते हैं खाते, पीते, सोते हैं, काम करते हैं, आराम करते हैं और मरते हैं।

डॉ. बोस का सर्वप्रथम यन्त्र ‘अनुनादी अनुलेखन यन्त्र’ सन् 1911 ई. में बनकर तैयार हुआ इस यन्त्र की सहायता से पौधे अपने स्नायुओं में होने वाली उत्तेजना आदि का हाल स्वयं लिखने में समर्थ हो गये। इसके पश्चात् सन् 1914 ई. में डॉ. बोस ने ‘आस्कीलेटिंग रिकॉर्ड’ नामक यन्त्र बनाया। इस यन्त्र की सहायता से छोटे-छोटे पौधों की कपोलों में होने वाली स्नायविक धड़कन का प्रत्यक्ष प्रदर्शन करना सम्भव हो गया। इसके उपरान्त सन् 1917 ई. में कम्पाउण्ड लीवर क्रेस्कोग्राफ नामक एक सूक्ष्म ग्राही यन्त्र तैयार किया।

इससे साधारण वनस्पतियों और पौधों को बाह की गति का नापना भी सम्भव हो गया। डॉ. बोस ने सन् 1919 ई. में एक ऐसा यन्त्र भी बनाकर तैयार किया जिससे पौधों की छाल के नीचे उसके भीतर कोषों (Cell) में होने वाली वैद्युतिक क्रियाओं की शक्ति नापना भी सम्भव हो गया। सन् 1922 ई. में डॉ. बोस ने फोटो सिन्थेटिक रिकॉर्डर नामक यन्त्र तैयार किया। इसके द्वारा वृक्षों के पानी और भोजन ग्रहण करने के बारे में बहुत सी बातें ज्ञात हुई। सन् 1927 ई. में डॉ. बोस ने एक यन्त्र डाइमीट्रिक कण्ट्रैशन अपरेट्स बनाया।

इसके द्वारा पौधों के भीतर के कोषों और काठ रन्ध्रों में होने वाली आन्तरिक एवं अदृश्य क्रियाओं का पूरा-पूरा हाल ज्ञात कर लेना सम्भव एवं सुगम हो गया। सन् 1915 ई. में विश्व यात्रा के पश्चात् स्वदेश लौटने पर कोलकाता विश्वविद्यालय के अधिकारियों ने भारतीय वैज्ञानिक डॉ. जगदीश चन्द्र बोस को डॉ. ऑफ साइंस की सम्मानित उपाधि से विभूषित किया। 23 नवम्बर, सन् 1936 ई. को 78 वर्ष की आयु में इनका निधन हो गया।

मैरी क्यूरी

रसायनज्ञ महिला भारतीय वैज्ञानिक ‘मैरी क्यूरी’ का जन्म 7 नवम्बर 1867 ई. में वारसा पोलैण्ड में हुआ था। इनके बचपन का नाम स्कलोदोवस्का था। मैरी ने रेडियोधर्मिता के आविष्कारक प्रोफेसर बैकरेल की सहायिका के रूप में कार्य किया। बैकरैल ने कई वर्षों से कुछ यूरेनियम’ के टुकड़े को एक मेज की दरार में रख छोड़ दिया था। एक दिन मैरी ने उनमें से कुछ टुकड़े निकाले और उनका उपयोग ‘फोटो प्लेट’ को तौलने में किया। जब इन प्लेटों को विकसित किया तो इन पर विचित्र जाल सा फैला दिखायी दिया।

मैरी को संदेह हुआ कि निश्चय ही यूरेनियम से कुछ ऐसी किरणें निकलती हैं, जिन्होंने प्लेटों पर जाल सा बिछा दिया है। क्यूरी दम्पत्ति ने कई महीनों तक अपनी प्रयोगशाला में पिचब्लैंड पर प्रयोग किये। नवम्बर 1898 की रात को पिचब्लैंड से प्राप्त पदार्थ को उन्होंने एक परखनली में रख छोड़ा था। कुछ समय पश्चात् जब उन्होंने अपनी प्रयोगशाला का दरवाजा खोला तो देखा कि अंधेरे कमरे में उस परखनली से ‘हल्का नीला’ सा प्रकाश निकल रहा है। जैसे ही वहां प्रकाश किया वह नीला प्रकाश लुप्त हो गया। उन्होंने इस तत्व का नाम रेडियम रखा।

भारतीय वैज्ञानिक मैडम क्यूरी और उनके पति पियरे क्यूरी को प्रथम नोबेल पुरस्कार सन् 1903 में भौतिक विज्ञान के क्षेत्र में मिला। सन् 1911 में मैरी क्यूरी को रेडियम और पोलोनियम प्राप्त करने तथा तत्वों के अध्ययन के लिये रसायन विज्ञान ने ‘दूसरा नोबेल पुरस्कार’ मिला। मैडम क्यूरी के नाम पर ही रेडियोधर्मिता की इकाई का नाम क्यूरी रखा गया। रक्त के कैंसर के कारण मैडम क्यूरी का निधन 4 जुलाई, 1934 ई. को हो गया।

डॉ. ए. पी. जे. अब्दुल कलाम

डॉ. अब्बुल पाकिर जैनलाउद्दीन अब्दुल कलाम का जन्म तमिलनाडु राज्य के रामेश्वरम जिले के धनुष कोड़ी नामक कस्बे में 15 अक्टूबर, सन् 1931 में हुआ था। उनके पिता का नाम जैनुलाबदीन एवं माता का नाम अशियम्मा था। तिरुचिरापल्ली के सेंट जोसफ कॉलेज से विज्ञान में स्नातक की उपाधि प्राप्त करने के पश्चात् 1954 में कलाम ने मद्रास इंन्स्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी में ऐरोनॉटिकल इंजीनियरिंग का अध्ययन करने हेतु प्रवेश लिया। 1958 में कलाम रक्षा अनुसन्धान एवं विकास संस्थान में हावरफास्ट परियोजना में वरिष्ठ भारतीय वैज्ञानिक सहायक के रूप में नियुक्त हुये।

1962 में भारतीय वैज्ञानिक प्रो. एम. जी. के. मेनन, कलाम की लगन एवं मेहनत से प्रभावित होकर उन्हें भारतीय अन्तरिक्ष अनुसन्धान संगठन में ले गये। यही से डॉ. कलाम के जीवन का एक महत्वपूर्ण अध्याय प्रारम्भ हुआ। इसके पश्चात् डॉ. कलाम को थुम्बा स्थित उपग्रह प्रक्षेपण यान (SLV) परियोजना का निदेशक बनाया गया। जहाँ उन्होंने भारत के पहले स्वदेशी उपग्रह प्रक्षेपण यान एसएसवी-3 के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। जिसकी सहायता से रोहिणी उपग्रह सफलतापूर्वक अन्तरिक्ष में प्रक्षेपित किया गया था। 1981 में कलाम को पद्मभूषण पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

सन् 1982 में कलाम भारतीय रक्षा अनुसन्धान एवं विकास संस्थान में निदेशक के पद पर रहे। यहाँ उन्होंने अपना पूरा ध्यान इंटीग्रेटेड गाइडेड मिसाल डेवलपमेंट प्रोग्राम पर केन्द्रित कर दिया। कलाम के नेतृत्व में स्वदेशी तकनीकी पर आधारित पाँच मिसाइलों— पृथ्वी, नाग, त्रिशूल, आकाश एवं अग्नि के सफल परीक्षण किये गये। वर्तमान में इन मिसाइलों के कारण भारतीय सेना का आत्मविश्वास बढ़ा है तथा भारत आत्मरक्षा के मजबूत साधनों से सुसज्जित हुआ है।

जुलाई, 1992 में डॉ. कलाम भारतीय रक्षा मन्त्रालय में भारतीय वैज्ञानिक सलाहकार के पद पर नियुक्त किये गये। 1998 में उनकी देखरेख में पोखरण में भारत ने अपना दूसरा सफल परमाणु परीक्षण किया। 1997 में डॉ. कलाम को भारत सरकार ने सर्वोच्च नागरिक सम्मान (भारत रत्न) से अलंकृत किया। जुलाई, 2002 में डॉ. कलाम को भारत का राष्ट्रपति चुना गया। उन्होंने कई प्रेरणास्पद पुस्तकों की रचना की। वे अपने विचारों एवं कार्यों के कारण बच्चों एवं युवाओं के मध्य अत्यधिक लोकप्रिय रहे हैं। 27 जुलाई 2015 को शिलॉग (मेघालय) में उनका निधन हो गया।

एलबर्ट आइन्स्टीन

भारतीय वैज्ञानिक आइन्स्टीन का जन्म जर्मनी के उल्म नामक स्थान पर 14 मार्च, 1879 में हुआ था। इनकी रुचि भौतिकी और गणित विषय में थी। सन् 1905 में उन्होंने ज्यूरिख विश्वविद्यालय से पी. एच. डी. की उपाधि ली। आइन्स्टीन ने बताया कि पोटेशियम, टंगस्टन आदि धातुओं पर जब प्रकाश पड़ता है, तो इन धातुओं से इलेक्ट्रॉन निकलने लगते हैं। इन इलेक्ट्रॉनों को फोटो इलेक्ट्रिकल प्रभाव कहते हैं। आइन्स्टीन ने ‘ब्राउनियन गति’ का भी अनुसंधान किया।

इस सिद्धान्त के अनुसार किसी भी तरल पदार्थ के स्वतन्त्रतापूर्वक लटके हुए कणों की गति तरल पदार्थ के अणुओं से लगातार टकराने के कारण होती है। आइन्स्टीन ने ‘आपेक्षिकता का सिद्धान्त’ प्रस्तुत किया। इन्होंने बताया कि द्रव्यमान दूरी तथा समय जैसी भौतिक राशियाँ जिन्हें स्थिर माना जा सकता है, वे भी वेंग के साथ बदलती रहती है। इन्होंने यह भी सिद्ध किया कि प्रकाश कणों के रूप में चलता है, जिसे फोटोन कहते हैं। भारतीय वैज्ञानिक आइन्स्टीन को फोटो इलेक्ट्रिक प्रभाव की खोज के लिये भौतिक विज्ञान के क्षेत्र में नोबेल पुरस्कार दिया गया। 18 अप्रैल, 1955 को प्रिन्स्टन (अमेरिका) में इनका निधन हो गया।

डॉ. सर चन्द्रशेखर वेंकटरमन

भारतीय वैज्ञानिक डॉ. सी. वी. रमन का जन्म दिनांक 17 नवम्बर सन् 1888 ई. को त्रिचनापल्ली नामक नगर में हुआ था। सन् 1904 में वेंकटरमन ने प्रथम श्रेणी में बी. ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की। इस उपलक्ष्य में इनको विश्वविद्यालय की ओर से कई पारितोषिक व पदक प्रदान किए गए थे। भौतिक विज्ञान का ‘अर्णी स्वर्ण पदक’ भी इनको मिला। वर्णमापक का प्रयोग करते समय इनको कुछ नवीन बातें दृष्टिगोचर हुई। इन् इन बातों की विधिवत् जाँच और अध्ययन करके उनका विवरण और परिणाम निबन्ध रूप में लिखा। के लेख लन्दन की फिलोसफिकल मैंगजीन में प्रकाशित हुआ था।

दूसरा मौलिक अन्वेषण डॉ. वेंकटरमन: शब्द विज्ञान सम्बन्धी प्रयोग करके किया। इसके पश्चात् ये कोलकाता में भारतीय विज्ञान परिषद् सदस्य बन गये। सन् 1919 ई. में प्रो. चन्द्रशेखर वेंकटरमन साइंस एसोसिएशन के अवैतनिक प्रधानमन्त्री निर्वाचित किये गये। ‘रमन प्रभाव’ आचार्य चन्द्रशेखर वेंकटरमन का सर्वश्रेष्ठ भारतीय वैज्ञानिक अन्वेषण माना जाता है। इस अन्वेषण के उपलक्ष्य में इनको संसार प्रसिद्ध नोबेल पुरस्कार प्राप्त हुआ था।

प्रकीर्णन द्वारा आपतित प्रकाश की आवृत्ति में परिवर्तन होने की इस घटना को रमन प्रभाव कहते हैं तथा प्रकीर्णित प्रकाश के स्पेक्ट्रम को ‘रमन स्पेक्ट्रम’ एवं उच्च तथा निम्न आवृत्ति वाले प्रकाश के प्रकीर्णन को ‘रमन प्रकीर्णन’ कहते हैं। रमन स्पेक्ट्रम का दृश्य तथा पराबैंगनी प्रकाश में अध्ययन किया जा सकता है। यह महान भारतीय वैज्ञानिक बंगलौर में सन् 1907 ई. में परलोक सिधार गए।

आइजक न्यूटन

भारतीय वैज्ञानिक न्यूटन का जन्म 25 दिसम्बर, 1642 ई. में लिंकन शायर में हुआ था। इनकी शिक्षा कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से हुई। एक दिन न्यूटन सेब के पेड़ के नीचे बैठे थे। तभी अचानक एक सेब पेड़ से नीचे गिरा। तभी न्यूटन के मन में प्रश्न उठा कि सेब पेड़ से नीचे ही क्यों गिरा ? ऊपर क्यों नहीं चला गया ? उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि कोई बल सेब को नीचे की ओर खींच रहा है। इसी सिद्धान्त के आधार पर न्यूटन ने ‘गुरुत्वाकर्षण का सिद्धान्त’ दिया। न्यूटन ने बताया कि सूर्य का प्रकाश जो देखने में सफेद लगता है, वास्तव में बैंगनी, जामुनी, पीले, हरे, संतरी तथा लाल सात रंगों से मिलकर बना है।

इन सात रंगों को प्रिज्म की सहायता से अलग-अलग किया जा सकता है। न्यूटन ने ऐसी दूरबीन का आविष्कार किया जिसमें प्रकाश लैंस से गुजरने के स्थान पर दर्पण से परावर्तित होता है। न्यूटन को 1672 ई. में ‘रॉयल सोसाइटी’ लंदन का फैलो चुना गया। सन् 1689 में विश्वविद्यालय के प्रतिनिधि के रूप में पार्लियामेण्ट के सदस्य चुने गये। सन् 1605 ई. में महारानी ने कैम्ब्रिज के एक विशेष समारोह में ‘सर’ की पदवी से विभूषित किया। 20 मार्च, 1727 ई. में लंदन में न्यूटन का निधन हो गया।

सर आइजक न्यूटन को भौतिकी का जन्मदाता कहा जाता है और न्यूटन ने गति के 3 नियम प्रतिपादित किए। न्यूटन ने गणित में “केलकुलस” की नींव डाली। विज्ञान की प्रगति में पत्रिकाओं की भूमिका – भारतीय वैज्ञानिक पत्रिकाओं में लेख ज्यादातर पेशेवर पत्रकारों के बजाय सक्रिय वैज्ञानिकों जैसे छात्रों, शोधकर्ताओं और प्रोफेसरों द्वारा लिखे जाते हैं। प्रकाशन में हजारों भारतीय वैज्ञानिक हैं, और कई अतीत में विभिन्न बिन्दुओं पर प्रकाशित हुई हैं। वैज्ञानिक पत्रिकाओं में ऐसे लेख होते हैं जिनकी सहकर्मी समीक्षा की गई है, यह सुनिश्चित करने के प्रयास में कि लेख गुणवत्ता और वैज्ञानिक वैधता के जर्नल के मानकों को पूरा करते हैं।

शोध के वैज्ञानिक परिणामों का प्रकाशन वैज्ञानिक पद्धति का एक अनिवार्य अंग है। यदि वे प्रयोगों या गणनाओं का वर्णन कर रहे हैं, तो उन्हें पर्याप्त विवरण प्रदान करना होगा कि एक स्वतंत्र शोधकर्ता परिणामों को सत्यापित करने के लिए प्रयोग या गणना को दोहरा सके। ऐसा प्रत्येक जर्नल लेख स्थायी वैज्ञानिक रिकॉर्ड का हिस्सा बन जाता है। भारतीय वैज्ञानिक पत्रिकाओं में लेखों का उपयोग अनुसंधान और उच्च शिक्षा में किया जा सकता है। वैज्ञानिक लेख शोधकर्ताओं को अपने-अपने क्षेत्र के विकास के साथ अद्यतित रहने और अपने स्वयं के शोध को निर्देशित करने की अनुमति देते हैं।

स्कूली किताबें और पाठ्य पुस्तकें आमतौर पर केवल स्थापित विषयों पर ही लिखी गई हैं, जबकि नवीनतम शोध और अधिक स्पष्ट विषय केवल भारतीय वैज्ञानिक लेखों के माध्यम से ही उपलब्ध है। विज्ञान की पाठ्य-पुस्तकों में सभी प्रकार के सम्बन्धित ज्ञान का विस्तृत रूप से अच्छी तरह वर्णन नहीं किया जा सकता। विज्ञान ऐसा विषय है, जिसमें तथ्यों की वास्तविकता की ओर ध्यान दिया जाता है इसलिए सन्दर्भ ग्रन्थों तथा अन्य सामग्री की आवश्यकता पड़ती रहती है। विज्ञान का ज्ञान भण्डार असीमित है। इसमें नवीन ज्ञान जुड़ता रहता है।

शिक्षण विधियों तथा ज्ञान में परिवर्तन होते रहते हैं। इन्हीं सब बातों का ज्ञान प्राप्त करने तथा जानकारी में वृद्धि करने हेतु शिक्षकों तथा छात्रों को पाठ्य सहायक सामग्री के रूप में जर्नल्स उपलब्ध हैं। विश्व में विज्ञान के क्षेत्र में नये शोधों, नवीन सूचनाओं तथा अध्ययनों के विषय में जानकारी प्रदान करने का सबसे सस्ता व सुलभ साधन जर्नल्स होते हैं।

शिक्षक इन जर्नल्स की सहायता से छात्रों को नवीन जानकारी या सूचनायें उपलब्ध कराता है साथ ही इनके द्वारा वह छात्रों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण, वैज्ञानिक अभिवृत्ति तथा विज्ञान के प्रति रुचि उत्पन्न कर सकता है। जर्नल्स के अमूल्य लाभों को ध्यान में रखते हुए सभी विद्यालयों में अनिवार्य रूप से इन्हें उपलब्ध कराया जाना चाहिये। विज्ञान शिक्षकों को विद्यालय में एक छोटा विज्ञान पुस्तकालय स्थापित करना चाहिए।

Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments