भारतीय राष्ट्रवाद – उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में भारतीय राष्ट्रवाद का उदय हुआ जिसने आगे चल कर भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन को जन्म दिया और भारत की स्वतंत्रता का मार्ग प्रशस्त किया। राष्ट्रवाद ऐसा नहीं है कि भारतवासियों के मन में स्वतः ही और अचानक ही घर कर गया हो। यह धीरे धीरे भारतवासियों के हृदय में समाता गया और उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में लार्ड लिटन की दमनकारी नीतियों के कारण अचानक ही फूट पड़ा और उग्र रूप धारण कर लिया।
भारतीय राष्ट्रवाद
उन्नीसवी शताब्दी के चतुर्थाश तक राष्ट्रीयता की भावनायें भारतीय जनमानस के हृदय में घर कर गयी थी। अब केवल आवश्यकता थी कि उसी क्षण या घटना की जिसके कारण ये फूटकर सामने परिलक्षित होते। राष्ट्रीयता की भावना को प्रकट होने का अवसर दिया लार्ड लिटन की प्रतिक्रियावादी शासन ने लिटन के प्रतिक्रियावादी शासन ने भारतीय राष्ट्रवाद को संगठित होने का अवसर प्रदान किया। लिटन के शासन के दौरान जिन घटनाओं ने राष्ट्रवाद को जन्म दिया वे निम्न प्रकार है-
- 1876 ई. में सिविल सेवा परीक्षा की अधिकतम आयु सीमा 21 वर्ष से घटाकर 19 वर्ष कर दी गई और हिन्दुस्तानियों के लिए इस नौकरी के दरवाज़े लगभग बन्द कर दिये गये एक तो इस परीक्षा मे भारतीय विद्यार्थियों के लिए बैठना वैसे ही मुश्किल था क्योंकि परीक्षा इंग्लैण्ड में होती थी. दूसरे भारत मे शिक्षण कार्य अधिक उम्र होने पर प्रारम्भ होता था अतः भारतीय काफी कम संख्या में परीक्षा में बैठते थे। अब तो उनका परीक्षा में बैठना नामुमकिन था।
- 1877 ई. में भारत एक भयंकर दुर्भिक्ष की चपेट में था। उस समय लिटन ने दिल्ली में एक शानदार दरबार का आयोजन किया जिसमें अनाप-शनाप खर्च किया गया और दुर्भिक्ष पीड़ितों की तरफ कोई ध्यान नहीं दिया गया। इससे भारतीयों की भावनाओं को काफी ठेस पहुँची और वे ब्रिटिश राज्य के विरुद्ध हो गये। भारतीय राष्ट्रवाद
- आंग्ल-अफगान युद्ध में लिटन ने भारी मात्रा में धन खर्च किया इस युद्ध में अनेक भारतीय सिपाही मारे गये और अनेको की जाने गई। इस युद्ध से अंग्रेज़ों को कुछ लाभ भी नहीं हुआ। इस युद्ध की भारतीय विद्वानों ने खुलकर आलोचना की।
- 1878 ई में लिटन ने वर्नाकुलर प्रेस एक्ट पारित करवाया। इस कानून द्वारा भारतीय भाषायी समाचार-पत्रों पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। इस एक्ट द्वारा अंग्रेजी समाचार पत्रों पर प्रतिबन्ध नहीं लगाया गया था। इस कानून ने जनसाधारण तक को हिलाकर रख दिया।
- 1878 ई. में ही लार्ड लिटन ने आर्म्स एक्ट पारित किया। इस कानून के अन्तर्गत भारतवासियों और अंग्रेजों के बीच भेदभावपूर्ण रवैया अपनाया गया। अंग्रेजों एवं यूरोपियनों को तो हथियार रखने की इजाजत दी गई लेकिन भारतीयों को हथियार रखना प्रतिबन्धित कर दिया गया। भारतवासी बिना लाइसेंस के हथियार लेकर घूम नहीं सकते थे। इससे भारतीयों की भावनाओं के साथ खिलवाड़ किया गया।
- लार्ड लिटन ने सूती कपड़े पर से आयात कर हटाकर ब्रिटिश उद्योगपतियों की मदद की और भारतीय हथकरघा उद्योग के नष्ट होने का मार्ग प्रशस्त किया इससे भारतीय सूती कपड़ा उद्योग से जुड़े लोगों में असंतोष व्याप्त हो गया।



भारतीय राष्ट्रवाद उद्भव के कारण
भारतीय राष्ट्रवाद के उदय एवं विकास के लिए उत्तरदायी कारण निम्न बताये गये हैं-
1. ब्रिटिश शासन के दुष्परिणाम
ब्रिटिश शासन का दुष्परिणाम यह हुआ कि भारतीय जनता के हितों और अंग्रेजों के हितों के बीच टकराव होने लगा। भारत पर ब्रिटिश आधिपत्य का मुख्य उद्देश्य अपने हितों को साधना था। उन्होंने भारतवासियों के हितों का लेशमात्र भी ध्यान नहीं दिया। अतः भारतीय धीरे-धीरे वास्तविकता समझने लगे और विदेशी शासन की बुराइयों का उन्हें आभास हो गया।
अब भारतीय यह अच्छी तरह समझ गये थे कि ब्रिटिश शासन भारत के भावी आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, बौद्धिक और राजनीतिक विकास में मुख्य अवरोध बन गया है। भारत का प्रत्येक वर्ग और प्रत्येक श्रेणी ब्रिटिश शासन के प्रति सशंकित हो गया था। किसानों से सरकार उपज का एक बड़ा हिस्सा भू-राजस्व के रूप में ले लेती थी और उसके कर्मचारी किसानों का शोषण करवाते थे और जमीदारों और महाजनों का ही पक्ष लेते थे। भारतीय राष्ट्रवाद
जमींदारों तथा महाजनों के विरुद्ध वे जब कभी आवाज उठाते, तो पुलिस कानून एवं व्यवस्था के नाम पर उनका दमन कर देती थी। हस्तशिल्पी और दस्तकार भी ब्रिटिश नीति के शिकार थे। उन्हें भी ब्रिटिश व्यापारियों के हितों के आगे बलि का बकरा बना दिया गया था। ब्रिटिश मालिकों की फैक्ट्रियों में मजदूरों के साथ जानवरों जैसा व्यवहार किया जाता था। लेकिन सरकार के द्वारा मजदूरों के हितों की ओर कोई ध्यान नहीं दिया जाता अगर दिया भी जाता तो केवल नाममात्र का।
किसान, मजदूर और दस्तकार जो बहुमत में थे, की स्थिति शोचनीय थी। उनके पास न तो कोई राजनीतिक अधिकार था और न ही उनके सामाजिक एवं सांस्कृतिक उत्थान हेतु कोई प्रयास किया गया था। शिक्षा की उनके लिए सरकार द्वारा उचित एवं पर्याप्त व्यवस्था नहीं की गई थी। भारतीय राष्ट्रवाद से यह बड़ा वर्ग आर्थिक एवं सामाजिक शोषण के साथ-साथ कूप-मंडूप भी बन गया।
शिक्षित भारतीयों ने वस्तुस्थिति को भलीभाँति समझा और निष्कर्ष निकाला कि ब्रिटेन भारत को अपना एक आर्थिक उपनिवेश बना रहा है। अतः भारतीय अर्थव्यवस्था पर जब तक साम्राज्यवादी नियंत्रण बना रहेगा तब तक भारत का विकास कर पाना असम्भव है। राजनीतिक दृष्टि से भी भारत का विद्वान वर्ग काफी सशंकित था। अंग्रेज भारत को गुलाम बनाये रखना चाहते थे।
कई अंग्रेज अधिकारियों और गवर्नर जनरलों ने इस बात की खुलेआम घोषणा कर दी थी कि हम यहाँ स्थायी रूप से शासन करने आये हैं। अंग्रेजों ने भारतीयों को राजनीति से पृथक रखने के लिए हर सम्भव प्रतिबन्ध लगाये और सदैव भारतीयों को राजनीतिक में अयोग्य घोषित करने का प्रयास किया। भारतीय राष्ट्रवाद
शिक्षित बेरोजगारों की संख्या दिन व दिन बढ़ती जा रही थी और जिन्हें रोजगार मिला भी था वह उनकी योग्यता से काफी कम था क्योंकि अंग्रेज अच्छी नौकरियों अंग्रेजो के लिए सुरक्षित रखते थे। अतः शिक्षित वर्ग समझ गया था कि ब्रिटिश राज्य में अच्छी नौकरी पाना और सम्मानजनक जीवन व्यतीत करना संभव नहीं है।
अतः वे स्वराज्य प्राप्त करने के मार्ग पर अग्रसर होने लगे। संक्षेप में कहा जा सकता है कि ब्रिटिश शासन के चरित्र तथा उसके भारतीय जनता पर पढ़ने वाले दुष्परिणामों के फलस्वरूप ही राष्ट्रीयता की भावना का उदय हुआ और एक शक्तिशाली सामाज्यवादी विरोधी आन्दोलन का भारत में विकास हुआ। आप भारतीय राष्ट्रवाद Hindibag पर पढ़ रहे हैं।
2. ब्रिटिश आर्थिक नीतियाँ
भारत पर ब्रिटिश शासन का एक लाभ यह हुआ कि सम्पूर्ण भारत एक प्रशासनिक तंत्र के अन्तर्गत आ गया और उसका राजनीतिक एकीकरण हुआ। अंग्रेजों ने सम्पूर्ण भारत में एक समान आधुनिक शासन प्रणाली लागू की और प्रशासनिक रूप से एक सूत्रबद्ध किया। ब्रिटिश आर्थिक नीतियों के कारण सम्पूर्ण भारत के किसानों, मजदूरों और दस्तकारों का एक समान शोषण हुआ और आधुनिक व्यापार उद्योगों का एक समान विकास हुआ तथा सभी की समस्यायें एक समान हुई।
अत: आर्थिक जीवन एक सूत्रबद्ध हो गया और देश के विभिन्न भागों में रहने वालों की आर्थिक नीति परस्पर सम्बद्ध हो गई। अंग्रेजों की आर्थिक नीतियों इस प्रकार की थी कि देश के किसी भाग की आर्थिक विपदा का प्रभाव समस्त देश पर पड़ता था। अगर देश के किसी भी भाग में अकाल पड़ता तो देश के अन्य भाग भी प्रभावित होते थे, कीमतें सम्पूर्ण देश में बढ़ जाती। आप भारतीय राष्ट्रवाद Hindibag पर पढ़ रहे हैं।
अतः सभी भारतवासियों का आर्थिक रूप से एक सूत्रबद्ध हो जाना लाजमी था संचार माध्यम, रेलवे, टेलीग्राफ और डाक व्यवस्था की स्थापना से भी देश एक सूत्रबद्ध हो गया और एक स्थान की समस्याओं से दूसरे स्थान के लोग शीघ्र ही अवगत होने लगे नेताओं के बीच विचार-विमर्श होने लगे, पत्रों का आदान प्रदान होने लगा जिससे राष्ट्रवाद की भावना उजागर होने लगी।
3. पश्चिम दर्शन एवं शिक्षा
अंग्रेजों के आगमन के साथ ही उन्नीसवी शताब्दी में आधुनिक पाश्चात्य शिक्षा और चिन्तन के प्रसार से भारतीयों के दृष्टिकोण में काफी अन्तर आया। भारतवासियों ने आधुनिक, धर्मनिरपेक्ष, प्रजातांत्रिक और राष्ट्रीय राजनीतिक दृष्टिकोण ग्रहण कर लिया। भारतीयों ने पाश्चात्य शिक्षा से पश्चिम के इतिहास और दर्शन की जानकारी हासिल की यूरोपीय राष्ट्रीय आन्दोलनों और अमरीकी स्वतन्त्रता संग्राम का उन पर व्यापक असर हुआ।
रूसो, पेन, जॉन स्टुअर्ट मिल और अन्य पाश्चात्य दार्शनिकों की जीवनियों ने भारतीय चितको एवं नेताओं को प्रभावित किया। ये दार्शनिक उनके मार्गदर्शक बन गये भारतीय युवाओं ने मेजिनी, गैरीबाल्डी आदि नायकों का अनुसरण किया जिसके फलस्वरूप अनेक गुप्त संगठनों का निर्माण होने लगा। अब भारतीय विदेशी शासन में स्वयं को अपमानित महसूस करने लगे थे। वे पूर्णतः विदेशी शासन के दुष्परिणामों से अवगत हो गये थे।
भारतीय नेताओं का दार्शनिक चिंतन अब पूर्णतः राजनीति से प्रेरित हो गया था। यद्यपि सरकारी और सरकारी सहायता प्राप्त स्कूलों में विद्यार्थियों को ब्रिटिश शासन के प्रति प्रेम समर्पण और स्वामिभक्ति की भावना भरी जाती थी लेकिन आधुनिक विचारों के प्रचार ने सरकारी विद्यालयों को अपने प्रयत्नों में सफल होने से रोक दिया। भारतीय राष्ट्रवाद
अंग्रेजों ने अंग्रेजी भाषा को सम्पूर्ण भारत में शिक्षा का माध्यम बनाया। इससे शिक्षित भारतीयों के बीच विचारों के आदान-प्रदान में सुविधा हुई, अब भाषा की समस्या नहीं रह गई। अंग्रेजी भाषा से भारतीय समाज को एक नुकसान अवश्य हुआ कि भारतीय अशिक्षित वर्ग विशेषकर किसान वर्ग, शिक्षित वर्ग से स्पष्टतः अलग हो गया। इस तथ्य को शीघ्र ही भारतीय नेताओं द्वारा समझ लिया गया तथा उन्होंने जनसाधारण में विचारों का प्रचार करने के लिए भारतीय भाषाओं को माध्यम बनाया और उनका विकास किया।
4. साहित्य और समाचार पत्रों की भूमिका
अखिल भारतीय चेतना और राष्ट्रीयता की भावना का अलख जगाने में साहित्य एवं समाचार पत्रो की अहम भूमिका रही। अठारहवी सदी के अंत से ही समाचार पत्रों का प्रकाशन शुरू हो गया और उन्नीसवी शताब्दी में तो बाढ़ सी आ गई। पत्रों एवं पत्रिकाओं में सरकार की नीतियों को उजागर किया जाने लगा और उनकी आलोचना और समीक्षा की जाने लगी।
भारतीय जनता को अंग्रेजों के दृष्टिकोण से अवगत कराया गया और जनता से आग्रह किया गया कि वह राष्ट्र के कल्याण के लिए सोचे और एकजुट होकर काम करे। समाचार पत्रों ने आधुनिक राजनीतिक विचारों, स्वशासन, प्रजातंत्र और औद्योगीकरण को प्रचारित किया।
उस समय के महत्वपूर्ण समाचार पत्रो जैसे अमृत बाजार पत्रिका, बंगाली, संजीवनी, हिन्दू पैट्रियाट, इण्डियन मिरर, सोम प्रकाश, रस्त गोफ्तार, नेटिव ओपिनियन एडवोकेट, हिन्दुस्तानी, आजाद केसरी, मराठा, ट्रिब्यून आदि ने भारतीय जनमानस के मस्तिष्क पर अपनी अमिट छाप छोड़ी। आप भारतीय राष्ट्रवाद Hindibag पर पढ़ रहे हैं।
बंगला भाषा के रवीन्द्रनाथ टैगोर, बंकिमचन्द्र चटर्जी, मराठी भाषा के विष्णुशास्त्री चिपलुकर, असमिया भाषा के लक्ष्मीकांत बेज बरुआ, हिन्दी भाषा के भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, तमिल भाषा के सुब्रह्मण्यम भारती ने राष्ट्रीय साहित्य रचना में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया और राष्ट्रीय आन्दोलन को नये आयाम देकर जनमानस में राष्ट्रवाद की भावना के उदय में महती भूमिका निभायी।

5. भारतीयों में अपनी प्राचीन संस्कृति के प्रति आकर्षण
ब्रिटिश लेखकों और ईसाई मिशनरियों ने यह दावा किया कि भारतीयों का धार्मिक और सामाजिक जीवन काफी गिरा हुआ है तथा ये असभ्य और जंगली है। वर्तमान की बात तो अलग अतीत में भी वे शासन करने योग्य नहीं रहे। सदैव ही विदेशियों ने उन पर शासन किया। यहाँ के हिन्दू और मुसलमान कभी एक नहीं रहे और सदैव ही आपस में लड़ते-झगड़ते रहे।
उन्होंने इस बात का प्रचार किया कि भारत सदैव से विदेशियों का ऋणी रहा है। उसका अपना कुछ भी नहीं और भारतीयों के मन में यह भावना भरने की चेष्टा की कि वे शासन करने योग्य है ही नहीं। विदेशी शासन में उनका हित है। लेकिन ऐतिहासिक खोजों, अन्वेषणों और पुरातात्विक खोजों से भारतीय इतिहास को नई दिशा मिली।
कुछ ऐतिहासिक लेखको मैक्समूलर, विलियम्स, रुथ आदि ने वैभवपूर्ण सांस्कृतिक विरासत को नये आयाम दिये। पुरातात्विक खोजों ने भारत के अतीत का गौरवशाली चित्रांकन किया। मैक्समूलर और अन्य विद्वानों ने मुक्त कंठ से वेदों और उपनिषदों की प्रशंसा की और उन्हें विश्व के प्राचीनतम ग्रंथों में से एक बताया।
साथ ही साथ यह सिद्ध करने का प्रयास किया कि भारतीय आर्यों की उत्पत्ति वहीं से हुई जहाँ से यूरोपीय जन समुदाय की इन सभी ने मनोवैज्ञानिक रूप से शिक्षित भारतीयों को प्रभावित किया। इसके अतिरिक्त अनेक राष्ट्रवादी नेताओं ने इस प्रचार का खण्डन कर जनता में आत्मविश्वास तथा आत्मसम्मान की भावना का संचार करने का प्रयास किया। आप भारतीय राष्ट्रवाद Hindibag पर पढ़ रहे हैं।
राष्ट्रवादी नेताओं ने चन्द्रगुप्त मौर्य, अशोक चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य, शेरशाह अकबर राणा प्रताप, हर्ष, शिवाजी आदि भारतीय शासकों की उपलब्धियों की और आलोचकों का ध्यान आकर्षित किया और उनके मुँह बन्द किये। विद्वानों ने प्राचीन भारतीय कला, वास्तुशिल्प, साहित्य, दर्शन, विज्ञान और राजनीति को खोज निकाला और भारतीयों को अपने अतीत पर गौरवान्वित होने पर बल देकर राष्ट्रवाद की भावना उजागर करने में भरपूर सहयोग दिया।
6. जातीय अहंकार और भारतीय के प्रति उनका दृष्टिकोण
राष्ट्रीयता की भावना की उत्पत्ति का एक अन्य कारण अंग्रेजों का जातीय अहंकार और उनके द्वारा अपनाया गया जातीय श्रेष्ठता का भाव था। अंग्रेज भारतवासियों को अपमानित करने और उन पर प्रहार करने में जरा भी नहीं चूकते थे। व्यवहार में ही नहीं न्यायालय में भी अंग्रेजों का जातीय श्रेष्ठता का भाव और जातीय अहंकार स्पष्ट रूप से दिखाई देता था।
जब कभी किसी अंग्रेज का किसी भारतीय से झगडा होता तो न्यायालय सदैव अंग्रेज का ही पक्ष लेता था। अपराध चाहे किसी का भी हो। अंग्रेज बड़ा से बड़ा अपराध करके भी अत्यधिक मामूली दण्ड मुगतकर या जुर्माना भरकर अधिकाशत छूट जाया करते थे जबकि भारतीयों को छोटे से छोटे अपराध के लिए भयंकर यातनाओं को भुगतना पड़ता था। भारतीय राष्ट्रवाद
अंग्रेजों का मानना था कि एक अंग्रेज की गवाही असंख्य भारतीयों की गवाही से भारी पड़ेगा। अंग्रेज भारतीयों के साथ अभद्रतापूर्ण व्यवहार करते थे। यूरोपीय रेस्तरा और क्लबों में भारतीय प्रवेश नहीं कर सकते थे। इनके दरवाजों पर लिखा होता था कि Indians and dogs are not allowed. रेलगाडियो तथा सड़को पर भारतीय उनके साथ यात्रा नहीं कर सकते थे।
भारतीयों को दैनिक जीवन में रोजमर्रा अपमान के घूंट पीकर रह जाना पड़ता था। इसके अतिरिक्त लार्ड लिटन की प्रतिबुद्धिवादी नीति एवं भेदभावपूर्ण रवैये से तंग आकर भारतीयों में अंग्रेजों से मुकाबला करने के लिए एकजुट होने लगे तथा उनमें राष्ट्रवाद की तीव्र भावना उभरने लगी।